मलिक असगर हाशमी
जब भी देश में 'वंदे मातरम' को लेकर कोई चर्चा होती है, चाहे वह सदन के अंदर हो या सदन के बाहर, बहस तुरंत ध्रुवीकृत हो जाती है. आम मुसलमान यही मानता है कि इस गीत के कुछ हिस्से इस्लाम की बुनियादी मान्यताओं के विपरीत हैं, और इस बार भी ऐसा ही देखा गया. हाल ही में लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस गीत की वकालत करने के साथ ही, मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग इसके विरोध में खड़ा नज़र आ रहा है. जमीयत उलेमा-ए-हिंद के सदर मौलाना अरशद मदनी ने भी इस पर अपनी बात रखी है, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि उन्हें किसी के 'वंदे मातरम' का पाठ करने या गाने पर कोई आपत्ति नहीं है.
उनका ऐतराज़ केवल उन भागों को लेकर है जो इस्लामी विश्वास से मेल नहीं खाते हैं, और इसलिए उनका संगठन इसका विरोध करता रहा है और करता रहेगा. इस विवाद की तह तक जाने के लिए, हमें मुस्लिम समुदाय की धार्मिक और ऐतिहासिक दलीलों को समझना होगा.
एकेश्वरवाद (तौहीद) और इबादत का सवाल
विरोध का मूल आधार इस्लामी एकेश्वरवाद, जिसे 'तौहीद' कहा जाता है, पर टिका हुआ है. मौलाना अरशद मदनी ने अपनी बात रखते हुए कहा है, "एक मुसलमान केवल एक अल्लाह की पूजा करता है और उसकी पूजा में किसी और को शामिल नहीं कर सकता."
इस्लाम के अनुसार, अल्लाह के अलावा किसी भी अन्य सत्ता, चाहे वह जीवित हो या निर्जीव, को इबादत (पूजा) के योग्य नहीं माना जा सकता. अल्लाह के पैगंबर मोहम्मद को भी ईश्वरीयता देना निन्दा माना जाता है, क्योंकि इस्लाम का मूल उद्देश्य एक साझा सृष्टिकर्ता की पूजा के माध्यम से मानवता की एकता को बढ़ावा देना है.
'वंदे मातरम' की सामग्री इसी इस्लामी एकेश्वरवाद का खंडन करती है. गीत के चार छंदों में, मातृभूमि की तुलना एक देवता और दुर्गा माता से की गई है, और इसमें पूजा से जुड़े शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. उदाहरण के लिए, गीत का चौथा छंद भारत माता को दुर्गा और लक्ष्मी जैसी हिंदू देवियों के रूप में संबोधित करता है: "तुम ही दुर्गा हो, देवी और रानी, जिनकी भुजाएँ प्रहार करती हैं और तलवारें चमकती हैं, तुम ही लक्ष्मी हो कमल पर बैठी हुई..."।
जब एक मुसलमान इन शब्दों को गाता है, तो वे अपने देश को हिंदू देवियों के बराबर करने के लिए मजबूर होते हैं, जिससे भारत भूमि को दैवीय रूप दिया जाता है. यह 'तौहीद' के सिद्धांत के खिलाफ है, जिसके अनुसार एक मुसलमान अल्लाह के अलावा किसी के सामने supplicate (विनती या पूजा) नहीं कर सकता.
इसलिए, मुस्लिम समुदाय का तर्क है कि 'वंदे मातरम' का अर्थ अनिवार्य रूप से "माँ, मैं आपकी पूजा करता हूँ" है, जो एक मुसलमान की धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ है. उनका स्पष्ट मानना है कि देश के लिए प्यार और देश की पूजा करना दो अलग बातें हैं.
वे कहते हैं, "हम एक ईश्वर में विश्वास करते हैं; अल्लाह के अलावा हम किसी को इबादत के लायक नहीं मानते और किसी के आगे झुकते नहीं हैं. हम मौत को स्वीकार कर लेंगे, लेकिन कई भगवानों को मानना कभी स्वीकार नहीं करेंगे."
We have no objection to anyone reciting or singing “Vande Mataram”. However, a Muslim worships only one Allah and cannot associate anyone else with Him in worship.
— Arshad Madani (@ArshadMadani007) December 9, 2025
The contents of “Vande Mataram” are based on beliefs that contradict Islamic monotheism; in its four verses, the…
आनंदमठ का ऐतिहासिक भार
विरोध की दूसरी महत्वपूर्ण दलील इस गीत के ऐतिहासिक स्रोत पर आधारित है. 'वंदे मातरम' बंकिम चंद्र चटर्जी के क्रांतिकारी उपन्यास 'आनंदमठ' से लिया गया था, जिसे 1870 के दशक के अकाल से पीड़ित बंगाल की पृष्ठभूमि में लिखा गया था. यह आरोप लगाया जाता रहा है कि उपन्यास में मुस्लिम विरोधी भावनाएँ स्पष्ट रूप से मौजूद थीं.
वयोवृद्ध गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख़्तर ने, जिन्होंने इस विवाद को 'अप्रचलित' बताया है, खुद भी इस ऐतिहासिक तथ्य को स्वीकार किया कि 'आनंदमठ' में सभी खलनायक मुस्लिम थे और उपन्यासकार खुश थे कि अंग्रेज़ हमें तथाकथित 'बर्बर' मुसलमानों से बचाने आए थे.
इसके अलावा, आलोचकों ने उपन्यास के कुछ विवादास्पद अंशों का भी उल्लेख किया है, जिसमें मुसलमानों के खिलाफ़ ज़ोरदार जातीय प्रतिरोध और हिंसा का वर्णन है. इस संदर्भ के कारण, मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से को लगता है कि यह गीत केवल देशभक्ति का प्रतीक नहीं है, बल्कि उस ऐतिहासिक भावना का भी प्रतीक है जिसने मुसलमानों को 'अन्य' के रूप में चित्रित किया था.
कांग्रेस का ऐतिहासिक समझौता और दो छंदों का चयन
इस विवाद को देखते हुए, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही इसमें सुधार करने का प्रयास किया था. 1937 में, जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस कार्य समिति ने कलकत्ता में एक प्रस्ताव अपनाया, जिसमें स्वीकार किया गया: "समिति मुस्लिम दोस्तों द्वारा गीत के कुछ हिस्सों पर उठाई गई आपत्ति की वैधता को पहचानती है."
नेहरू समिति ने सिफारिश की कि 'वंदे मातरम' को राष्ट्रीय समारोहों में गाए जाने पर, केवल पहले दो छंदों का ही गायन किया जाना चाहिए. यह ऐतिहासिक कदम धार्मिक रूप से आपत्तिजनक छंदों को हटाकर गीत को अधिक समावेशी बनाने का एक प्रयास था.
महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू, दोनों को मुस्लिम विरोधी नहीं ठहराया जा सकता, और दोनों ही 'वंदे मातरम' को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक शक्तिशाली युद्धघोष मानते थे. गांधी ने 1939 में 'हरिजन' में लिखा था कि यह गीत "बंगाल के लाखों लोगों और बाहर के लोगों की देशभक्ति को गहराई से झकझोरता है," और उन्हें कभी यह विचार नहीं आया कि यह केवल हिंदुओं के लिए है.
हालांकि, विरोधियों का तर्क है कि पहले दो छंदों को शेष गीत से अलग करके नहीं देखा जा सकता, ख़ासकर जब उन्हीं छंदों में संदर्भित 'मातृभूमि' को बाद में दुर्गा और लक्ष्मी के रूप में स्पष्ट रूप से पहचाना गया है. उनका कहना है कि इस संदर्भ के कारण, पहले दो छंदों को गाना भी अप्रत्यक्ष रूप से हिंदू देवियों के प्रति सम्मान व्यक्त करने जैसा है, जो उनकी 'तौहीद' की अवधारणा का उल्लंघन है.
संवैधानिक स्वतंत्रता और देशभक्ति का प्रश्न
भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष और बहुलवादी समाज में, यह सवाल अपरिहार्य हो जाता है कि क्या किसी नागरिक को अपनी धार्मिक मान्यताओं के विपरीत किसी चीज़ को गाने के लिए मजबूर किया जा सकता है. इसका जवाब भारत का संविधान देता है.
संवैधानिक संरक्षण: भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को धर्म की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) प्रदान करता है. यदि किसी व्यक्ति का विश्वास किसी गीत या नारे को लगाने से रोकता है, तो संविधान उन्हें इसकी अनुमति देता है.
राष्ट्रगीत बनाम राष्ट्रगान: यह तर्क भी महत्वपूर्ण है कि 'वंदे मातरम' भारत का राष्ट्रीय गीत (National Song) है, न कि राष्ट्रगान (National Anthem). 'जन गण मन' को राष्ट्रगान के रूप में सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया है, और मुसलमान इसे सम्मानपूर्वक गाते आए हैं. इसलिए, राष्ट्रीय गीत को गाने से इनकार करने को देश के प्रति असम्मान के रूप में नहीं देखा जा सकता है.
देशभक्ति का प्रमाण: मुस्लिम समुदाय ज़ोर देकर कहता है कि स्वतंत्रता संग्राम में उनका बलिदान इतिहास का एक चमकदार अध्याय है और उन्हें अपनी देशभक्ति साबित करने के लिए किसी प्रमाण-पत्र की आवश्यकता नहीं है. स्वतंत्रता के दौरान और बाद में भी देश की सेवा में उन्होंने अपनी जान दी है.
अंततः, 'वंदे मातरम' पर विवाद धर्म और राष्ट्रवाद के चौराहे पर खड़ा है. जबकि यह गीत भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक शक्तिशाली भावनात्मक और ऐतिहासिक प्रतीक है, मुस्लिम समुदाय इसे 'तौहीद' के सिद्धांत पर सीधा उल्लंघन मानता है.
धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र होने के नाते, हर समुदाय को अपने विश्वास को मानने और उसका अभ्यास करने का अधिकार है, जब तक कि वह राष्ट्र की एकता और अखंडता को चुनौती न दे. ज़बरदस्ती किसी एक धार्मिक विश्वास को दूसरे पर थोपने से केवल सांप्रदायिक सद्भाव ही बिगड़ता है. इसलिए, भारतीय संदर्भ में इस विवाद को संवेदनशील और संवैधानिक दायरे में समझना ही सही दृष्टिकोण है.