डॉ. मोहसिन रजा हिल गए, जब बच्ची बोली ‘मुझे दिखाओ स्कूल कैसा दिखता है’

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 01-02-2024
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तृप्ति नाथ/ नई दिल्ली

आठ साल पहले, उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में एक झुग्गी बस्ती में रहने वाली एक गरीब, अनपढ़ और कोमल उम्र की लड़की ने मासूमियत से एक दयालु और मिलनसार सर्जन से कहा कि वह उसे दिखाए कि स्कूल कैसा दिखता है. और ये डॉक्टर कोई और नहीं, बल्कि अलीगढ़ के सिविल लाइन्स के रहने वाले जाने-माने समाजसेवी डॉ. मोहसिन रजा थे.

12 अगस्त 2016 के उस दिन को याद करते हुए डॉ. रजा कहते हैं कि उनकी आंखों में आंसू आ गए थे. वो बताते हैं, ‘‘मैं अपनी कार से उतर रहा था, जब वह लड़की ‘नाहिद’, जो मुश्किल से तीन साल की थी, ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा कि वह एक स्कूल देखना चाहती है. मैंने बच्ची से इस मुलाकात के बारे में बताने के लिए अपनी बेटी सुम्बुल को लखनऊ बुलाया.

तब उन्होंने उनसे झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों को पढ़ाना शुरू करने को कहा. मैंने ब्लैकबोर्ड, कुर्सियां और मेजें खरीदीं और अगले ही दिन अपने घर में स्थापित पहले केंद्र में 12 बच्चों को शिक्षा देना शुरू कर दिया. अब यह सेंटर मेरे घर के बगल में चलाया जा रहा है. धीरे-धीरे मेरे 140 बच्चे हो गये. फिर, हमने कावारसी बाईपास रोड की एक झुग्गी बस्ती में दूसरा केंद्र स्थापित किया.’’

लड़की की उस दुर्दशा ने उन्हें ‘उम्मीद’ नामक एक स्वयंसेवी संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया, जो आज कचरा बीनने वालों सहित 1,500 बच्चों को शिक्षा प्रदान कर रहा है, जिनके माता-पिता उन्हें स्कूल भेजने में सक्षम नहीं हैं. उम्मीद के 22 केंद्र हैं, जो अलीगढ़ में घनी आबादी वाली झुग्गियों में चलाए जा रहे हैं. जबकि कुछ किराए के परिसर में चलाए जा रहे हैं, अन्य ऐसे व्यक्तियों द्वारा छोड़े गए परिसर में चलाए जा रहे हैं जो बच्चों को सशक्त बनाना चाहते हैं.

उन्होंने कहा, ‘‘मैंने अपनी विशेष पहल का नाम रखा, ‘उन्हें एक स्कूल दिखाओ’ क्योंकि यह उस मासूम लड़की के प्रश्न से प्रेरित था, जो चाहती थी कि मैं उसे एक स्कूल दिखाऊं. दुर्भाग्य से, मैं यह पता नहीं लगा पाया कि वह अब कहां है. हमारे केंद्रों में शिक्षा प्रदान करने वाले 27 शिक्षक हैं.’’

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यूनिसेफ के आंकड़ों का हवाला देते हुए डॉ. रजा कहते हैं कि दुनिया में जो 30 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जाते, उनमें से 9 करोड़ बच्चे अकेले भारत में हैं. उन्होंने कहा, ‘‘बेशक, हम सभी 90 मिलियन बच्चों को नहीं पढ़ा सकते. हम 3-15 वर्ष की आयु के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए उम्मीद शिक्षा और कल्याण केंद्र चला रहे हैं.

हमने फूस की छत वाली बांस की झोपड़ियों में कुछ केंद्र बनाए हैं. हम लोगों को उनके माता-पिता की स्मृति में हमारे केंद्रों का समर्थन करने के लिए प्रेरित करने में सक्रिय हैं. यदि वे प्रति छात्र 100 रुपये की मामूली फीस का भुगतान करने के लिए सहमत होते हैं, तो हम उनके प्रियजनों की याद में केंद्रों का नाम रखने की पेशकश करते हैं. 50 छात्रों की ट्यूशन फीस का समर्थन करने के लिए, उन्हें प्रति माह 5,000 रुपये अतिरिक्त चाहिए.’’

उनका कहना है कि उम्मीद के दो केंद्रों का नाम उनकी मां सैयदा खातून और पत्नी सुहैला मोहसिन के नाम पर रखा गया है.

डॉ. रजा का कहना है कि उनका लक्ष्य देश के हर कोने में ऐसे केंद्र शुरू करना है. ‘‘हमने प्रयागराज और लखनऊ के ठाकुरगंज में ऐसे केंद्र शुरू किए, लेकिन वे कोविड के कारण बंद हो गए. हमारे पास ऐसे लोग भी हैं, जो समय-समय पर इन स्कूलों का निरीक्षण करते हैं.

हमारे निरीक्षक छोटे निजी और सरकारी स्कूलों में आगे प्रवेश के लिए अच्छे छात्रों को भी शॉर्टलिस्ट करते हैं. हमारे कुछ बच्चे आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. मैंने 500 बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाया था,

लेकिन हमारे प्रयासों पर कोरोना ने पानी फेर दिया. हम माता-पिता को अपने बच्चों की फीस का भुगतान करने के लिए मनाते हैं और दूसरों को भी इन बच्चों की शिक्षा को प्रायोजित करने के लिए मनाते हैं.’’

सर्जन रजा का कहना है कि उनका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि घरेलू नौकरों के बच्चे घरेलू नौकरों के रूप में काम न करें, बल्कि जीवन में अपनी पहचान बनाने में सक्षम हों. अब पांच साल से वह महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सिलाई केंद्र भी चला रहे हैं.

2016 में बच्चों के लिए शिक्षा केंद्र शुरू करने तक, डॉ रजा 2011 में अलीगढ़ लौटने के बाद स्तन और मौखिक कैंसर के बारे में जागरूकता प्रदान कर रहे थे.

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डॉ. मोहसिन रजा 82 वर्ष के हैं, लेकिन उनके जीवन का उद्देश्य न केवल उपचारात्मक स्पर्श के साथ समाज की सेवा करना है, बल्कि शिक्षा के साथ जरूरतमंदों को सशक्त बनाना भी है. वह प्रतिदिन 18 घंटे काम करते हैं. वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के स्योहारा, बिजनौर के डॉक्टरों के परिवार से आते हैं. जहां उनके पिता सैयद रजा एक एलोपैथिक डॉक्टर थे, वहीं उनके दादा हकीम हसन रजा थे और बहुत प्रसिद्ध थे.

डॉ. रजा अलीगढ़ में सामान्य और पुनर्निर्माण (गैर कॉस्मेटिक) प्लास्टिक सर्जरी करना जारी रखे हुए हैं. वह सिटीजन क्लिनिक नामक अपने क्लिनिक में मरीजों की जांच भी करते हैं, जो गरीबों को मुफ्त परामर्श और सेवाएं प्रदान करता है.

कैंसर से बचे डॉ. रजा को हृदय संबंधी बीमारी भी हुई है. उन्होंने तम्बाकू और इसके कैंसरकारी गुणों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए 130 कार्यशालाएं आयोजित की हैं, ताकि अन्य लोग उनकी तरह पीड़ित न हों. मुंबई के टाटा मेमोरियल में उनकी दो सर्जरी हुईं. कुछ साल पहले तम्बाकू के खिलाफ बोलने पर अलीगढ़ के पास एक गाँव में उन पर लगभग हमला किया गया था, लेकिन वह इससे प्रभावित नहीं हुए.

उनकी पत्नी, जो राजनीति विज्ञान में डॉक्टरेट थीं, की 2012 में स्तन कैंसर से मृत्यु हो गई. विडंबना यह है कि डॉ. रजा 2005 से कैंसर के इस रूप के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए एक सोसायटी चला रहे थे. चार दशकों से अधिक समय में, उन्होंने 500 से अधिक स्तन कैंसर का निदान किया है.

भारत और विदेश में सर्जरी की. वह बताते हैं, ‘‘मैंने उन महिलाओं के लिए बिना निशान वाले ऑपरेशन करना शुरू किया, जो सौम्य स्तन कैंसर से पीड़ित थीं. मैं अभी भी स्तन कैंसर से पीड़ित महिलाओं का ऑपरेशन कर रहा हूं.

भारत में हमारे सामने समस्या यह है कि महिलाएं अपने स्तन रोग को छिपाती हैं. वे अपने पतियों पर भी विश्वास नहीं करतीं. वास्तव में चिंताजनक बात यह है कि हालांकि भारत में बीमारी की शुरुआत जल्दी हो जाती है, लेकिन महिलाएं तब तक चुपचाप सहती रहती हैं, जब तक कि वे ऑपरेशन योग्य स्थिति में नहीं पहुंच जातीं.’’

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डॉ रजा, जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पहले बैच से हैं. उन्होंने 1967 में अपनी एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी की. 1973 में उसी कॉलेज से सर्जरी में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद, वह वहां एक व्याख्याता के रूप में शामिल हुए.

डॉ. रजा जनवरी, 1978 में सर्जरी के विशेषज्ञ के रूप में भारत सरकार द्वारा ईरान में प्रतिनियुक्ति पर भेजे गए 90 भारतीय डॉक्टरों में से थे. क्रांति शुरू होने पर वह तेहरान में मुश्किल से ही बस पाए थे.

उनका कहना है कि उन्होंने ईरान में क्रांति के दौरान दिन-रात काम किया था, ‘‘मुझे राजा के खिलाफ क्रांति (1978-79) का सर्जन कहा जाता था. जिन लोगों को पुलिस और सेना ने गोली मारी थी, मैंने उनके शरीर के हर हिस्से से गोलियां निकाली हैं.

ईरान में आघात के मामलों के इलाज का पूरा अनुभव मुझे अस्पताल में साढ़े तीन साल के दौरान मिला. इसके बाद मैंने एएमयू से इस्तीफा दे दिया. भारत सरकार से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करने के बाद, मैं ओमान चला गया, जहाँ मैंने 1981 से 2011 तक एक विशेषज्ञ के रूप में काम किया.

ओमान के एक छोटे से शहर बुरैमी में, मैंने 100 बिस्तरों वाले अस्पताल में जलने की चोटों के लिए बहुत सारी प्लास्टिक सर्जरी कीं. प्रोफेसर डगलस रॉय, एक अंग्रेज, जो पूरे देश में सर्जरी के प्रभारी थे, ने मेरे काम को देखा और 1985 में मुझे राजधानी मस्कट ले गए.

ओमान में सरकार ने मुझे नौ एक्सटेंशन दिए. मेरा मुख्य कार्य ठोस अंग आघात का गैर-ऑपरेटिव प्रबंधन था. ओमान में यातायात चोटों की सबसे अधिक घटनाएं होती हैं. मेरे अधिकांश सहकर्मियों के कड़े विरोध के बावजूद, मैंने साबित कर दिया कि मेरे मरीज जीवित थे, क्योंकि मैं उनका ऑपरेशन नहीं कर रहा था.’’

यह पूछे जाने पर कि उन्होंने ईरान क्यों छोड़ा, डॉ. रजा कहते हैं, ‘‘वहां युद्ध हुआ था और राजधानी तेहरान के दक्षिण में कोम को भी बमबारी का सामना करना पड़ा था. मैं ईरान छोड़ना नहीं चाहता था, क्योंकि वहां के लोग बहुत अच्छे थे. युद्ध शुरू होने के बाद, देश जर्जर स्थिति में था. जीवन यापन की लागत बहुत अधिक थी. मैं बहुत परेशान था. मुझे अपने बच्चों की कोई खबर नहीं थी, जिन्हें मैंने शिक्षा के लिए भारत भेज दिया था, क्योंकि उस समय ईरान में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल नहीं थे. भारत में शायद ही कोई टेलीफोन था.’’

ईरान से ओमान जाना भी आसान नहीं था. डॉ. रजा याद करते हैं कि कैसे उन्होंने सड़क मार्ग से लगभग 7,000 किलोमीटर की यात्रा करके बलूचिस्तान तक की यात्रा की, जहां से वे कराची और फिर अलीगढ़ से आए अपने परिवार से मिलने के लिए दिल्ली पहुंचे.

अपने वैश्विक अनुभव की बदौलत डॉ. रजा अंग्रेजी के अलावा अरबी, बलूची, फारसी, रूसी, उर्दू और जांजीबारी भी बोल सकते हैं.

वह भारतीय महिलाओं के बीच स्तन कैंसर जागरूकता के लिए एक सोसायटी भी चला रहे हैं.

डॉ. रजा की तीन बेटियां हैं. उनके दो बेटे हैं जो उनके साथ रहते हैं.