ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली
बनारस की गलियों में आज भी एक हवेली है, सादगी की मिसाल — वही घर जहाँ शहनाई का सुर कभी खुदा की इबादत बन जाता था. आज हम उस घर में हैं, जहाँ उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान साहब ने अपनी ज़िंदगी गुज़ारी, जहाँ उनकी रूह आज भी महसूस होती है.
दोपहर की हल्की धूप छत पर बिखरी थी, वहीं पर बिस्मिल्ला साहब अक्सर बैठते थे. कभी नमाज़ अदा करते, तो कभी शहनाई लेकर धूप में ही रियाज़ करने लगते. नीचे उनका बैठक का कमरा था, जहाँ देश-विदेश से लोग उनसे मिलने आते थे. घंटों वो बैठकर बात करते, हँसते, सुनाते — संगीत, जीवन और साधना की बातें.
उनके पोते मोहम्मद हुसैन रज़ा, जो अब खुद भी शहनाई सीख रहे हैं, ने आवाज द वॉयस को बताया कि “दादा जी सुबह जब राग तोड़ी या भैरवी बजाते थे, तो उनके सुर घर के कोने-कोने में गूंजते थे. मैं ऊपर होता, फिर भी उनका स्वर कानों में बसा रहता. लोग खिड़कियों के बाहर खड़े हो जाते थे — कोई बोलता नहीं था, बस सुनता था."
उनके बेटे नैय्यर हुसैन बिस्मिल्लाह की आंखों में पानी आ जाता है जब वो कहते हैं, "उनकी बातें इतनी हैं कि सुबह से शुरू करें तो शाम हो जाए. उन्होंने ज़िंदगी छत पर ही गुज़ारी, छोटे से कमरे में बड़ी सी दुनिया बसा ली थी."
कमरे की दीवारों पर न कोई तामझाम, न कोई ताजगी की कोशिश — बस एक साधक का ठिकाना. यही वो कमरा था जहाँ भारत रत्न बिस्मिल्ला ख़ान रहते थे, और यही उनकी असली पहचान थी — सादगी और संगीत.
बेटी ज़रीना जी बताती हैं एक अद्भुत वाकया, जब उस्ताद जी अपने गुरु के कहे अनुसार एक मंदिर में रियाज़ करने जाते थे — "बालाजी मंदिर में उन्होंने सालों तक रियाज़ किया. एक दिन वहाँ किसी अजनबी ने उन्हें देखकर कहा, ‘मज़ा करेगा, मज़ा करेगा’, और फिर अचानक गायब हो गया. बाद में उनके उस्ताद ने कहा कि ये चमत्कार है, इसे किसी से मत कहना. दादा जी फिर कभी नहीं बोले, बस साधना में और डूब गए.”
उसी मंदिर से सामने मंगला गौरी का मंदिर है. जब भी बिस्मिल्ला साहब वहाँ से लौटते, उस दीवार को छूकर, सिर झुकाकर आशीर्वाद लेते — संगीत और साधना, दोनों के संतुलन के साथ.
उनकी नातिन भावुक होकर कहती हैं, "जब अब्बा (बिस्मिल्ला साहब) गाते थे — ‘लागी चरण तुमरे’, तो रोटी पकाते पकाते हमें एहसास हो जाता कि ये सिर्फ सुर नहीं हैं, ये तो दुआएं हैं, आशीर्वाद हैं.”
लेकिन... आज उस सुर की विरासत खतरे में है. परिवार बंटा हुआ है, मुकदमे चल रहे हैं. जो लोग उनके नाम पर गर्व करते थे, अब वही रिश्तेदार मुकदमे कर रहे हैं. ज़रीना जी कहती हैं,
“अब्बा के जाने के बाद, जैसे सब कुछ बिखर गया. सरकार ने कहा था पूरा हिंदुस्तान साथ है — पर अब कोई साथ नहीं, बस यादें हैं.”
इतने सम्मान — पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण और भारत रत्न — सब कुछ मिला, लेकिन उनके घर की छत वैसी की वैसी रही. न साज-सज्जा, न आराम — बस शहनाई और साधना. यही थी उनकी असली दौलत, यही उनकी विरासत.
मोहम्मद हुसैन रज़ा अब उसी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. वो कहते हैं, “हम बस चाहते हैं कि दादा जी की शहनाई फिर से गूंजे. दुनिया सुने कि एक सच्चा फनकार कभी मरता नहीं, उसकी साँसे सुरों में ज़िंदा रहती हैं.”
बिस्मिल्ला ख़ान साहब केवल शहनाई के उस्ताद नहीं थे, वो भारत की आत्मा के संगीतकार थे. उनका घर, उनकी छत, उनका कमरा — आज भी उनका मंदिर है.
शायद उन्होंने सही ही कहा था: “संगीत साधना है, शौक नहीं. और जो साधना करता है, वो कभी मरता नहीं.” उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान साहब जिनकी शहनाई अब भी समय के सन्नाटे को सुरों से भर देती है. आज उनकी पुण्यतिथिपर चलिए हम सब उनके सुरों में खो जाएं.
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