क्यों नहीं रुकता महिलाओं के खिलाफ हिंसा ?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 12-09-2024
Why does violence against women not stop?
Why does violence against women not stop?

 

vimlaविमला देवी

"पति रोज़ शराब पीकर आता है और मारपीट करता है. बात बात पर गाली गलौज करता है. मेरी भावनाओं का उसे ज़रा भी ख्याल नहीं है. कभी कभी वह सभी के सामने बेइज़्ज़ती करने लगता है. जैसे हम पत्नी नहीं उसकी गुलाम है." यह पीड़ा है बाबा रामदेव नगर स्लम बस्ती की सुनीता (नाम परिवर्तित) का. यह दर्द अकेले एक सुनीता की नहीं है बल्कि देश की हज़ारों लाखों महिलाओं की है जो इस सुनीता की तरह रोज़ अपने पति द्वारा किये जाने वाली हिंसा और शोषण का शिकार होती हैं.

यह हिंसा पहले मौखिक रूप से शुरू होती है, जिसे महिलाएं घर का मामला मान कर सहन करती रहती हैं. आगे चलकर यही शारीरिक हिंसा में बदल जाता है.नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा 2023 में जारी रिपोर्ट के अनुसार साल 2022 के दौरान महिलाओं के खिलाफ हुए कुल अपराधों के तहत 4,45,256 मामले दर्ज किए गए, जो 2021 के 4,28,278 मामलों की तुलना में 4 फीसदी की वृद्धि को दर्शाते हैं.

देश में हर घंटे 51 महिलाएं अपराध का शिकार हो रही हैं. इसमें सबसे अधिक यूपी में 3491 मामले दर्ज किये गए हैं जबकि राजस्थान में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के 1834 मामले दर्ज किये गए हैं. जो राज्यों के मामले में पांचवें स्थान पर आता है. इतना ही नहीं, देश के बड़े महानगर भी महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा से मुक्त नहीं है.

20 लाख से अधिक की आबादी वाले देश के 19 महानगरों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के चार प्रतिशत बढ़े हुए मामले दर्ज किये गए हैं. इन शहरों में 2021 की 4 लाख 28 हज़ार 278 की तुलना में 2022 में 4 लाख 45 हज़ार 256 मामले दर्ज किये गए हैं. ये आंकड़े बताते हैं कि शहर से लेकर गांव और बड़े कॉलोनियों से लेकर स्लम बस्तियों तक महिलाओं के विरुद्ध हिंसा जारी है.

राजस्थान की राजधानी जयपुर स्थित बाबा रामदेव नगर कच्ची बस्ती में लैंगिक भेदभाव और हिंसा के काफी अधिक मामले देखने को मिल जाते हैं. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति बहुल यह बस्ती शहर से करीब 10 किमी दूर गुर्जर की थड़ी इलाके में आबाद है.

लगभग 500 से अधिक लोगों की आबादी वाले इस बस्ती में लोहार, मिरासी, रद्दी चुनने वाले, फ़कीर, शादी ब्याह में ढोल बजाने वाले, बांस से सामान बनाने वाले और दिहाड़ी मज़दूरी का काम करने वालों की संख्या अधिक है.

यहां साक्षरता विशेषकर महिलाओं में साक्षरता की दर काफी कम है. माता-पिता लड़कियों को सातवीं से आगे नहीं पढ़ाते हैं. इसके बाद उन्हें रद्दी बीनने, घर के काम या फिर छोटे बहन भाइयों को संभालने के काम में लगा दिया जाता है.

इस बस्ती में महिलाओं के साथ लैंगिक हिंसा और भेदभाव आम बात हो गई है. इस संबंध में बस्ती की 30वर्षीय रुकमणी देवी (बदला हुआ नाम) जो कालबेलिया समुदाय से हैं, कहती हैं कि "मैं झाड़ू बनाने का काम करती हूं.

पति कभी कभी इस काम मेरी मदद करता है. अधिकतर समय वह नशे का सेवन करता है. पैसे के लिए मेरे साथ मारपीट भी करता है. सिर्फ घर में ही नहीं, बल्कि जब मैं झाड़ू बेचने जाती हूं तो वहां भी हमारे साथ मानसिक रूप से हिंसा होती है. लोग गलत नज़रिये से देखते हैं और फब्तियां कसते हैं. हमें प्रतिदिन यह सब सहना पड़ता है."

इसी बस्ती की 50 वर्षीय लाडो देवी बताती हैं कि "मेरे 6 बच्चे हैं, जिनमें 4लड़कियां हैं. मैं रद्दी चुनने का काम करती हूं और मेरा पति बेलदारी का काम करता है. घर की हालत ऐसी है कि किसी प्रकार गुजारा चल रहा है. पति को कभी कभी काम नहीं मिलता है. इसलिए घर की आमदनी के लिए मैं और मेरी दो बेटियां प्रतिदिन रद्दी चुनने का काम करने जाती हैं. जिसके कारण उनकी पढ़ाई भी छूट गई है."

वह बताती हैं कि "मेरा पति नशा कर मेरे साथ मारपीट करता था. जिसका दुष्प्रभाव बेटियों पर भी पड़ रहा था.  इस घरेलू हिंसा का प्रभाव उनके मन मस्तिष्क में बैठने लगा है और वह मानसिक रूप से परेशान रहने लगी हैं.

वह बताती हैं कि इस बस्ती में महिलाओं का पति द्वारा हिंसा का शिकार होना आम है. बस्ती के अधिकतर पुरुष नशा कर पत्नी के साथ मारपीट करते हैं. बच्चों के सामने गालियां देते हैं. वहीं शारदा (नाम बदला हुआ) बताती है कि 'उसका पति दैनिक मज़दूरी करता है जबकि वह घर का कामकाज करती है.

पति रोज नशा करके उसके साथ हिंसा करता है. उस महिला के हाथ कई जगह से जले हुए थे. जो उसके साथ होने वाली शारीरिक हिंसा को बयां कर रही थी. वह बताती है कि अक्सर बस्ती की महिलाएं उसे पति की हिंसा से बचाती हैं. कई बार उसे पुलिस की मदद लेने की सलाह भी दी जाती है, लेकिन वह ऐसा नहीं करना चाहती है क्योंकि यहां उसका साथ देने वाला कोई नहीं है.

हालांकि महिला हिंसा के विरुद्ध बाबा रामदेव नगर में कई स्वयंसेवी संस्थाएं काम कर रही हैं. जो इन महिलाओं को किसी भी प्रकार की हिंसा के विरुद्ध जागरूक करने और अपनी आवाज उठाने का काम कर रही हैं. इस संबंध में पिछले आठ वर्षों से इस बस्ती में विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर काम कर रहे समाजसेवी अखिलेश मिश्रा बताते हैं कि "महिलाओं का अपने अधिकारों से परिचित नहीं होना उनके लिए हिंसा का कारण बनता है.

हालांकि सरकार द्वारा महिलाओं को लैंगिक हिंसा से बचाने के लिए कई कानून बनाए गए हैं. लेकिन विभिन्न कारणों से महिलाएं इसका प्रयोग नहीं कर पाती हैं. कई महिलाओं के लिए अपने पति के खिलाफ कदम उठाना बड़ी ही कठिनाई भरा काम होता है.

इस मामले में न तो समाज उनका साथ देता है और न ही उन्हें घर के अंदर से किसी प्रकार का सपोर्ट मिलता है. ऐसे में वह पति द्वारा किया जाने वाला अत्याचार को अपनी नियति मान कर सहती हैं. इसका दुष्प्रभाव किशोरियों की मानसिकता पर पड़ता है."

वह कहते हैं कि हिंसा के बाद महिलाओं को जागरूक करने से बेहतर है कि उन्हें पहले से इस संबंध में अवगत कराया जाए, उन्हें कानूनी और अन्य जानकारियां उपलब्ध कराई जाए ताकि उन्हें इसका शिकार होने से पहले बचाया जा सके.

वास्तव में, महिलाओं के साथ भेदभाव और हिंसा समाज के लिए एक अभिशाप है. जिसे समाप्त करने के लिए सामाजिक स्तर पर सहयोग की आवश्यकता है. केवल महिलाओं के लिए जागरूकता की बात करके समाज अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकता है बल्कि इसे समाप्त करने के लिए सभी को मिलकर काम करने की ज़रूरत है, ताकि एक समर्थ, समान और लिंगाधारित हिंसा तथा भेदभाव रहित समाज का निर्माण हो सके.

महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को समाप्त करने के लिए सरकार ने सख्त कदम उठाया है लेकिन यह एक सामाजिक बुराई है, जिसे रोकने और समाप्त करने के लिए समाज को आगे बढ़कर अपनी भूमिका अदा करनी होगी. (चरखा फीचर्स)