पाकिस्तान को एक उदार इस्लाम की ज़रूरत क्यों है ?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 25-05-2025
Why does Pakistan need a moderate Islam?
Why does Pakistan need a moderate Islam?

 

डॉ. उज़मा खातून / अब्दुल्ला मंसूर

पाकिस्तान की कहानी उस विश्वास से शुरू होती है कि हिंदू और मुसलमान इतने मौलिक रूप से अलग हैं कि वे कभी एक साथ नहीं रह सकते.इसी विचार को द्विराष्ट्र सिद्धांत कहा जाता है, जो 1947में पाकिस्तान के निर्माण की नींव बना.यह केवल क्षेत्र या सत्ता का मामला नहीं था—बल्कि नफ़रत, भय और धार्मिक अलगाव पर आधारित एक अलग पहचान गढ़ने की कोशिश थी.

शुरुआत से ही पाकिस्तान को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में आकार दिया गया जो सिर्फ़ भारत से अलग नहीं, बल्कि उसके विरोध में खड़ा हो.पाकिस्तान के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मुनीर ने कहा था कि द्विराष्ट्र सिद्धांत सही था और हिंदू और मुसलमान कभी एक नहीं हो सकते.

आज भी इस तरह के बयान पाकिस्तान के निर्माण को सही ठहराने और उसकी राष्ट्रीय पहचान बनाए रखने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं.परिणामस्वरूप, पाकिस्तान बार-बार अपनी वैधता साबित करने के लिए भारत से दूरी बनाने और हिंदुओं को दुश्मन के रूप में पेश करने की कोशिश करता रहा है.

इस मानसिकता—जो खुद की पहचान को दूसरों के विरोध में गढ़ती है—के गहरे और दर्दनाक परिणाम हुए हैं.पाकिस्तान ने विभाजन के ज़ख्मों को भरने के बजाय उन्हें खुला रखा.उसके नेताओं ने समानता और समावेशन पर आधारित समाज बनाने के बजाय एक ऐसा ढांचा तैयार किया जिसमें इस्लाम ही एकमात्र सूत्र था जो देश को जोड़ सकता था.

धर्म नागरिकता की बुनियाद बन गया, और जो भी इस साँचे में फिट नहीं बैठा—खासकर हिंदू—उसे बाहरी और अजनबी मान लिया गया.यह बहिष्करण छिपा हुआ नहीं था—बल्कि स्पष्ट, जोरदार और जानबूझकर किया गया। इसे भाषणों में बोला गया, अख़बारों में छापा गया और स्कूलों में पढ़ाया गया.

1947का बँटवारा केवल भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं रहा—बल्कि यह स्कूलों की किताबों, घरों की बातचीत और लोगों की सोच में उतर गया.जब पाकिस्तान ने अपनी राष्ट्रीय पहचान को मज़बूत करने की कोशिश की, तो उसने धर्म को एक राजनीतिक औज़ार की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया.

इस्लाम अब केवल व्यक्तिगत आस्था नहीं रहा—बल्कि एक हथियार बन गया.पाठ्यपुस्तकों को दोबारा लिखा गया ताकि हिंदुओं को गद्दार और "काफिर" के रूप में चित्रित किया जा सके—एक ऐसा शब्द जो केवल धार्मिक अंतर नहीं, बल्कि अपमान और अमानवीकरण का संकेत देता है.

इतिहास को इस तरह से तोड़ा-मरोड़ा गया कि यह दर्शाया जा सके कि हिंदू हमेशा मुसलमानों को दबाते रहे हैं और कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक हिंदू संगठन थी जो मुस्लिम पहचान को मिटाना चाहती थी.नेताओं ने यह विचार फैलाया कि मुसलमान हमेशा पीड़ित रहे हैं और भारत हमेशा एक ख़तरा बना रहेगा.

ये कथाएं अचानक नहीं बनीं—बल्कि ये राज्य-प्रायोजित योजना का हिस्सा थीं, ताकि हमेशा के लिए दुश्मनी का विचार जनता के मन में बैठाया जा सके.यह ज़हरीली विचारधारा बच्चों की शिक्षा के माध्यम से उनके मन में डाली गई.

शुरू से ही छात्रों को सिखाया गया कि हिंदुओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता, भारत उनका स्वाभाविक शत्रु है, और धर्म के नाम पर हिंसा जायज़ हो सकती है.पूरी-की-पूरी पीढ़ियाँ मुस्लिम पीड़ा और हिंदू क्रूरता की कहानियों पर पली-बढ़ी हैं.शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को एक विकल्प के रूप में कभी प्रस्तुत ही नहीं किया गया.

इसके बजाय, भय और अविश्वास वह चश्मा बन गया जिससे लोगों ने दुनिया को देखना शुरू किया.नतीजा यह हुआ कि नफ़रत को सामान्य बना दिया गया—यह सार्वजनिक रूप से बोली गई, धार्मिक संस्थानों में प्रचारित की गई, और समाज के हर स्तर पर दोहराई गई.पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर इसका असर विनाशकारी रहा.

स्वतंत्रता के समय, हिंदू पाकिस्तान की जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे.आज वे बहुत ही छोटी संख्या में बच गए हैं.कई लोगों को हिंसा, भेदभाव और असहायता के कारण देश छोड़ना पड़ा.उनके मंदिरों पर हमले हुए, उनकी बेटियों का अपहरण हुआ, और उनकी आवाज़ों को अनसुना किया गया.

ऐसे क़ानून बनाए गए जिन्होंने गैर-मुस्लिमों को द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना दिया.उद्देश्य संकल्प (Objectives Resolution) में घोषित किया गया कि पाकिस्तान की सम्प्रभुता अल्लाह की होगी और इस्लामी सिद्धांतों के अनुसार शासन चलेगा.केवल मुसलमान ही उच्च पदों पर नियुक्त किए जा सकते हैं.

1974में, अहमदिया समुदाय को कानूनी रूप से मुसलमान मानने से इनकार कर दिया गया—यह दर्शाता है कि धर्म का इस्तेमाल लोगों को अलग करने और सज़ा देने के लिए किया गया.

धार्मिक वर्चस्व की यह आंतरिक नीति धीरे-धीरे पाकिस्तान की विदेश नीति में भी झलकने लगी.भारत के साथ उसका टकराव केवल एक राजनीतिक संघर्ष नहीं, बल्कि एक धार्मिक युद्ध के रूप में प्रस्तुत किया गया.हर सैन्य या कूटनीतिक संकट को द्विराष्ट्र सिद्धांत की याद दिलाने का जरिया बनाया गया.

जनता से कहा गया कि हिंदू हमेशा मुसलमानों के खिलाफ साजिश करते हैं और कश्मीर को “आज़ाद” कराना पाकिस्तान के भाग्य की पूर्ति के लिए आवश्यक है.इससे एक राष्ट्रीय मनोदशा बनी जिसमें संदेह और शत्रुता व्याप्त हो गई.

घरेलू समस्याओं जैसे गरीबी, बेरोज़गारी या शिक्षा को हल करने के बजाय, नेताओं ने जनता के गुस्से को भारत की ओर मोड़ दिया। सुधार की तुलना में नफ़रत बेचना आसान था.1980के दशक में यह विचारधारा और भी उग्र और कट्टर रूप में उभरी, खासकर जनरल जिया-उल-हक़ के शासन में.

इस्लामी क़ानून और कठोर बना दिए गए.धार्मिक विद्यालयों—या मदरसों—की संख्या तेज़ी से बढ़ी, और इनमें से कई ने एक असहिष्णु इस्लाम की शिक्षा दी.छात्रों को सिखाया गया कि ग़ैर-मुसलमानों के ख़िलाफ़ जिहाद केवल जायज़ नहीं, बल्कि ज़रूरी है.

इन मदरसों ने एक पूरी पीढ़ी तैयार की जो धर्म के नाम पर मरने—या मारने—को तैयार थी.इस माहौल में आतंकी संगठन फले-फूले.कुछ ने पाकिस्तान के भीतर हिंसा फैलाई, जबकि अन्य ने भारत और अफगानिस्तान को निशाना बनाया.जो विचारधारात्मक नफ़रत से शुरू हुआ था, वह जल्द ही खून-खराबे में बदल गया.

पाठ्यपुस्तकों में फैलाई गई प्रोपेगैंडा और भी विकराल हो गई.हिंदुओं को लोभी, चालाक और क्रूर बताया गया.भारत को एक ऐसे देश के रूप में चित्रित किया गया जहां हर समय ख़तरा मंडराता है.

शांति को कमजोरी और युद्ध को गौरव बताया गया.ये शिक्षाएँ केवल इतिहास या धर्म तक सीमित नहीं रहीं—बल्कि हर विषय में घुस गईं.बच्चों को यह सिखाया गया कि पाकिस्तानी होने की पहचान का अर्थ है हिंदुओं को शाश्वत शत्रु के रूप में देखना.

इस मनोवैज्ञानिक युद्ध में सहानुभूति, संवाद और बदलाव की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गई.सबसे खतरनाक विचारों में से एक जो चरमपंथियों ने फैलाया है, वह है "ग़ज़वा-ए-हिंद"—एक पौराणिक धारणा कि एक दिन मुसलमान भारत पर विजय प्राप्त करेंगे.हालाँकि यह विचार क़ुरान या मुख्यधारा के इस्लामी शिक्षण में नहीं मिलता, फिर भी इसे युवाओं को कट्टरपंथी बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया।

यह एक झूठा धार्मिक आधार देता है जो हिंसा को सही ठहराता है और लोगों का ध्यान असली समस्याओं से भटकाता है.सच्चा इस्लाम शांति, करुणा और सह-अस्तित्व की बात करता है.यह मानव जीवन को महत्व देता है और आक्रमण की निंदा करता है.लेकिन पाकिस्तान में इस्लाम के संदेश को डर और सत्ता के लालच में डुबो दिया गया है.

इस विचारधारा के ज़हर के परिणाम विनाशकारी और दूरगामी रहे हैं.क्षेत्र के आतंकवादी संगठन धर्म को क्रूरता की आड़ बनाकर इस्तेमाल करते हैं.वे स्कूलों को बम से उड़ाते हैं, निर्दोषों की हत्या करते हैं, असहमति की आवाज़ दबाते हैं—और यह सब धार्मिक वैधता के नाम पर.

लेकिन उनका व्यवहार इस्लाम के मूल सिद्धांतों से घोर विश्वासघात है, जो निर्दोषों की हत्या की मनाही करता है और दया को सर्वोच्च मानता है.इन संगठनों ने न केवल पाकिस्तान को नुकसान पहुंचाया है, बल्कि पूरे क्षेत्र को अस्थिर कर दिया है.उनकी नफ़रत ने सीमाओं को पार कर लिया है—भारत और अन्य देशों को भी प्रभावित किया है.

भारत, एक बहु-धार्मिक और लोकतांत्रिक राष्ट्र, को इस विचारधारा के प्रसार को लेकर चिंता होना स्वाभाविक है.जब एक पड़ोसी देश अपनी शिक्षा, धर्म और राजनीति के माध्यम से नफ़रत फैलाता है, तो वह अविश्वास और भय का माहौल बनाता है.कोई सीमा विचारों को रोक नहीं सकती.

वे मीडिया, सोशल नेटवर्क और कानाफूसी से फैलते हैं.पाकिस्तान की आंतरिक नीतियाँ एक क्षेत्रीय ख़तरा बन गई हैं.मित्रता और शांति का वादा तब तक अधूरा रहेगा, जब तक एक पक्ष दूसरे को इंसान मानने से इनकार करता है.लेकिन स्थिति निराशाजनक नहीं है.पाकिस्तान अब भी एक बेहतर रास्ता चुन सकता है.उसे यह स्वीकार करना होगा कि उसका अस्तित्व हिंदुओं या भारत से नफ़रत करने पर निर्भर नहीं है.

उसे एक उदार, समावेशी इस्लाम को अपनाना होगा—जो दया, समानता और न्याय के मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है.ऐसा इस्लाम जो भिन्नता को खतरा नहीं, बल्कि वरदान समझता है.जो दीवारें नहीं, पुल बनाता है.

सरकार को पाठ्यक्रम में सुधार करना होगा. नफ़रत से भरे कंटेंट को हटाना होगा.शांति और सह-अस्तित्व की कहानियों को बढ़ावा देना होगा.राजनीतिक नेताओं को धर्म का इस्तेमाल बाँटने और भटकाने के लिए बंद करना होगा.

धार्मिक विद्वानों को सच्चा इस्लामी नैरेटिव वापस लेना होगा और हिंसा के खिलाफ बोलना होगा.नागरिक समाज को परिवर्तन की माँग करनी होगी—केवल अल्पसंख्यकों के लिए नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र की आत्मा के लिए.

पाकिस्तान के युवाओं को डर नहीं, बल्कि सच, करुणा और उम्मीद चाहिए.उन्हें नफ़रत के लिए नहीं, बल्कि सपने देखने के लिए पाला जाना चाहिए.एक ऐसा देश जो विरोध पर टिका हो, कभी शांति नहीं पा सकता.

एक ऐसा देश जो साझा मानवता पर टिका हो, सच्ची ताक़त वहीँ से आती है.इतिहास भविष्य को परिभाषित नहीं करता.पाकिस्तान अब भी एक नई कहानी लिख सकता है—सहिष्णुता, साहस और एकता की.लेकिन इसके लिए सबसे पहले उसे अपने अतीत का सामना करना होगा और बदलाव की ताक़त खुद में ढूँढनी होगी.

( डॉ. उज़मा खातून अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षिका रही हैं)