विश्व जल दिवसः पानी बचाने की बेशकीमती परंपराएं, उन्हें अपनाकर ही बचा सकते हैं भविष्य

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 22-03-2023
चांद बावड़ी (फोटोः विकीमीडिया कॉमन्स)
चांद बावड़ी (फोटोः विकीमीडिया कॉमन्स)

 

मंजीत ठाकुर

दुनिया पानी में है लेकिन पीने लायक पानी में नहीं. पूरी धरती पर मौजूद कुल पानी का महज 4 फीसद हिस्सा ही पीने लायक है. और कहने वाले कहते हैं कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी की वजह से लड़ा जाएगा.

दुनियाभर के 40 देश गहरे जलसंकट से जूझ रहे हैं और बढ़ती आबादी और बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर भारत में भी यह संकट गहरा होता जा रहा है. भूमिगत जल तेजी से नीचे खिसकता जा रहा है. जैसे-जैसे दुनिया की आबादी बढ़ती जाएगी, शहरीकरण भी बढ़ता जाएगा और उसके साथ जलवायु परिवर्तन भी तेज होगा और इसके प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखने लगेंगे.

इसके साथ ही लोगों की खाने की आदतों में भी बदलाव आएगा और इन सबके मिले-जुले प्रभाव से भविष्य में पानी का मांग में जबरदस्त इजाफा होगा.

नीति आयोग ने जून, 2019 में ‘कंपॉजिट वाटर मैनेजमेंट इंडैक्स रिपोर्ट’ जारी की थी, इसमें बताया गया है कि देश में 60 करोड़ लोग अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक, सालाना 1700 क्यूबिक मीटर प्रतिव्यक्ति से कम पानी की उपलब्धता को ‘जलसंकट’ माना जाता है. 

मौजूदा चलन के हिसाब से देखा जाए तो 2030 तक जल की मांग में करीबन 40 फीसद की वृद्धि होगी और धारा के विरुद्ध (अपस्ट्रीम) जलापूर्ति के लिए सरकारों को करीबन 200 अरब डॉलर सालाना खर्च करना होगा. इसकी वजह यह होगी कि पानी की मांग जलापूर्ति के सस्ते साधनों से पूरी नहीं हो पाएगी. वैसे, बता दें अभी दुनिया भर में कुल मिलाकर औसतन 40 से 45 अरब डॉलर का खर्च जलापूर्ति यानी वॉटर सप्लाई पर आता है.

इसी रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के कार्यकारी निदेश एशिम स्टीनर कहते हैं, “टिकाऊ विकास के लिए स्वच्छ जल का विश्वसनीय स्रोत होना बेहद जरूरी है. जब स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होगा, तो दुनिया की गरीब आबादी को अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा इसे खरीदने में खर्च करना होगा, या फिर उनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा इसको ढोने में खर्च हो जाएगा. इससे विकास बाधित होगा.”

लेकिन स्टीनर की एक बात गौर करने वाली है. वह कहते हैं, “पूरी दुनिया में ताजे पानी के एक फीसद का भी आधा हिस्सा ही मानवता और पारितंत्र (इकोसिस्टम्स) की जरूरतों के लिए उपलब्ध है.” जाहिर है, हमें कम मात्रा में इसका इस्तेमाल बेहतर तरीके से करना सीखना होगा. मिसाल के तौर पर, दुनिया भर में ताजे पानी का खर्च का 70 फीसद हिस्सा कृषि सेक्टर में इस्तेमाल में लाया जाता है. दुनिया भर में आबादी बढ़ने के साथ ही, कृषि क्षेत्र भी जल संसाधनों पर दबाव बढ़ाने लगेगा.  

ऐसे में हमें उन जल संरक्षण परंपराओं को ध्यान में रखना और विकसित करना होगा, जिसको हमारे पुरखे अपनाते आए हैं.

 

थार रेगिस्तान और पश्चिमी भारत की जल संरक्षण तकनीक

थार और कच्छ के इलाकों में पानी बचाने की अद्भुत परंपराएं थीं. चित्तौड़ और रणथम्बौर के किलों के निर्माण में इस बात का ध्यान रखा गया और ऐसी तकनीक विकसित की गई कि पहाड़ियों पर भी पानी की उपलब्धता बनी रहे.

 

जोहड़

राजस्थान में पानी सहेजने की एक तकनीक थी जिसका नाम है जोहड़. यह साधारण पत्थर और मिट्टी के बंधियां की तरह होते थे. जिनका निर्माण ढलान वाली भूमि पर वर्षाजल को रोकने के लिए किया जाता था.

राजस्थान का एक जोहड़

जोहड़ के तीन ओर पुश्ते बनाए जाते जबकि चौथा सिरा वर्षाजल के प्रवेश के लिये खुला छोड़ा जाता था. इस पम्परागत तकनीक को कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने फिर से जिंदा किया है और इसकी मदद से आज राज्य के 700 से अधिक गांवों की पानी की जरूरतें पूरी की जा रही है.

इन जोहड़ के द्वारा वर्षाजल भूमि को रिचार्ज करता है और वहाँ की भूजल सन्तुलन स्थिर बना रहता है.

राजस्थान के अलवर जिले में 6500 वर्ग किलोमीटर के इलाके में जलपुरुष राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में कुल 8600 जोहड़ बनाए गए हैं. इस प्रयोग ने आधुनिक युग में जल संचय का एक द्वार खोल दिया है. जोहड़ के कारण अलवर में भूजल स्तर 100-200 मीटर से उठकर 3 से 13 मीटर तक पहुँच गया है. जोहड़ की सबसे बड़ी उपलब्धि है अलवर से होकर बहने वाली दो नदियों अरवरी और रूपारेल को मिला पुनर्जीवन.

 

कुंड और कुईं

राजस्थान के पश्चिमी शुष्क क्षेत्र में सीमेंट या स्थानीय सामग्रियों से कुंड बनाया जाता है. इन इलाकों में अधिकतर भूजल की उपलब्धता सीमित और पानी क्षारीय होता है. कुंड तश्तरी जैसी रचना होती है जिसके केन्द्र में कुआँ होता है. बाल्टी की मदद से इसमें से पानी बाहर निकालते हैं.

कुंड का व्यास और गहराई उसके उपयोग पर निर्भर करती है. ज्यादातर कुंड किसी एक परिवार द्वारा निजी उपयोग के लिये बनाया जाता है. एक अनुमान के अनुसार जिस कुंड का तटबन्ध क्षेत्रफल 100 वर्ग मीटर है और उस इलाके में यदि 100 मिलीमीटर वार्षिक वर्षा होती है तो उस कुंड में 10 हजार लीटर पानी आसानी से इकट्ठा हो जाता है.

कुंड के अलावा पश्चिमी राजस्थान में कुईं नामक एक परम्परागत पानी संचायक प्रणाली है जो 10 से 12 मीटर गहरा गड्ढा होता है. इसका निर्माण किसी टंकी या हौज के समीप उससे रिसने वाले पानी को इकट्ठा करने के लिये किया जाता है.

कुईं का मुँह सामान्यतः बहुत संकरा बनाया जाता है ताकि संचित पानी का वाष्पीकरण कम हो. कुईं के भीतरी हिस्से में धीरे-धीरे पानी अवशोषित होकर व्यापक क्षेत्र को नमी प्रदान करता है.

 

खडीन और टांका

राजस्थान के जैसलमेर जिले में खडीन नामक जल संरक्षण प्रणाली को सदियों से अपनाया जा रहा है. इसका आरम्भ पन्द्रवी सदी में जैसलमेर के पालीवाल ब्राह्मण समुदाय ने किया था. स्थानीय राजा ने यहाँ की भूमि पालीवाल समुदाय को देते हुए इसमें खडीन विकसित करने को कहा था.

जोधपुर, बीकानेर और बाड़मेर जिलों में भी खडीन पाये जाते हैं. खडीन जल संरक्षण तकनीक में पथरीले तटबंध से वर्षाजल बहता हुआ समीपस्थ घाटी में पहुँचता है और वहाँ की भूमि को नमी और मिट्टी को उर्वरता प्रदान करता है. खडीन तकनीक ईसा पूर्व साढ़े चार हजार साल पहले इराक में अपनाई जाने वाली सिंचाई विधि से मेल खाती है.

थार में बना टांका

राजस्थान के बीकानेर, पोखरण और जैसलमेर जिलों में घर और आँगन में जल संरक्षण के उद्देश्य से छोटी भूमिगत टंकियों के निर्माण की परम्परा बरसों से पाई जाती है. इस संरचना को ‘टांका’ कहते हैं. ये टांके गोलाकार और चौकोर होते हैं जिनमें वर्षाजल को एकत्र किया जाता है. इस पानी को केवल पीने के काम लाया में जाता है.

 

बावड़ी

बावड़ी पुराने समय में निर्मित कुएँ या तालाब हैं जिन तक पहुँचने के लिये कई मंजिल सीढ़ियाँ नीचे उतरना होता है. पानी भी इन्हीं सीढ़ियों से होते हुए नीचे स्थित कुएँ या तालाब में इकट्ठा होता है. 

नीमराणा की बावड़ी

बावड़ी का एक स्थानीय नाम ‘झालरा’ भी है. जोधपुर में आठ झालरा हैं जिनमें से सबसे पुराना महामन्दिर झालरा है जिसका निर्माण 1660 में किया गया था.

 

बांस और अपातानी

पूर्वी हिमालय क्षेत्रों में बाँस पाइप की सहायता से सिंचाई की जाती है. पहाड़ी चोटियों से निकलने वाले झरनों की जलधारा में बाँस के पाइप लगाकर इन्हें निचले इलाकों में भेजा जाता है. इस तकनीक को ‘अपातानी’ कहते हैं. इसे अरुणाचल प्रदेश के सुबनसिरी जिले के अपातानी जनजाति द्वारा अपनाया जाता है इसलिये इसे यह नाम दिया गया है.

 

कूह्ल

समस्त पश्चिमी हिमालय के ऊँचाई वाले क्षेत्र में कूह्ल तकनीक से पहाड़ों की ढलान से बहते पानी को संचित किया जाता है.

कूह्ल

कूह्ल का निर्माण करते समय झरने के बीच एक कट लगाया जाता है और वहाँ से पत्थर के ढेर से बंध लगा दिये जाते हैं. ये कूह्ल फिर कई किलोमीटर तक पसरते हुए भूमि और वनस्पतियों को नमी प्रदान करते हैं.

 

जाबो, डोंग, तालाब और कुएँ

नगालैंड में भारी बारिश होने के बावजूद पानी की कमी एक बड़ी समस्या है. इस समस्या का एक बेहतर विकल्प जाबो है, जो नगालैंड की परंपरागत जल संरक्षण तकनीक है. इसको ‘रूजा प्रणाली’ के नाम से भी जाना जाता है.

इसमें ऊंची पहाड़ियों पर बारिश का पानी बहकर ढलान के साथ वाली भूमि को नमी पहुंचाने का काम करता है. यह पानी ढलान से उतरकर अन्त में तालाब जैसी संरचना में एकत्र होता है.

जाबो जाबो

असम की बोडो जनजाति सिंचाई के लिये डोंग जैसे तालाबों में पानी का संरक्षण करती है. इनमें से पानी को लहोनी नामक यंत्र से उठाकर खेतों में भेजा जाता है. देश के मैदानी इलाकों में तालाब पानी संचय के महत्त्वपूर्ण प्रहरी होते हैं जो बारिश के पानी को धरती के गर्भ में रोकने का महत्त्वपूर्ण काम करते हैं.

तालाब की एक अहम विशेषता है कि इसका पूरा या कुछ हिस्सा पूरे साल पानी से भरा रहता है. ये बारिश के पानी को सोखने का काम करते हैं और आस-पास की भूमि में पानी की कमी नहीं होने देते. इसकी वजह से उन इलाकों का भूजल स्तर स्थिर बना रहता है.

 

बाँस पद्धति सिंचाई कुआँ

बांस पद्धति सिंचाई कुआं भी भारत में जल संरक्षण का एक उत्कृष्ट उदाहरण है. आज से लगभग 50 साल पहले यह देश के अधिकांश गांवों में पाया जाता था. आज भी गाहे बगाहे किसी गाँव से गुजरते हुए इन्हें देखा जा सकता है.

बांस पद्धति सिंचाई कुआं

इसका पानी पीने के काम में लाया जाता है. ये कुएँ भूजल स्तर को स्थिर रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.