हरजिंदर
एक साल के भीतर यह दूसरा मौका है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पसमांदा मुसलमानों का जिक्र किया है.इस बार दिल्ली में हुई भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में जब उन्होंने इसका जिक्र किया तो हर तरफ यही अटकल लगाई गई कि अगले आम चुनाव में पसमांदा मुसलमान भाजपा की रणनीति का एक अहम हिस्सा होने जा रहे हैं.
पिछली बार अक्तूबर में जब उन्होंने इसका जिक्र किया था तो यह भी आग्रह किया था कि पार्टी कार्यकर्ता इस समुदाय को अपने साथ जोड़ने के लिए स्नेह और सम्मान यात्राएं निकालें.शुरू में ऐसे कुछ कार्यक्रमों का आयोजन भी हुआ.लेकिन बाद में इस पर से ध्यान हट गया.अब फिर से इसे फोकस में लाने की तैयारी दिख रही है.
अगले साल प्रधानमंत्री मोदी अपने तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव मैदान में उतरेंगे.देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को अगर छोड़ दें तो लगातार तीसरे कार्यकाल का चुनाव कोई और नहीं जीत सका है.यह माना जाता है कि दस साल में लोकप्रियता में थोड़ी बहुत गिरावट आती ही है और इधर-उधर कईं असंतोष भी उभरने लगते हैं.
मोदी की लोकप्रियता में पहले के प्रधानमंत्रियों की तरह कोई बहुत बड़ी कमी आई हो अभी तक तो ऐसा नहीं लगता.लेकिन फिर भी वे कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहेंगे.इसके लिए जरूरी होगा कि वे किसी नए वोट बैंक को अपने साथ जोड़ें.इसलिए माना जा रहा है कि पसमांदा समुदाय की बात इसी रणनीति के तहत की जा रही है.
समाजशास्त्री जिसे पहचान की राजनीति कहते हैं वह पिछले एक डेढ़ दशक में काफी बदली है.उसके पहले पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यों के नाम पर जिस तरह की राजनीति होती है, अब उसके तरीके पूरी तरह बदल गए हैं.
अब पिछड़ों में अति पिछड़ों की तलाश की जाती है और दलितों में अति दलितों की.इनके आधार पर बहुत से नए समीकरण बदल गए हैं.इन समीकरणों को सबसे ज्यादा फायदा भाजपा ने उठाया है.तो क्या ऐसा ही भारतीय मुसलमानों के मामले में भी होने जा रहा है ?
पसमांदा मुसलमानों को राजनीतिक ताकत के तौर पर संगठिन करने की कोशिश बिहार में काफी पहले हुई थी.अली अनवर ने इस पर शोध भी किया था और पसमांदा मुस्लिम महाज नाम का एक संगठन भी बनाया था.
बिहार की राजनीति में उनकी काफी अच्छी हैसियत भी बन गई थी और वे लगातार दो बार राज्यसभा के सदस्य भी रहे.लेकिन इस समय वे किसी भी दल में नहीं हैं और राजनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ चुके हैं.सिर्फ पसमांदा वोटों के लिए बिहार के किसी भी दल को उन्हें अपने साथ लेने की जरूरत महसूस नहीं होती.
पसमांदा समुदाय को देश का ऐसा सबसे पिछड़ा समुदाय माना जाता है जिसके उत्थान के लिए कभी संगठित कोशिशें नहीं की गई.एक समय यह उम्मीद की जाती थी कि इस समुदाय के लोगों को भी आरक्षण की सुविधा दी जाएगी.
अनुसूचित जाति-जनजाति आरक्षण की सुविधा शुरू में सिर्फ हिंदू जातियों के लिए ही थी.बाद में 1956 में इसका दायरा बढ़ाकर इसमें दलित सिखों को भी शामिल कर लिया गया.तकरीबन साढ़े तीन दशक बाद इसमें दलित बौद्ध भी इसमें शामिल कर लिए गए.लेकिन पसमांदा मुसलमानों और दलित इसाइयों को यह सुविधा देने की कोशिश किसी ने नहीं की.
हालांकि सच्चर कमेटी ने पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण देने की सिफारिश की थी.कुछ समय पहले केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर पूर्व मुख्य न्यायधीश जस्टिस के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया था जो पसमांदा मुसलमानों और दलित ईसाइयों को आरक्षण देने के मसले पर विचार करेगा.
अगर यह आयोग उसे दी गई समय सीमा के भीतर भी काम करता है तो भी उसकी रिपोर्ट अगले साल के आखिर तक ही आएगी.तब तक आम चुनाव निपट चुका होगा.यानी उस समय तक पसमांदा मुसलमानों के मसले पर सिर्फ राजनीति ही होगी.
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं @herhj)