डॉ. कबीरुल बशर
हाल में भारत के कई गांवों मेंपकड़े गए रसेल वाइपर सांप ने एक बार फिर जनमानस में दहशत पैदा कर दी है.ये घटनाएँ हमें नए सिरे से सोचने पर मजबूर करती हैं कि आखिर यह जानवर अचानक हमारे घर, आँगन या मोहल्ले में क्यों आ जाता है? इस समय एक जटिल और चिंताजनक हकीकत सामने आई है- मानव और वन्यजीवों के बीच संघर्ष.
यह संघर्ष सिर्फ़ पहाड़ी इलाकों या जंगलों में ही नहीं, बल्कि अब शहरी इलाकों में भी दिखाई देने लगा है.खासकर जब बारिश का मौसम आता है, तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है.हम अक्सर लोगों के घरों, आँगन या आस-पास के इलाकों में तरह-तरह के जंगली जानवरों की मौजूदगी देखते हैं.कभी छोटे कीड़े-मकोड़े, चींटियाँ, छिपकलियाँ, तिलचट्टे या मकड़ी, तो कभी साँप, लोमड़ी या बिज्जू जैसे बड़े जानवर भी इंसानी बस्तियों में शरण लेने आ जाते हैं.
दरअसल, जानवर किसी अचानक फैसले से इंसानों के घरों में नहीं आते.इसके पीछे पर्यावरण और आवास संकट है.बरसात के मौसम में, जब निचले इलाकों में पानी भर जाता है, जंगल या नहरें पानी में डूब जाती हैं, तो जानवर सुरक्षित आश्रय की तलाश में ऊँची जगहों पर जाने को मजबूर हो जाते हैं.ये ऊँची जगहें अक्सर इंसानों का घर बन जाती हैं.यहाँ तक कि उन्हें शहर के नालों या निर्माणाधीन इमारतों में भी शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
इसके अलावा, मानवीय अज्ञानता और पर्यावरण विनाश के कारण, जानवर अपने प्राकृतिक आवास खो रहे हैं.प्रत्येक जानवर का एक विशिष्ट आवास होता है; जंगल, झाड़ियाँ, बिल, जलाशय, पहाड़ या रेत के टीले.लेकिन मनुष्य अपने आवास और कृषि, औद्योगीकरण, बुनियादी ढाँचे के निर्माण, सड़क निर्माण आदि के लिए इस प्राकृतिक पर्यावरण को लगातार नष्ट कर रहे हैं.परिणामस्वरूप, जानवर कहीं भी आश्रय न पाकर ग्रामीण इलाकों की ओर भागने को मजबूर हैं.
सिर्फ़ साँप या लोमड़ी ही नहीं, बल्कि चींटियाँ, तिलचट्टे, ततैया, मेंढक और यहाँ तक कि रैटलस्नेक जैसे जानवर भी मानसून के दौरान लोगों के घरों में देखे जा सकते हैं.इन जानवरों को भी सुरक्षित आश्रय की ज़रूरत होती है.लेकिन हम उनके पर्यावरण पर कब्ज़ा कर रहे हैं या उसे नष्ट कर रहे हैं.
भारत के संदर्भ में पर्यावरण के प्रति जागरूकता अभी भी बहुत सीमित है.ज़्यादातर लोग यह नहीं जानते कि एक आम साँप या मेंढक भी पर्यावरण के लिए कितना महत्वपूर्ण है.ज़हरीला गार्टर स्नेक चूहों को खाकर फसलों की रक्षा करता है, जबकि मेंढक मच्छरों के लार्वा खाकर डेंगू या मलेरिया से बचाव में मदद करते हैं.ये जानवर पर्यावरण की खाद्य श्रृंखला का हिस्सा हैं.लेकिन लोगों की जानकारी और जागरूकता की कमी के कारण, हम जानवरों को दुश्मन समझते हैं और उन्हें मारने में वीरता समझते हैं.
कई इलाकों में देखा जाता है कि घर में घुस आए किसी भी जानवर को डर या अज्ञानता के कारण मार दिया जाता है.जबकि हो सकता है कि वह जानवर किसी दिन पानी से बचकर आया हो.इस तरह जानवरों को मारना न केवल क्रूरता है, बल्कि पर्यावरण के संतुलन को भी बिगाड़ता है.हमें जानवरों के साथ सह-अस्तित्व का पाठ सीखना चाहिए.
हर जानवर को जीवित रहने का अधिकार है.जैसे इंसान सुरक्षा और भोजन चाहते हैं. वैसे ही जानवर भी सुरक्षित घर और भोजन की सुरक्षा चाहते हैं.अगर हम इस सच्चाई को नहीं समझेंगे, तो जानवरों के साथ संघर्ष बढ़ता ही रहेगा, जिसका अंततः हमें ही नुकसान होगा.
इंसानों और जानवरों के बीच संघर्ष को रोकने के लिए हमें पर्यावरण के बारे में सोचना होगा.सबसे पहले, पर्यावरण संरक्षण के लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है.हमें जंगलों का विनाश रोकना होगा, चरागाहों का संरक्षण करना होगा और जलाशयों को भरने से बचना होगा.जिस तरह सरकारी स्तर पर नीतियों की ज़रूरत है, उसी तरह व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर जागरूकता भी ज़रूरी है.
शिक्षण संस्थानों में पर्यावरण और वन्यजीवों पर अलग से शिक्षा शुरू की जा सकती है.बच्चों को बचपन से ही यह सिखाया जाना चाहिए कि जानवर हमारे दुश्मन नहीं, बल्कि हमारे दोस्त हैं.सोशल मीडिया, टेलीविजन और जनसंचार माध्यमों पर पर्यावरण-अनुकूल जीवनशैली को बढ़ावा दिया जाना चाहिए.
ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय सरकारों, नगर निगमों और संघ परिषदों द्वारा वन्यजीव संरक्षण और जागरूकता कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं.जिन क्षेत्रों में साँप बहुतायत में हैं, वहाँ प्रशिक्षित कर्मचारी और उपकरण उपलब्ध होने चाहिए ताकि लोग जानवरों को न मारें बल्कि उन्हें सुरक्षित रूप से ले जाएँ.
पर्यावरण जागरूकता बढ़ाने के लिए हमें कुछ ज़रूरी कदम उठाने होंगे.सबसे पहले, हमें अनावश्यक वनों की कटाई रोकनी होगी ताकि जानवरों के प्राकृतिक आवास सुरक्षित रहें.घर के आस-पास साफ़-सफ़ाई रखने और कहीं भी पानी जमा न होने देने से मच्छरों और कीड़ों को फैलने से रोका जा सकता है.जानवरों को देखकर घबराने के बजाय, आपको स्थानीय पर्यावरण कार्यालय से संपर्क करना चाहिए ताकि उन्हें बचाया जा सके या उनका उचित प्रबंधन किया जा सके.
बच्चों को वन्यजीवों के लाभों के बारे में शिक्षित करना और उनमें पर्यावरण के प्रति मित्रता का भाव जगाना आवश्यक है.इसके अतिरिक्त, क्षेत्र-आधारित वन्यजीव संरक्षणकार्यक्रम चलाकर और मीडिया व सोशल मीडिया पर जागरूकता संदेश प्रसारित करके लोगों को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित किया जा सकता है.यदि ये पहल एक साथ की जाएँ, तो पर्यावरण और जैव विविधता की रक्षा संभव हो सकेगी.
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पहले से ही महसूस किए जा रहे हैं.एक ओर अत्यधिक वर्षा और लंबे समय तक जलभराव की स्थिति है, वहीं दूसरी ओर सूखा और जल संकट बढ़ता जा रहा है.इस विरोधाभास से न केवल मनुष्य, बल्कि जानवर भी पीड़ित हैं.
जब लगातार वर्षा होती है और निचली भूमि जलमग्न हो जाती है, तो जानवर अपने आवास छोड़कर अन्यत्र जाने को मजबूर हो जाते हैं.इससे कई जानवर शहरी इलाकों या बस्तियों की ओर पलायन कर जाते हैं, जिससे मनुष्यों के लिए नए खतरे पैदा होते हैं.
वन्यजीवों और मनुष्यों के बीच इस बढ़ते संपर्क से रोगाणुओं के फैलने की संभावना भी बढ़ जाती है.निपाह वायरस, लेप्टोस्पायरोसिस जैसी जूनोटिक बीमारियाँ और यहाँ तक कि नए वायरल संक्रमण भी जानवरों से मनुष्यों में फैल सकते हैं.जिस तरह से हमने अतीत में वन्यजीवों को कोविड-19 या इबोला वायरस के स्रोत के रूप में देखा है, उससे पता चलता है कि यह संघर्ष केवल परिधीय नहीं है, बल्कि इससे जन स्वास्थ्य को गहरा खतरा है.
लोगों की जीवनशैली में बदलाव लाना समय की माँग है.हमें हर चीज़ के पीछे पर्यावरण के प्रति जागरूक दृष्टिकोण अपनाना होगा, चाहे वह घर बनाना हो, खेती करना हो या उद्योग लगाना हो.जहाँ जंगल हैं, वहाँ जंगल को बनाए रखते हुए योजनाबद्ध तरीके से बुनियादी ढाँचा विकसित किया जा सकता है.
वन्यजीव गलियारों या रास्तों को बिना रोके संरक्षित किया जा सकता है.कई देशों में वन्यजीवों की आवाजाही के लिए अंडरपास, ओवरपास या विशिष्ट गलियारे बनाए जा रहे हैं। बांग्लादेश को भी ऐसी ही नवीन सोच की ज़रूरत है.
तकनीक का उपयोग करके, वन्यजीवों का अवलोकन करना और उनकी गतिविधियों और मौसमी आदतों को समझने के लिए आँकड़े एकत्र करना संभव है.इस जानकारी का उपयोग करके, हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि जानवरों के किसी आवास में कब और कहाँ प्रवेश करने की सबसे अधिक संभावना है और उसके अनुसार तैयारी कर सकते हैं.
शहरी इलाकों में, घर का कचरा इधर-उधर फेंका हुआ देखना आम बात है.इससे बेजर, लोमड़ी और यहाँ तक कि बंदर जैसे जानवर भी भोजन की तलाश में आकर्षित होते हैं.इस समस्या को रोकने के लिए सख्त कचरा प्रबंधन ज़रूरी है.वन्यजीवों को खाना खिलाना या उन्हें आश्रय देना हानिकारक हो सकता है.नतीजतन, वे इंसानों को भोजन का एक विश्वसनीय स्रोत मानने लगते हैं और नियमित रूप से वापस आते हैं, जिससे बाद में संघर्ष होता है.
दुनिया भर के पर्यावरणविद् अब 'मानव-वन्यजीव संघर्ष' पर व्यापक शोध कर रहे हैं.इसका उद्देश्य यह पता लगाना है कि मनुष्य कहाँ और कितना जानवरों के आवासों को प्रभावित कर रहे हैं और जानवर इस पर कैसी प्रतिक्रिया दे रहे हैं.
यह समस्या दक्षिण एशियाई देशों, खासकर भारत, नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में विशेष रूप से गंभीर है.अगर हम इस समस्या का वैज्ञानिक तरीके से समाधान नहीं करते हैं, तो भविष्य में जानवर विलुप्त हो जाएँगे और मनुष्यों को और भी बड़े खतरों का सामना करना पड़ेगा.
इस संबंध में सरकारी और निजी दोनों स्तरों पर कदम उठाए जाने की आवश्यकता है.पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, स्थानीय निकाय विभाग, विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के सहयोग से एक दीर्घकालिक योजना बनाई जानी चाहिए.वन्यजीव सर्वेक्षणों, जोखिम मानचित्रों और मौसमी पैटर्न का विश्लेषण करके एक सुनियोजित व्यवस्था बनाई जा सकती है.
अंततः, पर्यावरण की रक्षा और जानवरों के लिए सुरक्षित आवास सुनिश्चित करके ही हम मनुष्यों और जानवरों के बीच संघर्ष को कम कर सकते हैं.अगर हम अभी कार्रवाई नहीं करते हैं, तो भविष्य में हमें और भी जटिल संकट का सामना करना पड़ेगा, जिससे न केवल जानवरों, बल्कि मानव सभ्यता को भी खतरा होगा.
( डॉ. कबीरुल बशर: प्रोफेसर, प्राणीशास्त्र विभाग, जहांगीरनगर विश्वविद्यालय)