झारखंड के 10 नायक जो अंधेरों में रौशनी जला रहे हैं

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 26-10-2025
Where a dream becomes a mission: Ten heroes from Jharkhand who are transforming society
Where a dream becomes a mission: Ten heroes from Jharkhand who are transforming society

 

आवाज़ द वॉयस ब्यूरो

क छोटे से अंतराल के बाद, आवाज़ द वॉयस अपने पाठकों के लिए एक बार फिर अपनी खास श्रृंखला 'द चेंज मेकर्स' लेकर हाज़िर है. इस बार, समाज में सकारात्मक बदलाव लाने वाले दस प्रेरणादायक चरित्रों की कहानियाँ हम सीधे झारखंड से लेकर आए हैं. चूँकि झारखंड एक आदिवासी बहुल प्रदेश है, जहाँ गरीबी और शिक्षा के अभाव की समस्याएँ गहरे तक जमी हुई हैं, इसलिए यहाँ की अधिकांश कहानियाँ शिक्षा और गरीबी उन्मूलन के माध्यम से लाए गए बदलाव पर केंद्रित हैं.

इन दस अनूठी कहानियों को आवाज़ द वॉयस के सहयोगी जेब अख्तर ने ख़ासी मशक्कत के बाद इकट्ठा किया है. हमें आशा है कि पाठकों को हर बार की तरह, इस बार भी समाज की बेहतरी के लिए काम करने वाले इन दस असाधारण चरित्रों की अनोखी गाथाएँ अवश्य पसंद आएंगी. ये कहानियाँ केवल व्यक्तिगत उपलब्धियाँ नहीं हैं, बल्कि यह दर्शाती हैं कि कैसे कुछ समर्पित लोग ईमानदारी और दृढ़ संकल्प के बल पर बड़ी से बड़ी सामाजिक चुनौतियों का समाधान कर सकते हैं.

अनवरुल हक: फ़ुटबॉल के ज़रिए भविष्य का निर्माण – मैदान से लेकर कक्षा तक

झारखंड के ग्रामीण इलाकों में, गरीबी और अभाव अक्सर बच्चों के सपनों को जन्म लेने से पहले ही कुचल देते हैं. यह एक परिचित लेकिन दर्दनाक तस्वीर है. लेकिन, रांची के कांके ब्लॉक के चदरी गाँव से एक नई आशा की कहानी उभर रही है, जिसके नायक हैं अनवरुल हक.

अनवरुल का जीवन दोहरी प्रतिबद्धता का प्रतीक है: दिन में, वह फ़ुटबॉल सिखाते हैं, और रात में, बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हैं.

रांची के एक आवासीय बालिका विद्यालय में खेल शिक्षक के रूप में कार्यरत अनवरुल ने अपनी नौकरी की सीमा से बाहर जाकर बदलाव लाने का फैसला किया. 2021 में, उन्होंने अपने गाँव और आसपास के क्षेत्रों के बच्चों की दयनीय स्थिति देखी—जिनमें से अधिकांश दिहाड़ी मज़दूरी पर आश्रित परिवारों से थे, स्कूल छोड़ रहे थे, या ग़लत संगत में पड़ रहे थे. अनवरुल ने महसूस किया कि उन्हें आगे लाने का एकमात्र रास्ता शिक्षा और खेल को जोड़ना है.

समस्याएँ कई थीं: कोई खेल का मैदान नहीं था, न ही कोई संसाधन. लेकिन अनवरुल ने हार नहीं मानी. उन्होंने उपलब्ध साधनों से ही शुरुआत की और पिछले तीन वर्षों में, उनके प्रयासों ने कई ऐसे बच्चों का जीवन बदल दिया है जिनके लिए शिक्षा और खेल कभी एक दूर का सपना थे. अनवरुल हक ने न सिर्फ़ उन्हें शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान किया, बल्कि अनुशासन और टीम भावना के मूल्य भी सिखाए. फ़ुटबॉल के मैदान में जगाई गई यह आशा की भावना, रात की कक्षाओं में ज्ञान के प्रकाश में बदल जाती है.

इबरार अहमद: मानवता और समाज के प्रति समर्पित जीवन – शिक्षा की चाबी से समाज का ताला खोलना

झारखंड की राजधानी रांची की गलियों, मोहल्लों और उससे परे, एक नाम जो आशा, शिक्षा और मानवता के साथ गूंजता है, वह है इबरार अहमद. एक समय बैंक में कार्यरत रहे और प्रतिष्ठित सांस्कृतिक संगठन IPTA से गहराई से जुड़े इबरार ने अपने जीवन के तीन दशकों से अधिक समय समाज की भलाई के लिए समर्पित किया है.

इबरार अहमद को उस व्यक्ति के रूप में जाना जाता है जो संकट के समय एक ढाल बनकर सामने आते हैं. जब कोई बच्चा फ़ीस के अभाव में स्कूल छोड़ देता है, तो वह आगे आते हैं. जब गरीब मरीज़ इलाज के लिए बेसहारा भटकते हैं, तो वह मदद करते हैं. जब सांप्रदायिक तनाव समाज को तोड़ने की धमकी देता है, तो वह सद्भाव स्थापित करने का प्रयास करते हैं.

इबरार ने न सिर्फ़ व्यक्तिगत स्तर पर काम किया है, बल्कि मौलाना आज़ाद ह्यूमन इनिशिएटिव (MAHI) और अंजुमन इस्लामिया रांची जैसी संस्थाओं का नेतृत्व भी किया है. उनके प्रयासों का सार उनके इस विश्वास में निहित है: "शिक्षा वह चाबी है जो समाज के बंद तिजोरी के ताले खोल सकती है." अंजुमन इस्लामिया रांची के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने गरीब बच्चों के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था की और प्रतिभा शो व क्विज प्रतियोगिताओं का आयोजन किया, यह सुनिश्चित करते हुए कि शिक्षा सिर्फ़ पाठ्यपुस्तकों तक सीमित न रहे, बल्कि आत्मविश्वास और कौशल का भी निर्माण करे.

मुज़फ्फर हुसैन का संथाल भूमि पर भूख के खिलाफ संघर्ष – एक सरल सपना, एक महान मिशन

मुज़फ्फर हुसैन का सपना जितना सरल है, उतना ही गहरा भी — झारखंड के संथाल परगना में कोई भी भूखा न सोए. यह दूरदराज का क्षेत्र है, जहाँ गरीबी सिर्फ एक स्थिति नहीं, बल्कि एक जीती-जागती, कठोर वास्तविकता है. पाकुड़, गोड्डा, साहिबगंज, दुमका, जामताड़ा और देवघर के छह जिलों में अभाव का लंबा और दर्दनाक इतिहास रहा है. एक अध्ययन के अनुसार, संथाल के 82 प्रतिशत लोग अत्यधिक गरीबी में जीते हैं, और अधिकांश के पास अपनी ज़मीन भी नहीं है.

इस कठोर वास्तविकता के बीच, पाकुड़ के मुज़फ्फर हुसैन खड़े हैं, जिन्होंने भूख से लड़ना अपना मिशन बना लिया है. उनका संघर्ष खाद्य अधिकार अधिनियम (Right to Food Act) के 2013 में पारित होने से पहले ही शुरू हो गया था. आज, जबकि यह अधिनियम कागज़ पर मौजूद है, मुज़फ्फर का जीवन समर्पित है यह सुनिश्चित करने में कि भोजन वास्तव में ज़रूरतमंदों तक पहुँचे. उनका काम संथाल की ज़मीन पर एक मानवीय हस्तक्षेप है, जो दर्शाता है कि इच्छाशक्ति किसी भी सरकारी योजना से अधिक प्रभावी हो सकती है.

मोहम्मद मिन्हाज का मिशन: रांची के स्लम बच्चों को सशक्त बनाना – लालटेन की रोशनी में शिक्षा

झारखंड की राजधानी रांची में मोहम्मद मिन्हाज से मिलने पर, आपको शायद तुरंत उस शांत आग का एहसास न हो जिसने उन्हें चार दशकों से अधिक समय से समाज की सेवा के लिए प्रेरित किया है. अपनी विनम्रता और कोमल आवाज़ के पीछे, वह एक असाधारण शक्ति छिपाए हुए हैं—एक ऐसा व्यक्ति जिसने रांची के स्लमों में आशा की एक नई रोशनी लाई है.

उनकी यात्रा 1982 में शुरू हुई, जब रांची तेज़ी से बढ़ रहा था, लेकिन इसके स्लम उपेक्षा के अंधेरे में डूबे हुए थे. दिहाड़ी मज़दूरों, रिक्शा चालकों और मज़दूर वर्ग के परिवारों के लिए दो वक्त की रोटी कमाना ही एक संघर्ष था. उनके लिए शिक्षा एक दूर का सपना थी—एक ऐसी विलासिता जिसे वे कभी वहन नहीं कर सकते थे.

तभी मिन्हाज ने फैसला किया कि शिक्षा ही स्थायी बदलाव की नींव होगी. उन्होंने सबसे गरीब मोहल्लों में रात्रि कक्षाएं शुरू कीं. जब मज़दूर एक लंबे दिन के बाद थके-हारे घर लौटते थे, तो मिन्हाज लालटेन की हल्की रोशनी में उन्हें पढ़ाने जाते थे, साथ ही अपने परिवार का प्रबंधन भी करते थे. शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक अधिकार उनके जीवन का उद्देश्य बन गए.

मुख्तार आलम: आज़ाद बस्ती का परिवर्तन – अपराध के गढ़ से गर्व का केंद्र

मुख्तार आलम खान एक ऐसे 'चेंज मेकर' हैं, जिनके प्रयासों ने जमशेदपुर की आज़ाद बस्ती की छवि और पहचान को पूरी तरह से बदल दिया है. एक समय था जब जमशेदपुर में आज़ाद बस्ती का नाम अपराध, भय और नकारात्मक छवि से जुड़ा था—जैसे धनबाद का वासेपुर.

आज, आज़ाद बस्ती का नाम गर्व के साथ लिया जाता है. मुख्तार इस मिशन में अकेले नहीं थे; उनके साथी भी इस निराशा को आशा में बदलने में सहायक रहे. मुख्तार आलम खान और उनकी टीम हर उस जगह मौजूद होती है जहाँ गरीब, कमज़ोर या ज़रूरतमंद लोग मदद के लिए पुकारते हैं. चाहे वह मरीज़ों के लिए रक्त और दवाइयों की व्यवस्था करना हो, भूखों को भोजन कराना हो, या बच्चों को शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में समर्थन देना हो, मुख्तार आलम का काम करुणा और सामुदायिक सेवा का पर्याय बन गया है. उन्होंने यह साबित किया कि स्थानीय लोगों के सामूहिक प्रयास से किसी भी क्षेत्र की बदनामी को खत्म किया जा सकता है.

साजिद का ‘स्कूलोजियम’ शिक्षा में क्रांति ला रहा है – अनुभव से सीखने का मॉडल

एक प्रतिष्ठित शोध करियर छोड़कर आए वैज्ञानिक डॉ. साजिद हुसैन, रामगढ़ के चितरपुर गाँव के बच्चों के लिए एक उज्जवल भविष्य का निर्माण कर रहे हैं. उन्होंने अपनी पहल "स्कूलोजियम" के माध्यम से पूरे भारत में शिक्षा को पुनर्परिभाषित करने वाला एक मॉडल तैयार किया है.

साजिद समझाते हैं: "जैसे हमारे शरीर को फिट रहने के लिए व्यायाम की ज़रूरत होती है, वैसे ही मस्तिष्क को भी सक्रिय रहने के लिए नियमित व्यावहारिक कसरत की ज़रूरत होती है."

स्कूलोजियम में, बच्चे केवल पाठ्यपुस्तकों से नहीं पढ़ते, वे स्पर्श, गंध, स्वाद और अनुभव के माध्यम से सीखते हैं. वे नींबू, करेला और हल्दी का स्वाद चखकर एसिड और बेस को समझते हैं; वे अपनी रसोई से अनाज और सब्ज़ियों की जाँच करके पोषण सीखते हैं. यह रबींद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन के दृष्टिकोण की याद दिलाता है—पारस्परिक क्रिया और कल्पना के माध्यम से सीखना. डॉ. साजिद हुसैन ने खुद एक ऐसे सरकारी स्कूल में शुरुआती शिक्षा प्राप्त की थी जहाँ 100 से अधिक बच्चे एक ही कक्षा साझा करते थे. इसी अनुभव ने उन्हें यह महसूस कराया कि शिक्षा को रटने की पद्धति से बाहर निकालना कितना आवश्यक है.

डॉ. शाहनवाज़ कुरैशी: दृढ़ता का प्रतीक – स्लम से ज्ञान की मशाल

रांची के प्रतिष्ठित अलबर्ट एक्का चौक से बमुश्किल डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर गुदरी कुरैशी मोहल्ला है—जिसे नगर निगम द्वारा आधिकारिक तौर पर स्लम घोषित किया गया था. यहीं पर डॉ. शाहनवाज़ कुरैशी का जन्म हुआ. यह इलाका सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हुआ था, जहाँ शिक्षा गरीबी के साये में एक टिमटिमाते दीपक के समान थी.

डॉ. शाहनवाज़ कुरैशी ने उसी मंद प्रकाश को शिक्षा की एक ज्वेलंत मशाल में बदल दिया. उनका सपना सरल लेकिन गहरा था: हर बच्चे के लिए शिक्षा. 1993 में, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के साथ काम करते हुए, उन्होंने अपने ही मोहल्ले में एक रात्रि स्कूल की स्थापना की. लंबे समय तक मज़दूरी करने वाले बुज़ुर्ग और महिलाएं शाम को पढ़ने के लिए इकट्ठा होते थे. उनकी पहल, कुरैश एकेडमी, आज डॉक्टरों, इंजीनियरों, शिक्षकों और सॉफ्टवेयर डेवलपर्स जैसे उज्ज्वल दिमागों का निर्माण कर रही है. पत्रकारिता हो या समाज सेवा, डॉ. कुरैशी ने न सिर्फ़ अपने इलाक़े की छवि, बल्कि यहाँ के लोगों की सोच को भी बदल दिया.

तनवीर अहमद: ज़कात से शिक्षा का वित्तपोषण – मित्रता से शिक्षा तक का सफ़र

2010 में, जब रांची के इस्लाम नगर और बाबा खताल जैसे क्षेत्रों को अतिक्रमण हटाओ अभियान के तहत तोड़ा गया, तो सैकड़ों परिवार बेघर हो गए. सबसे ज़्यादा पीड़ित बच्चे थे—कई की परीक्षा छूट गई, जबकि अन्य ने हमेशा के लिए स्कूल छोड़ दिया.

इस संकट में, तनवीर अहमद और उनके दोस्तों ने इन बच्चों की मदद करने का फैसला किया. उनका विचार था: अगर परिस्थितियों ने उनसे स्कूल छीन लिए हैं, तो क्यों न शिक्षा को एक दोस्त के रूप में वापस लौटाया जाए. यहीं से "मित्रता से शिक्षा तक" के सफ़र की शुरुआत हुई.

तनवीर अहमद कहते हैं: "हमारा मिशन रांची और झारखंड के वंचित बच्चों तक पहुँचना है जो मुख्यधारा की शिक्षा से दूर हो रहे हैं. हम मानते हैं कि शिक्षा ही वह चाबी है जो उनके भविष्य को बदल सकती है." चुनौती बड़ी थी, लेकिन तनवीर और उनके साथियों ने झुग्गियों में घर-घर जाकर ज़कात (दान) के माध्यम से बच्चों को स्कूल लौटने के लिए प्रोत्साहित किया. उन्होंने माता-पिता को आश्वस्त किया कि वे उनके बच्चों की शिक्षा के लिए उनके साथ खड़े रहेंगे.

तारिक आलम: अनोखे प्रवेश मानदंड वाला एक स्कूल – कोल्हान क्षेत्र में आशा की किरण

सैयद तारिक आलम जमशेदपुर के कोल्हान क्षेत्र में शिक्षा, रोज़गार और समाज कल्याण के माध्यम से गरीब और वंचित परिवारों के जीवन को चुपचाप बदल रहे हैं. कोल्हान अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन इसका एक हिस्सा, सरायकेला-खरसावां ज़िला, अभी भी विकास के लिए संघर्ष कर रहा है.

तारिक आलम उस भीषण वास्तविकता से गहराई से प्रेरित हुए कि औद्योगिक शहर जमशेदपुर के पास सस्ते में रहने के लिए आने वाले दिहाड़ी मज़दूरों के बच्चों में उच्च ड्रॉपआउट दर थी. पिछले 13-14 वर्षों से, तारिक और उनकी समर्पित टीम ने हज़ारों लोगों के लिए आशा की किरण बन गई है. उन्होंने अनोखे प्रवेश मानदंडों वाला एक स्कूल चलाया, जहाँ आर्थिक कठिनाई की परवाह किए बिना सबसे ज़रूरतमंद बच्चों को शिक्षा के माध्यम से उनका समर्थन किया जाता है. उनका मिशन सिर्फ पढ़ना-लिखना सिखाना नहीं, बल्कि इन बच्चों को अस्थिर रोज़गार के चक्र से बाहर निकालना है.

सत्तार खलीफा: एक चित्रकार, कवि और सामाजिक कार्यकर्ता – कला सेवा का उपकरण

झारखंड के पलामू प्रमंडल के जंगल और पहाड़ लंबे समय से अभाव और उपेक्षा के प्रतीक रहे हैं. इसी बीहड़ परिदृश्य में सत्तार खलीफा रहते हैं, जिन्हें उनके पेशेवर नाम पेंटर जिलानी से बेहतर जाना जाता है.

जिलानी ने अपनी शुरुआती चुनौतियों के बावजूद स्नातक की पढ़ाई पूरी की. लेकिन उनका सच्चा जुनून हमेशा लोगों की सेवा रहा है. वह एक चित्रकार के रूप में अपनी कमाई ज़रूरतमंदों की मदद में लगाते हैं. उनका सिद्धांत सरल है: "कला मेरा उपकरण है, सेवा मेरा उद्देश्य है."

उनकी प्रतिष्ठा ऐसी है कि नक्सल और चरमपंथी प्रभाव के चरम पर भी, जिलानी निर्भीकता से यात्रा करते थे, और उन्हें कभी किसी ने नहीं रोका—यह उनकी ईमानदारी और सम्मान का दुर्लभ प्रमाण है. पलामू और गढ़वा के गरीब, दलित, महादलित और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए, जिलानी आश्वासन का प्रतीक हैं. राशन कार्ड और पेंशन दिलाने से लेकर पीने के पानी और अस्पताल सहायता की व्यवस्था करने तक, वह हमेशा सबसे आगे खड़े रहते हैं.