मंजीत ठाकुर
हिंदी सिनेमा के उस युग में जब एक्शन-हीरो, मसाला सिनेमा और बड़े स्टारडम का जोर था, धर्मेंद्र ने समय-समय पर ऐसी फिल्मों में अभिनय किया जो मुख्यधारा से हटकर थीं । आमतौर पर धर्मेंद्र को हम ‘बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना’ वाले गुस्सैल तेवर वाले नायक के रूप में जानते हैं । लेकिन उन्होंने अपने मसल ब्रांड के बाहर निकलकर संवेदनशीलता, अंतर्मन के उकेरने वाली और सामाजिक नियमों से टकराने वाले नायकों के किरदार निभाए ।
सिनेमा में जिन ब्रांड्स की नाम होती है उसमें धर्मेंद्र की उपाधि हीमैन की थी । लेकिन धर्मेंद्र ने अपनी लोकप्रिय ब्लॉकबस्टर छवि से हटकर ‘आंखों से अभिनय’ करने वाली फिल्में भी की ।
ऐसी फिल्मों में पहला नाम उभरता है बंदिनी का । 1963 में रिलीज हुई इस फिल्म में धर्मेंद्र करियर के शुरुआती दौर में थे ।
जिस हुगली-किनारे के जेल सेटअप ने हमें यह एहसास दिलाया कि ‘स्वतंत्रता’ सिर्फ़ राजनीतिक नहीं, मानसिक भी होती है । बंदिनी में धर्मेंद्र ने डॉ. देवेंद्र का किरदार निभाया । यह भूमिका उनके लिए उस समय अप्रत्याशित थी, जहाँ ‘ही-मैन’ का टैग असर था ।
लेकिन एक जेल-डॉक्टर का शांत, संवेदनशील और नजरें मिलाने से पहले सोचने वाला स्वभाव उन्होंने सहजता से निभाया । इस फिल्म की समीक्षा करते हुए द क्विंट में एक फिल्म समीक्षक ने बाद में लिखा, “एक युवा, करिश्माई और संवेदनशील जेल डॉक्टर जो ‘गंदे कैदी’ वाली सोच में यकीन नहीं करता… मेरी पीढ़ी के लोगों के लिए, धर्मेंद्र और जेल, शोले में पानी की टंकी पर खड़े होकर ‘चक्की पीसींग’ चिल्लाने की इमेज है । लेकिन बंदिनी में, वह एक कमाल हैं ।”
उनकी यह भूमिका बताती है कि धर्मेंद्र उस ब्लॉक को तोड़कर भी अभिनय कर सकते थे जहाँ उन्हें केवल ‘एक्शन-रॉबस्ट’ हीरो के रूप में देखा जाता था ।धर्मेंद्र के करियर में दूसरी ऐसी ही फिल्म थी 1966 की अनुपमा । निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म में धर्मेंद्र ने अशोक नामक शिक्षक-कवि की भूमिका निभाई थी ।
यह एक ऐसा किरदार था, जिसमें उन्होंने मजबूती और नजाकत का अद्भुत संयोजन दिखाया था । डॉ. स्नेहा कृष्णन ने इस फिल्म की समीक्षा में लिखा, “धर्मेंद्र ने अपने शुरुआती करियर में एक बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है, जिसमें एक केयरिंग, प्रेरक और प्यारी स्क्रीन प्रेजेंस है ।”
अनुपमा में एक शिक्षक-कवि के रूप में उनके संतुलित स्वभाव ने उनके अभिनेता होने की एक और तह खोली ।
यह किरदार उनकी कद्दावर सिनेमाई छवि से बहुत दूर था: न कोई बड़ी मशीन-गन, न कोई फिसलता एक्शन-सिक्वेंस, बल्कि एक धीमी गति की संवेदना, एक सांस्कृतिक बेड़ियों से उबरने की कहानी । धर्मेंद्र की आंखों में और धैर्य में वह सादगी दिखी, जिसने उस समय के ‘नायक’ के प्रतिमानों को चुनौती दी थी ।धर्मेंद्र की ऑफबीट फिल्मों में एक फिल्म का नाम न लिखा जाए तो सारी सूची बेकार होगी और वह थी 1969 में आई सत्यकाम ।
यह फिल्म धर्मेंद्र के अभिनय-सफर में एक मील का पत्थर मानी जाती है । उन्होंने सत्यप्रिय आचार्य नामक ईमानदार इंजीनियर की भूमिका निभाई थी । अपने उसूलों के लिए वह उस समय के साथ सामाजिक ताने-बाने, रिश्तों और व्यवस्था से टकरा जाता है । ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने बाद में इस फिल्म का जिक्र करते हुए लिखा कि हृषिकेश मुखर्जी के सत्यकाम में धर्मेंद्र ने अपनी सबसे वास्तविक परफॉर्मेंस दी थी ।
इस फिल्म को देखते हुए आप उनकी आँखों की गहराई, आवाज के उतार-चढ़ाव को देखिए ही, साथ में इस फिल्म में उनके मौन (या पॉज) भी अभिनय को नई ऊंचाइयों तक ले जाते हैं ।लेकिन सत्यकाम की क्लाइमेक्स में, जब धर्मेंद्र का किरदार देखता है कि उसका आदर्श टूट रहा है—उनकी आँखों में निराशा, दृढ़ता और खुद से सवाल के भ्रम यह तीनों भाव एक साथ चलते दिखते हैं ।
यह बात और है कि सिने आलोचकों ने इस फिल्म को सर-आंखों पर बिठाया, लेकिन जनता को थियेटर तक नहीं ला पाई । बेशक, बॉक्स-ऑफिस मार्केट के हिसाब से यह सफलता नहीं थी, पर अभिनय-दृष्टि से यह धर्मेंद्र का सर्वश्रेष्ठ माना गया है ।
अभिनय के लिहाज से धर्मेंद्र की एक अन्य फिल्म है जिसे अमिताभ के साथ उन्होंने किया था और यह थी 1975 में रिलीज हुई फिल्म चुपके चुपके ।यह फिल्म भारी व्यावसायिक मसाले से अलग थी । फिल्म में कॉमेडी थी लेकिन सादगी और बुद्धिमत्ता भी थी । धर्मेंद्र ने प्रोफेसर परिमल त्रिपाठी और कार ड्राइवर प्यारे मोहन इलाहाबादी का किरदार निभाया ।
हिंदुस्तान टाइम्स की टिप्पणी थी: ‘कालजयी कहानी... और धर्मेंद्र जिन्होंने अपने हास्य और गरमाहट भरी ऊर्जा से कॉमिडी को नया स्तर और परिभाषा दी ।’सत्तर के दशक का उत्तरार्ध अमिताभ बच्चन की धूम-धड़ाके वाली एक्शन फिल्मों का था । लेकिन गब्बर को हराने वाले धर्मेंद्र ने इस फिल्म में मुस्कुराहट और सादगी से शर्मिला टैगोर और दर्शकों दोनों का दिल जीत लिया ।
चुपके-चुपके में धर्मेंद्र ने संवाद-प्रवाह, शारीरिक हाव-भाव, टाइमिंग सबमें सहजता दिखायी और इस फिल्म ने जाहिर किया कि अभिनेता के रूप में उन्हें अपनी कला में महारत है ।लेकिन चुपके-चुपके से पहले 1966 में धर्मेंद्र की एक अन्य फिल्म थी फूल और पत्थर ।
हालाँकि यह फिल्म व्यावसायिक रूप से भी कामयाब थी और इसे अक्सर धर्मेंद्र की सुपरस्टार बनने की फिल्म माना जाता है, लेकिन इस फिल्म को धर्मेंद्र की ‘ऑफ-बीट राह की शुरुआत’ भी माना जा सकता है क्योंकि इसमें उन्होंने परदे पर कमाल की संवेदनशीलता दिखाई थी ।
फूल और पत्थर में उन्होंने “हीरो” होने के साथ-साथ मानव-कमज़ोरियों का स्वीकार दिखाया—यह कदम उस जमाने के हीरो इमेज के लिए साहसपूर्ण था ।धर्मेंद्र सुपरस्टार थे और आखिरी क्षणों तक सुपरस्टार ही रहे । बेशक, शोले, लोहा, हकीकत, धर्म-कांटा जैसी फिल्मों ने उनको दर्शकों के दिलों तक पहुंचाया ।
धर्मेंद्र ने अपने करियर में दिखाया कि वे सिर्फ़ ही-मैन नहीं, बल्कि एक ऐसे अभिनेता हैं जो भूमिका में उतरने और किरदार के भीतर उतरने का हुनर रखते हैं । उसकी इस क्षमता ने उन्हें सिर्फ़ कमर्शियल स्टार नहीं, बल्कि अभिनय-सिद्ध कलाकार बना दिया ।
सत्यकाम ने सिनेमा की दुनिया को अलविदा कह दिया है लेकिन जब तक भारत में सिनेमा और कला की बात होगी, धर्मेंद्र अपनी पूरी शख्सियत के साथ, अपनी एक्शन फिल्मों और कला की गहराइयों दोनों के लिए याद किए जाते रहेंगे ।
(लेखक आवाज द वाॅयस के एवी एडिटर हैं)