
हरजिंदर
न्यूयार्क के मेयर पद के लिए जोहरान ममदानी और वर्जीनिया में लेफ्टिनेंट गवर्नर पद पर ग़जाला हाशमी की जीत ने अमेरिका के मुसलमानों को एक नई उम्मीद दी है। उस अमेरिका में जहां इस्लाफोबिया के दबाव को सभी महसूस कर रहे थे, यह उम्मीद काफी महत्वपूर्ण है।
यहां एक और बात का जिक्र जरूरी है कि अमेरिका में पिछले दिनों हुए चुनाव में ये दोनों ही नहीं आठ अन्य मुस्लिम भी महत्वपूर्ण पदों के लिए चुने गए। इसके अलावा ज्यूडीशियल पदों के लिए हुए चुनावों में भी दो दर्जन के करीब मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं।
कौंसिल आॅफ अमेरिकन इस्लामिक रिलेशन ने अपने एक अध्यन में पाया कि इन चुनावों में कुल 76 मुस्लिम उम्मीदवार थे जिनमें से आधे यानी 38 को जीत मिली। जीत का प्रतिशत काफी अच्छा है, अभूतपूर्व तो है ही। इस संस्था ने यह भी पाया कि इनमें से अधिकतर उम्मीदवारों को अन्य अल्पसंख्यकों का भी समर्थन मिला।
सबसे पहले तो यह कहा जा रहा है कि ये जीत बताती हैं कि आम अमेरिकी अपनी सोच और अपने बर्ताव में मुसलमानों के खिलाफ नहीं हैं। जो उम्मीदवार उन्हें अच्छा लगता है वे उसे ही वोट देते हैं चाहे वह मुस्लिम ही क्यों न हो। ये सभी उम्मीदवार उन जगहों से जीते हैं जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या इतनी ज्यादा नहीं थी कि सिर्फ उन्हीं के बूते पूरा चुनाव जीता जा सकता।
इसे एक दूसरी तरह से भी देखा जा रहा है। यह बताता है कि अमेरिका के मुस्लिम अल्पसंख्यक अब बड़ी संख्या में मुख्यधारा की राजनीति में सक्रिय भागीदारी करने लगे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि तकरीबन इन सभी उम्मीदवारों ने अपने चुनाव के दौरान अपना फोकस अल्पसंख्यकों के मसलों पर नहीं रखा। उन्होंने आर्थिक मसलों को जोरदार ढंग से उठाया। ये वे मुद्दे थे जो लोगों को अपील भी कर रहे थे।
एक और बड़ी बात यह है कि यह रणनीति उस समय अपनाई जा रही थी जब अमेरिका में सरकार की सोच उससे बिलकुल उलट दिखाई दे रही है। इसीलिए इनमें से कईं उम्मीदवारों का खुद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तक ने खुलकर विरोध किया।
खासकर जोहरान ममदानी का जो उनके ही शहर न्यूयार्क के मेयर बनने जा रहे थे। ममदानी जो मुद्दे उठा रहे थे उनकी वजह से ट्रंप ने उन्हें कई बार कम्युनिस्ट कहा। इसके अलावा उन्होंने ममदानी के लिए सनकी जैसे शब्द भी इस्तेमाल किए।
कौंसिल आॅफ अमेरिकन इस्लामिक रिलेशसन्स ने अपने अध्यन के निष्कर्ष में कहा है, ‘लगातार बढ़ रही कट्टरता के बीच अमेरिका के मुसलमान अपने और अपने पड़ोसियों के बेहतर भविष्य के लिए उठ खड़े हुए हैं।‘
लेकिन क्या इससे माना जाए कि अमेरिका में इस्लामफोबिया या मुसलमानों के खिलाफ नफरत का माहौल अब खत्म होने लगा है? एक तो इसका कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है और दूसरे इसके लिए सीधी कोई कोशिश भी नहीं चल रही।
एक और तथ्य यह भी है कि अमेरिका में इस्लामफोबिया में शामिल लोग वहां की वर्तमान सरकार के समर्थक भी हैं। इसलिए यह मान लिया जाता है कि सरकार असल मायने में न तो उनके खिलाफ खड़ी दिखाई देगी और न ही हतोत्साहित करेगी।
इस तथ्य को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि चुनाव लड़ने वाले इन मुसलमानों की उम्मीदवारी और जीत का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ किया गया और किया जा रहा है।
चुनाव बीत गए, नफरत फैलाने वाले अब क्या कर रहे हैं? वहीं जो वे हमेशा करते रहे हैं। वे फेक न्यूज़ का सहारा ले रहे हैं। चंद रोज पहले ही एक वीडियो जारी हुआ। इसमें मुसलमानों की एक भीड़ न्यूयाॅर्क में प्रदर्शन कर रही है। उनके पोस्टर और बैनर यह कह रहे हैं कि अब न्यूयाॅर्क की भाषा अंग्रेजी नहीं अरबी होगी। बहुत जल्द ही यह भी साफ हो गया कि यह एक फर्जी वीडियो था जिसे आर्टीफीशियल इंटैलीजेंस यानी एआई से तैयार किया गया था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)