साकिब सलीम
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया की खबरें देख कर दिल बेचैन और परेशान सा है. हम कहां आ गए हैं कि जहां धार्मिक त्यौहार का मतलब खुशी के बजाए दंगा, फसाद और नफरत बन गया है ? क्या इस दिन के लिए हमारे देश के वीरों ने 200 साल तक अपनी शहादत देकर आजादी हासिल की थी. फिरंगी सरकार के देश से जाने के 75बरस बाद भी हम उनकी फूट डालो और राज करो नीति के गुलाम बने रहे ?
आंखें देख तो रहीं हैं लेकिन सीनों में दिल अंधे हो चुके हैं. यह कैसा दिल है जो देश के अपने भाई बहन से नफरत पाले है. नहीं यह हिंदुस्तानी दिल नहीं हो सकता. ये तो वो पत्थर हैं जिनके बारे में बशीर बद्र ने लिखा है - हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं, उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में.
क्या सच में जिन दिलों को धार्मिक उन्माद के जहर से अंग्रेजों ने पत्थर बना दिया उनको वापिस दिल बनाने में अभी और वक्त लगेगा ? इस नफरत करने वाली भीड़ को कोई ये कैसे बताए कि ये किसी एक धर्म, सम्प्रदाय या जाति का विरोध नहीं बल्कि भारत का विरोध कर रहें हैं.
भारत कोई आम देश नहीं है. हजारों बरस में पनपी एक संस्कृति और सभ्यता है. बकौल रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ - सर-जमीन-ए-हिंद पर अक्वाम-ए-आलम के ‘फिराक‘, काफिले बसते गए हिन्दोस्तां बनता गया.
हजारों साल से इस धरती पर अलग अलग रीति- रिवाज और धर्म को मानने वाले एक साथ रहे हैं. जब अंग्रेजों ने इस देश में अपने पैर जमाने शुरू किए तब उनके सामने सबसे बड़ा सवाल था कि मुठ्ठी भर फिरंगी भारत जैसे इस विशाल देश पर भला राज कैसे कर सकते हैं.
ध्यान रहे तब का भारत आज के भारत से भी विशाल था. वर्तमान के भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा उस समय के हमारे अविभाजित देश का हिस्सा थे. ऐसे में अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर काम करना शुरू किया. भारत की इस महान संस्कृति को उन्होंने ये समझाना शुरू किया कि इस देश में अलग अलग समूह परस्पर विरोध में जी रहे हैं.
सबसे पहले उन्होंने इतिहास को पढ़ाने का तरीका बदला और प्राचीन काल को हिंदूकाल और मध्यकाल को मुस्लिमकाल की संज्ञा दी. सारे तथ्यों को ताक पर रख कर उन्होंने हिंदू और मुसलमान को दो परस्पर विरोधी समूह बताना शुरू किया.
अलग बात है कि उनके बताए मुस्लिम काल के दौरान देश के बड़े हिस्सों पर हिंदू शासक शासन करते थे. लेकिन उनको फूट डालनी थी सो डाली. उनकी इस चाल को आजादी के दीवाने बखूबी समझते थे.
यहां तक कि हिंदुत्व के पितामह कहे जाने वाले वीर सावरकर ने भी अपनी किताब में लिखा कि हिंदू और मुसलमान दोनों एक ही भारत माता के सपूत हैं. इस्लामिक विचारधारा के सैयद अहमद बरेलवी ने भी अंग्रेजों के खिलाफ हिंदू और मुसलमान को एकजुट होने की अपील की थी.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस तो 1930के दशक सेये कहते आ रहे थे कि देश में हिंदू मुस्लिम उन्माद बढ़ा कर अंग्रेज राज खुद को बचाने की कोशिश करता रहेगा और जब आजादी देनेपर मजबूर होगा तो धर्म के नाम पर देश को बांटने की कोशिश करेगा. नेताजी का मानना था कि ऐसा करके अंग्रेज अपने पीछे एक मजबूत भारत को छोड़ने से बचेंगे. कितने सही थे न नेताजी ?
नेताजी और अन्य राष्ट्रवादी वीरों का मानना था कि न केवल धर्म अंग्रेजों ने देश में भाषा और जाति के आधार पर फूट डाली. देश में कई भाषाएं थीं इससे कोई इंकार नहीं लेकिन उनके बीच कोई मनमुटाव नहीं था.
ऐसा होता तो कानपुर के रहने वाले मजनू शाह बंगाल और उड़ीसा के किसानों का नेतृत्व 1760के दशक में अंग्रेजों के खिलाफ फकीर सन्यांसी विद्रोह में कैसे करते ? ऐसे ही जाति के नाम पर जो नफरत फैलाई गई वो पहले मौजूद न थी. इस फूट के चलते हमारे देशवासी छोटे छोटे गुट बना कर आपस में ही लड़ते रहे और अंग्रेज राज को टक्कर नहीं दे सके.
अंग्रेज जिस एक ताकत से डरते थे वो थी भारत की एकता. वो ये जानते थे कि अगर हिंदू, मुस्लिम, सिख एक हो गए तो उनका राज खत्म हो जाएगा. क्या हम ये भूल सकते हैं कि अंग्रेज किसी मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा से कभी नहीं डरे लेकिन वो उस दिन डरे जब उन्होंने देखा कि मुसलमान और हिंदू रामनवमी का त्यौहार साथ में मना रहे हैं. मुहर्रम के जुलूस में हिंदू साथ चल रहे हैं.
लाहौर की सबसे बड़ी मस्जिद में एक हिंदू जुमे के दिन भाषण दे रहा है. इसका जवाब उन्होंने अगले दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में निहत्थे हिंदू, मुस्लिम और सिख पर गोली चला कर दिया. ये अंग्रेजों की जीत नहीं थी. जलियांवाला उनकी बौखलाहट की निशानी था.
अंग्रेजों का डर तब दिखा जब उन्होंने शंकराचार्य को अदालत में इसलिए खड़ा किया क्योंकि उन्होंने खिलाफत आंदोलन के फतवे का खुला समर्थन किया था. वो डरते थे कि कहीं हम एक न हो जाएं.
वो डरते थे उस मौलाना अबुल कलाम आजाद से जिसको भारत की सबसे बड़ी पार्टी के हिन्दुओं ने अपना अध्यक्ष बना कर आजादी की लड़ाई लड़ी. वो डरते थे उस राजा महेंद्र प्रताप और मौलाना उबैदुल्लाह से जिन्होंने ने एक साथ भारत की आजादी के लिए एक निर्वासित सरकार बनाई.
अंग्रेज डरते थे उस आजाद हिंद फौज से जिसके नेताजी का साया आबिद हसन था और जिसके अफसर भोंसले भी थे और हबीबुर्रहमान भी. वो उस नेताजी से डरते थे जो टीपू के सपने को साकार करना चाहते थे और रानी झांसी की शहादत को अमर.
वो बहादुर शाह जफर के दिल्ली को आजाद कराना चाहते थे. उनके सिपाही हिंदुस्तानी थे न कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, बंगाली, पंजाबी या मराठी. अंग्रेज इन सब से खौफ खाते थे. अंग्रेजों ने सबसे अधिक दमन इनका ही किया लेकिन क्या वो कर सके ?
दूसरी ओर जिसने भी हिंदू मुस्लिम के बीच अलगाव की बात की अंग्रेज राज ने उसको सर आंखों पर बिठाया. क्या ये काफी नहीं समझने को कि हमें किस तरह रहना है ?
आज देश में कुछ लोग हिंदू और मुस्लिम को बांट रहे हैं. दिलों में नफरतों के बीज बोए जा रहे हैं. क्या आप अपने देश को नेताजी के सपनों का भारत नहीं बनाना चाहते ? क्या चाहते हैं आप कि देश कभी तरक्की न करे ? क्या हम अंग्रेजों को उनके मंसूबों में कामयाब होने देंगे ?
क्या आपने कभी सोचा है कि मशहूर उर्दू शायर इकबाल ने - यूनान ओ मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहां से, अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा - क्यों कर लिखा था ? ये सभ्यता अपने वसुधैव कुटुंबकम की परंपरा के चलते जिंदा है और ये परंपरा अगर हमारी नफरतों की भेंट चढ़ गई तो जिस संस्कृति पर हमें नाज है वो कहां बाकी रह जाएगी ?
अटल जी को याद करते हुए मैं आपसे यहीं निवेदन करूंगा कि “ये देश रहना चाहिए“ इस देश को, इस महान संस्कृति को नफरत की आग से बचा लो. याद रखिए जो भी नेता, राजनीतिज्ञ, धर्म गुरु या मीडिया वाले आपको धर्म के नाम पर भड़का रहें हैं वो उन अंग्रेजों के एजेंट हैं जो आज भी इस भारत को विश्वगुरु बनते नहीं देखना चाहते.