धधकते जंगल और हाथ पर हाथ धरे बैठे हम

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 18-08-2021
धधकते जंगल और हाथ पर हाथ धरे बैठे हम
धधकते जंगल और हाथ पर हाथ धरे बैठे हम

 

हरजिंदर

राजनैतिक घटनाओं के सामने अक्सर पूरी मानवता पर आए संकट भुला दिए जाते हैं.जिन दिनों हम अफगानिस्तान के तख्ता पलट की बात में उलझे हुए हैं, साईबेरिया के जंगलों में लगी आग का ज्यादा जिक्र नहीं हो रहा, जबकि यह खतरा अफगानिस्तान के तत्काल खतरे से ज्यादा बड़ा है.

जिस साईबेरिया को हम बर्फीले रेगिस्तान या पूर्व सोवियत सरकारों द्वारा काले पानी की सजा के रूप में इस्तेमाल किए जाने के लिए ही जानते हैं वहां के जंगलों में इस समय भीषण आग लगी है.लगभग 43,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में जंगल जलकर राख हो रहे हैं और अभी तक यह ठीक से आकलन नहीं हो सका कि इससे नुकसान कितना होगा.

यह माना जा रहा है कि पिछले कुछ साल में दुनिया भर के जंगलों में जितनी भी आग लगने की घटनाएं हुईं हैं उनके कुल योग से भी बड़ी आग इस समय साईबेरिया में धधक रही है.

यूरोप के दूसरे हिस्से में ग्रीस में भी पिछले दिनों आग लगी थी जो अभी चंद रोज पहले तक वहां के जंगलों को राख कर रही थी.ग्रीस की इस आग से एक-दो हफ्ते पहले ही पश्चिमी अमेरिका के जंगल आग के हवाले हो गए थे.पिछले साल भी लाॅस एंजेल्स के पास अमेरिका के कुछ जंगल जलकर पूरी तरह राख हो गए थे.

 दो साल पहले आस्ट्रेलिया के ऐसे जंगल धधकने लगे थे जो पूरी तरह अनछुए थे.भारत में उत्तराखंड और हिमाचल के जंगलों से आग लगने की खबरें भी हर साल मई-जून में आती ही रहती हैं.

लेकिन इस साल सबसे ज्यादा चिंताजनक रही है अमेजन के जंगलों मे लगी आग.माना जाता है कि दुनिया में कार्बन उत्सर्जन को सोखने का सबसे बड़ा कुदरती तंत्र अमेजन के जंगल ही हैं। अगर ये भी आगे के हवाले होने लगे तो हमें पर्यावरण की बहुत बड़ी त्रासदी के लिए तैयार हो जाना चाहिए.

इस महीने के शुरू में संयुक्त राष्ट्र द्वारा बनाई गई संस्था आईपीसीसी यानी इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाईमेट चेंज की जो रिपोर्ट आई है वह बताती है कि बढ़ता कार्बन उत्सर्जन खतरे की घंटी बजा रहा है.यह तय हुआ था कि तापमान को औसत दो डिग्री सेंटीग्रेट से बढ़ने नहीं दिया जाएगा लेकिन यह नहीं हो पा रहा.

पैनल का कहना है कि अगर तुरंत ही कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कुछ नहीं किया गया तो ग्लोबल वार्मिंग को रोक पाना तकरीबन असंभव होगा। उसका कहना है कि यह तबाही हमारे दरवाजे तक पहंुच चुकी है.

ऐसे मं कार्बन उत्सर्जन को सोखने वाले जंगलों का एक के बाद एक राख होते जाना खतरे को बढ़ा रहा है.यह ठीक है कि जहां भी जंगल राख हुए हैं वहां उन्हें फिर से हरा-भरा करने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं, लेकिन इन जंगलों की जो बाॅयोडाईवर्सिटी हजारो या शायद लाखों बरस में तैयार हुई थी, उस स्तर को सिर्फ वृक्षारोपण करके कुछ साल में ही हालिस करना किसी भी तरह से मुमकिन नहीं होगा.


लेकिन जंगलों की इस आग को रोका कैसे जाए? यह कभी आसान नहीं होता और कईं बार तो यह किसी भी तरह से मुमकिन भी नहीं होता.यह भी माना जाता है कि दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तरह ही जंगल की आग को भी एक हद से ज्यादा रोका नहीं जा सकता.ऐसे में कोशिश यही होती हैं कि इस आग को नए इलाकों तक फैलने से रोका जाए और इसके नुकसान को कम से कम किया जाए.

अमेरिका में इसे लेकर जो अध्ययन हुआ है वह बताता है कि जंगल की बाॅयोडाईवर्सिटी केा आहत किए बगैर उसकी कुछ हद तक सफाई जरूरी है.अध्यन में पाया गया है कि जो पेड़ सूखकर गिर जाते हैं वे आग लगने की घटनाओं में ईंधन का काम करते हैं.

हरे पेड़ों में जल्दी आग नहीं लगती लेकिन सूखी लकड़ियां तुरंत आग पकड़ती हैं और फिर हरे पेड़ों को भी झुलसाने लगती हैं.यानी अगर जंगलों से सूखे और गिरे हुए पेड़ों को हटाने का काम लगातार किया जाए तो इस आग को काफी हद तक रोका जा सकता है.

भारत में उत्तराखंड के अध्ययन एक दूसरी बात बताते हैं.जंगलों में जो सूखी पत्तियां और टहनियां वगैरह गिरती हैं, गर्मी के मौसम में उनकी नमीं सूख जाती है और फिर जरा से चिंगारी से ही वे कभी भी धधक सकती हैं.

पहले आस-पास के गांवों के लोग जंगल जाकर वहां से ये टहनियां और सूखी पत्तियां वगैरह बटोर कर ले आते थे और जंगलों को सुरक्षा मिल जाती थी. लेकिन नए वन कानून के बाद से जंगल से कुछ भी लेकर आना अपराध की श्रेणी में आ गया है और इसलिए ये सब वहां ढेर होता रहता है.

जंगल की आग से बड़ी दिक्कत यह है कि पूरी दुनिया में इसे रोकने के लिए कहीं कुछ नहीं किया जा रहा.खतरे अचानक किस तरह बढ़ते हैं यह हमने पिछले साल कोरोना संक्रमण के समय देख लिया था.

पिछले साल सात मार्च को जब दुनिया में कोरोना के मरीजों की संख्या एक लाख हो चुकी थी तब भी दुनिया भर की सरकारें इसे लेकर कोई बड़ा फैसला नहीं कर सकी थीं। यहां तक कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे महामारी तक घोषित नहीं किया था.

 फिर कुछ ही दिन में इस महामारी ने इतना बड़ा हमला बोला कि बहुत सी चीजें हाथ से निकल गईं.जबकि अगर समय पर सरकारें अपनी गंभीरता दिखा देतीं तो तबाही से कुछ हद तक तो बचा ही जा सकता था.दुर्भाग्य यह है कि जैसे सरकारों ने कोरोना वायरस के खतरे को समय रहते नहीं समझा वैसे ही ग्लोबल वार्मिंग की चेतावनियों को भी नजरंदाज कर रही हैं.