नई दिल्ली. 'दांत से रेशमी डोर कटती नहीं, दिल तो बच्चा है जी'... 90 साल की उम्र में भी ऐसी लाइन लिखने वाले गुलज़ार ही हो सकते हैं. जिनके हर गाने में रूमानी अहसास होता है. गुलज़ार को शब्दों का जादूगर भी कहा जाता है, जिनके लिखे गाने होठों के रास्ते न जाने कब दिल की गहराइयों में उतर जाते हैं, पता ही नहीं चल सकता.
18 अगस्त 1934 को पंजाब (अब पाकिस्तान) में झेलम जिले के दीना गांव में पैदा हुए गुलज़ार ने कभी नहीं सोचा था कि उन्हें किस्मत बंबई (अब मुंबई) लेकर आएगी. लेकिन, 'किस्मत का कनेक्शन' ऐसा रहा कि उन्होंने बॉलीवुड में बड़ा नाम कमाया. हॉलीवुड तक उनकी क़लम की गूंज सुनाई देती है. सफर में कई पड़ाव आए लेकिन जो हासिल किया वो लाजवाब रहा. तो आइए झांकते हैं संपूरण सिंह कालरा से गुलज़ार बनने वाले की जिंदगी में!
मशहूर कवि, लेखक, गीतकार और स्क्रीन राइटर गुलज़ार किसी पहचान के मोहताज़ नहीं हैं. 1947 में बंटवारे के बाद गुलज़ार का परिवार भारत आ गया. परिवार ने अमृतसर में आशियाना बनाया. उनके पिता का नाम माखन सिंह कालरा और मां का नाम सुजान कौर था. जब गुलजार छोटे थे तभी उनकी मां दुनिया से रुखसत हो गईं. उनके हिस्से में पिता का प्यार भी नहीं आया. बचपन से लिखने-पढ़ने का शौक था तो संपूरण सिंह ने अपने खालीपन को शब्दों से भरना शुरू कर दिया. एक वक्त आया, जब गुलज़ार ने सपनों की नगरी मुंबई का रुख किया और यहीं के होकर रह गए.
कई मीडिया रिपोर्ट्स में गुलज़ार के मुंबई में आने और संघर्षों का ज़िक्र है. कहा तो यहां तक जाता है कि मुंबई आने के बाद गुलज़ार ने गैराज में काम करना शुरू किया. खाली समय में कविताएं लिखने में जुट जाते थे. उनके फिल्मी करियर की शुरुआत 1961 में विमल रॉय के असिस्टेंट के रूप में हुई. गुलज़ार ने ऋषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार के साथ भी काम किया था. इसी बीच उन्हें 'बंदिनी' फिल्म में गीत (लिरिक्स) लिखने का मौका मिला. इसके बाद गुलज़ार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
संपूरण सिंह कालरा के गुलज़ार बनने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है. फिल्मी दुनिया में कदम रखने से पहले संपूरण सिंह कालरा ने अपना नाम 'गुलज़ार दीनवी' कर लिया था. उनका परिवार दीना गांव (अब पाकिस्तान) से था. उन्होंने अपने नए नाम गुलज़ार में 'दीनवी' भी जोड़ लिया. वक्त गुज़रा तो उन्होंने अपने नाम से 'दीनवी' को विदाई दे दी और सिर्फ गुलज़ार होकर रह गए. गुलज़ार का मतलब होता है, जहां गुलाबों या फूलों (गुलों) का बगीचा हो. हकीकत में गुलज़ार ने अपने नाम के मतलब के लिहाज से हर गीत लिखे, जिसमें शब्दों की बेइंतहा खुशबू शामिल रहती है.
डायरेक्टर बिमल रॉय के साथ काम करने के दौरान ही गुलज़ार की मुलाकात आरडी बर्मन से हुई. गुलज़ार ने गीत लिखने के साथ फिल्मों का डायरेक्शन भी किया. उन्होंने 'आंधी', 'किरदार', 'मौसम', 'नमकीन', 'लिबास', 'हूतूतू' जैसी फिल्मों का निर्देशन किया. छोटे पर्दे के लिए भी 'मिर्ज़ा गालिब' जैसे सीरियल का डायरेक्शन किया. गुलज़ार की 'माचिस' फिल्म ने दुनिया को दिखा दिया कि उन्हें शब्दों का जादूगर ऐसे ही नहीं कहा जाता! गुलज़ार को फिल्म फेयर, साहित्य अकादमी, पद्म भूषण, ग्रैमी, दादा साहब फाल्के से लेकर ऑस्कर अवॉर्ड तक मिल चुके हैं.
गुलज़ार ने अपने करियर में कई गाने लिखे. जिनमें 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी', 'तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिक़वा तो नहीं', 'आने वाला पल जाने वाला है', 'मुसाफ़िर हूं यारो', 'हजार राहें', 'मेरा कुछ सामान', 'साथिया', 'जय हो', 'कजरारे-कजरारे' जैसे कई गाने शुमार हैं. गुलज़ार की पर्सनल लाइफ सफल नहीं मानी जा सकती है. उन्होंने 1973 में एक्ट्रेस राखी से शादी की. लेकिन, दोनों का रिश्ता एक साल के भीतर टूट गया. दोनों अलग-अलग रहने लगे. लेकिन, आज तक एक-दूसरे को तलाक नहीं दिया. दोनों की एक बेटी है, जिनका नाम है मेघना गुलज़ार. मेघना अपने माता-पिता की तरह बॉलीवुड में बड़ा नाम हैं. मेघना डायरेक्टर हैं, जिनकी फिल्में खूब तारीफ बटोरती हैं. गुलज़ार इन्हें प्यार से बोस्की पुकारते हैं.
गुलज़ार आज भी लिख रहे हैं. गीत, कविता, शेरो-शायरी, हर फन में गुलज़ार के शब्दों का सफर जारी है. जैसे गुलज़ार कहना चाहते हैं, 'तुझसे नाराज नहीं जिंदगी, हैरान हूं मैं, तेरे मासूम सवालों से परेशान हूं मैं….'
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