कभी मेहनत-मजदूरी कर पेट भरने वाले मोइनुल हक अब 300 परिवारों को रोजी-रोटी, स्वास्थ्य, शिक्षा की सुविधा मुहैया करा रहे
                                
                                    
	मालती शर्मा/ बिलासिपारा
	कड़ी मेहनत, दृढ़ संकल्प और दृढ़ता से व्यक्ति जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है. पश्चिमी असम के धुबरी जिले के बिलाशीपारा के मोइनुल हक उपरोक्त अवधारणा को पूर्ण रूप से व्यक्त करते हैं. अपनी कड़ी मेहनत और लगन से हक आज न केवल एक स्व-निर्मित व्यक्ति हैं बल्कि 300 से अधिक परिवारों के लिए आजीविका भी पैदा कर रहे हैं. वह इन परिवारों को रोजी-रोटी ही नहीं, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं भी मुहैया करा रहे हैं.
	आवाज़ - द वॉइस के साथ एक बातचीत में, विनम्र मृदुभाषी मोइनुल हक उर्फ बाल्टुक ने कहा कि अपने जीवन के शुरुआती दिनों में उन्हें जीवित रहने के लिए वास्तव में कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी.
	 
	उनका जन्म बिलाशीपारा अनुमंडल के लक्शीगंज क्षेत्र के पिछड़े गांव चोकापारा-नाओदा में हुआ था. उनके पिता, सबेद अली, एक मछली व्यापारी, और उनकी माँ, मनुवारा बीबी, एक घरेलू सहायिका, के अपने बच्चों के लिए दूसरों की तरह कई सपने थे.
	 
	जैसे-जैसे दिन बीतते गए, मोइनुल के माता-पिता ने उसे पास के सरकारी प्राथमिक विद्यालय में दाखिला दिला दिया. मछली व्यापारी सबेद अली के लिए दो बेटों और चार बेटियों के परिवार का भरण-पोषण करना मुश्किल हो गया था. साथ ही साबिद अली भी बीमार रहने लगा.
	 
	"हमारे लिए आठ लोगों के परिवार का भरण-पोषण करना और अपने पिता की देखभाल करना मुश्किल था. नतीजतन, कभी-कभी हमें भूखे पेट सोना पड़ता था. आखिरकार एक दिन मैंने गरीबी के कारण स्कूल छोड़ दिया। मैं आठ साल का था. "मैं सोच रहा था कि मैं क्या दे सकता हूं. फिर मैंने गली के नुक्कड़ पर पापड़ सेंक कर बेचने का काम शुरू किया. जब मैंने कुछ पैसे कमाए, तो मैंने एक टेबल लेकर पापड़ के साथ-साथ सुपारी भी बेचना शुरू कर दिया."
	 
	3-4 साल की मेहनत के बाद उन्होंने अपनी छोटी सी दुकान को किराना स्टोर में बदल दिया. मोइनुल अपने व्यापार में फलने-फूलने लगा ही था कि उसके पिता सबेद अली लकवाग्रस्त हो गए और किशोर को अपने चारों ओर एक अंधकारमय भविष्य का एहसास होने लगा. हालांकि, मोइनुल अपने फोकस से नहीं डिगे और मछली का व्यापार करने लगे.
	 
	वह रात के शुरुआती घंटों में एक पुरानी साइकिल पर सवार हाटीपोटा, तिलपारा, शालकोचा और अन्य क्षेत्रों से मछली खरीदकर बिलाशीपारा बाजार और बेलतली बाजार में बेचने लगा. 20 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई. कुछ समय इस तरह बिताने के बाद मोइनुल हक ने बालू, स्टोन चिप्स और इमारती लकड़ी का व्यापार शुरू किया.
	 
	इस धंधे में जो मुनाफ़ा हुआ उससे पाँच साल के अंदर ही उसने अपनी सभी बहनों की शादी करवा दी. फिर उन्होंने विभिन्न ठेकेदारों के सहयोगी के रूप में काम किया. सफलता की भूख उस दृढ़निश्चयी युवक के लिए समाप्त नहीं हुई, जिसने गरीबी और कठिनाई को बहुत करीब से अनुभव किया था.
	 
	व्यवसाय के साथ-साथ वे विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में भी शामिल हो गए. उन्होंने महसूस किया कि पश्चिमी असम के लोग, विशेषकर मुसलमान, विभिन्न पहलुओं में पिछड़े हुए थे. उन्होंने भोजन के लिए हताशा का भी अनुभव किया था.
	 
	उन्हें हमेशा इस बात की चिंता रहती थी कि किसी और परिवार को उस तरह की स्थिति का सामना न करना पड़े, जिसका उन्होंने एक बच्चे के रूप में सामना किया था. मोइनुल हक, जिनकी किशोरावस्था से ही गरीब परिवारों के लिए काम करने की इच्छा थी, ने 40 साल की उम्र में रानीगंज के ताकीमारी में एक ईंट भट्ठा स्थापित किया.
	 
	
		उनके उद्यम से क्षेत्र के करीब 300 परिवारों को रोजी-रोटी मिली है. इनमें से ज्यादातर परिवार आर्थिक रूप से पिछड़े मुसलमान हैं. उन्होंने इन परिवारों को आजीविका के अवसर प्रदान करने के अलावा स्वास्थ्य सेवा, स्वच्छ पेयजल और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं प्रदान की हैं.
	
		 
	
		खरोंच से सफलता के शिखर पर पहुंचने वाले मोइनुल हक अब आर्थिक रूप से समृद्ध हैं, लेकिन समाज के सबसे गरीब वर्ग के कल्याण के लिए काम करने में उन्हें बहुत संतुष्टि मिलती है.