मोहम्मद अकरम / नई दिल्ली
एक दिन पहले वेलंटाइन डे पर आशिक और माशूक ने अपनी मुहब्बत के इजहार के लिए जिस कदर मिर्जा गालिब की शायरी को याद किया, उस हिसाब से उनके कूचे यानी गली बल्लीमरान की ‘गालिब की हवेली’ लोग नहीं आते. यह दिल्ली की तंग गलियों में स्थित है.
हालांकि, शायरी के शहंशाह मिर्जा असदुल्लाह खां गालिब की हवेली दिल्ली के भीड़भाड़ वाले इलाके बल्लीमरान में है, पर देश-विदेश से लोग यहां रोजाना पहुंचते है. मगर यह संख्या उतनी नहीं जितनी उनके चाहने वालों की है. वेलंटाइन डे पर प्रेमी जोड़ा तो बिल्कुल नहीं दिखा.
बल्लीमारान में गालिब की हवेली काफी चर्चित है. पता पूछते ही लोग बता देते हैं. गालिब का जन्म 17 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ, पर दिल्ली के बल्लीमारान (शाहजहानाबाद) में उनकी शादी उमराव जान से हुई. आखरी सांस तक यानी 15 फरवरी 1869 वह यहीं रहे.
गालिब ने फारसी और उर्दू भाषा में शायरी कर पूरी दुनिया को इस विधा से अवगत कराया. आज भी गालिब संग्रहालय में गालिब की मौजूद तस्वीरों से नई पीढ़ी खुद को जोड़ सकती है. गालिब पर शोध करने वाले विद्वान राल्फ रसेल ने लिखा है, ‘’यदि गालिब अंग्रेजी भाषा में लिखते, तो विश्व एवं इतिहास के महानतम कवि होते’’.
गालिब को मिली बुलंदी
गालिब का जन्म मुगल साम्राज्य के दौरान आगरा (अकबर आबाद) में हुआ. 13 साल की उम्र में वह दिल्ली आ गए जहां उन्होंने उर्दू और फारसी में कविताएं कहीं. और जल्द ही शोहरत की बुलंदियों पर पहुंच गए. मुगल सम्राज बहादुर शाह जफर के दरबार में लाल किला में शायरी का लोहा मनवाया,
वह जिंदगी भर किराए के मकान में रहे. उनका अपना कोई मकान नहीं था. मगर वह अपने पीछे जो चीज छोड़ गए उसने उन्हें अमर कर दिया हैं. और वह है उनकी शायरी. जिस जगह वह रहते थे अब उसे गालिब की हवेली से जाना जाता है. कहते हैं, गालिब ने दीवान ए गालिब इसी हवेली में लिखा था.
हवेली का मुगल काल रूप
1869 में उनकी मौत के बाद से उनकी हवेली के आसपास 1999 तक बाजार लगता था. धीरे धीरे लोगों ने हवेली के आसपास की जगहों पर कब्जा कर लिया.इसके बाद दिल्ली सरकार ने वर्ष 1999 में हवेली का जीर्णोद्धार करके इसे मुगल काल का रूप देकर राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया.
गालिब के घर सात बच्चे पैदा हुए, लेकिन उन में से एक भी जिंदा नहीं रहा. जिसका मलाल गालिब को रहा और वह शायरी के जरिये बयान करते रहे.
हवेली में कविताएं बॉक्स में संरक्षित
गालिब की हवेली के बाहर बड़े बड़े दरवाजे लगे हैं. अंदर दाखिल होते ही रोशनियों के बीच गालिब से जुड़ी तस्वीरें, कपड़े, किताबें आदि रखे नजर आते हैं. उनकी के हाथ की लिखी कई कविताओं को बॉक्स में संजो कर रखा है. एक बॉक्स में उनकी यह नज्म पढ़ सकते हैं-
न थी हमारी किस्मत के विसाल ए यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतजार होता
गालिब की हवेली का इतिहास
आगरा से गालिब 11 साल की उम्र में ही दिल्ली आ गए और 13 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई. गालिब को ये हवेली एक शख्स ने रहने के लिए दिया था. इसी हवेली में उन्होंने आखिरी सांस ली. 10 साल से हवेली की देखभाल करने वाले गार्ड प्रेमचंद ने बताया, गालिब आज भी जिंदा हैं. उनकी आत्मा हमारे बीच में नहीं है लेकिन शायरी में वह जो कमाल कर गए वह बहुत ही लाजवाब है.
यहां हमेशा विदेश से छात्र और पर्यटक घूमने पहुंचते हैं. समय समय पर बड़े बड़े नेता भी आते हैं. वह अफसोस जताते हुए कहते हैं गालिब की शायरी ने युवा पीढ़ी को बहुत प्रभावित किया, पर आने वालों में उनकी संख्या बहुत कम है.
गालिब ने दिल्ली को पहचान दिलाई
हवेली के नजदीक मौजूद दुकानदार नसीम खान गालिब के हवाले से बताते हैं, गालिब ने दिल्ली को विश्व स्तरीय पर पहचान दिलाई है. बल्लीमारान में गालिब को जानने के लिए सैलानी पहुंचते रहते हैं. उन्होंने फारसी और उर्दू शायरी को जिस मुकाम तक पहुंचाया, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती.
कैसे पहुंचे गालिब की हवेली ?
आप मेट्रो से जाना चाहते हैं तो चावड़ी बाजार उतरें या अगर बस से जाना चाहते हैं तो लाल किला बस से उतरने के बाद चांदनी चैक पहुंचें. कुछ देर पैदल चलने के बाद बल्लीमारान आएगा. वहां तक कार या गाड़ी से नहीं जा सकते.
आपको सकरी सड़क के कारण परेशानी होगी. हवेली, सरकारी छुट्टी के अलावा हर रोज खुला रहता है. यह समय सुबह 11 बजे से शाम 6 जबे तक खुली रहती है. हवेली के दीदार के लिए किसी तरह की फीस नहीं लगती. फोटो लेने पर भी पाबंदी नहीं है.
हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं के गालिब का है अंदाज ए बयां और