मुजफ्फर हुसैन
सांस्कृतिक क्षेत्र में, फ़िल्म किसी देश का मुख्य उद्योग है, न कि केवल उद्योग के अर्थ में.फ़िल्म के विकास के साथ-साथ कला के अन्य माध्यम भी विकसित होते हैं.क्योंकि फ़िल्म साहित्य की तरह कला का कोई एकल या आत्मनिर्भर माध्यम नहीं है.यह संगीत, साहित्य, अभिनय, चित्रकला, नृत्य, दृश्य-श्रव्य कला आदि से जुड़ी है.यह मेकअप, कोरियोग्राफी, डिज़ाइनर से लेकर कई सहायक व्यवसायों से जुड़ी है.
कलाकार को छोड़ दें, तो शूटिंग यूनिट से लेकर सिनेमा हॉल तक अनगिनत लोगों की आजीविका सीधे तौर पर इससे जुड़ी होती है.आर्थिक पहलू तो यही है कि एक एकीकृत कला के रूप में, संस्कृति के समग्र विकास में फिल्म की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है.
फिल्में अंतरराष्ट्रीय मंच पर किसी देश का प्रतिनिधित्व करती हैं.इसलिए, फिल्मों के बिना हमारी संस्कृति को वैश्विक पहचान दिलाना संभव नहीं है.लेकिन अफ़सोस की बात है कि यह फिल्म उद्योग (कला और उद्योग दोनों ही दृष्टियों से) जो कई मायनों में महत्वपूर्ण है, हमारे बांग्लादेशमें अपनी जगह नहीं बना पाया.
खासकर पिछले दो दशकों में तो बहुत बुरा दौर रहा है.यह उद्योग सरकारी अनुदानों पर किसी तरह ज़िंदा था, मानो कोमा में हो.देश के सभी बड़े निर्देशक अनुदान की आस में बैठे रहते थे.
मैंने एक बार लिखा था, "कलाकार चाहते हैं कि पूंजीपति सिनेमा में दान करें, सरकार अनुदान दे; जबकि दूसरे देशों का फिल्म उद्योग उस देश की अर्थव्यवस्था में योगदान दे रहा है.
कुछ देशों में दूसरी या तीसरी सबसे बड़ी आय मनोरंजन माध्यम से होती है.बांग्लादेश में इसे अनुदानों से ज़िंदा रखा जा रहा है.जब सिनेमा को सरकारी प्रायोजन/अनुदानों से ज़िंदा रखने की कोशिश की जाती है, तो मान लेना चाहिए कि वह मर चुका है.
जबकि इस देश में सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में सिनेमा अपने दम पर ज़िंदा रहा.इसके लिए सरकारी अनुदान की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। सिनेमा लाखों लोगों की रोज़ी-रोटी का ज़रिया था."
क्या अब वह क्षमता कम हो गई है? मुझे लगता है कि नई संभावनाएँ जुड़ गई हैं.यह सच है कि सिनेमा हॉल कम हुए हैं, लेकिन यह भी सच है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म आ गए हैं.देश में ही नहीं, विदेशों से भी आय के अवसर पैदा हुए हैं.
मैं एक अपेक्षाकृत 'छोटे' उद्योग का उदाहरण देता हूँ.क्षेत्रफल की दृष्टि से केरल भारत का 14वाँ राज्य है.इस राज्य में लगभग साढ़े तीन करोड़ लोग ही रहते हैं.
मलयालम बोलने वालों की संख्या भी लगभग इतनी ही है.स्वाभाविक रूप से, जिस भाषा को 4 करोड़ से ज़्यादा लोग नहीं बोलते, उसका फ़िल्म उद्योग बहुत बड़ा नहीं माना जाता.
कम से कम बांग्लादेश एक स्वतंत्र देश है. केरल जैसा एक प्रांत नहीं, और अगर हम बंगाली को 30 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा मानें, तो उसे बांग्लादेश के फ़िल्म उद्योग से पीछे होना चाहिए.
लेकिन 2024 के पहले 6 महीनों में इसने 1 हज़ार करोड़ से ज़्यादा की कमाई की है.इसमें से लगभग 400 करोड़ विदेशों से कमाए हैं.इस उद्योग की मुख्य ताकत है फ़िल्म की कहानी.कहानी में विविधता.कहानी की मौलिकता.इसीलिए मलयालम उद्योग किसी की फ़िल्मों की नकल नहीं करता.बल्कि, उनकी फ़िल्मों का बॉलीवुड में, किसी बड़े उद्योग में रीमेक बनाया जाता है.
हमारे सिनेमा की सबसे बड़ी कमज़ोरी कहानी में है.'तांडव (2025)' 'जवान (2023)' का एक घटिया संस्करण क्यों लगती है? एक थ्रिलर देखने के बाद हमें किसी विदेशी फिल्म से समानताएँ क्यों नज़र आती हैं ? या अगर कहानी मौलिक होती, तो वह और भी कमज़ोर होती ?
मलयालम इंडस्ट्री की कई फिल्मों की कहानियाँ साहित्य से ली जाती हैं.लोकप्रिय कहानी-उपन्यासों का परदे पर रीमेक बनाया जाता है.उस लिहाज़ से रूपांतरण हम नहीं करते.
बहुत दिनों बाद, मैंने एक ऐसी फिल्म देखी जो किसी रूपांतरण से बेहतर थी—तनिम नूर की 'उत्सव (2025).क्रिसमस कैरल का एक बेहतरीन रूपांतरण.अच्छी कला नए अंदाज़ में, नई संभावनाओं के साथ वापस आती है.इसके लिए अच्छे कलाकारों की ज़रूरत होती है.कभी-कभी नए सृजन से ज़्यादा मुश्किल होता है मनोरंजन.इस सफलता का एक बेहतरीन उदाहरण मुनीर चौधरी का नाटक 'कबर' है.
उन्होंने इसे इतना संदर्भगत बना दिया है कि समझ ही नहीं आता कि यह नाटक अमेरिकी नाटककार इरविन शॉ द्वारा रचित 'बरी द डेड (1936)' का रूपांतरण है.
कब्र पूरी तरह से हमारा नाटक है.सिनेमा की दृष्टि से, शेक्सपियर के 'द कॉमेडी ऑफ़ एरर्स' का रूपांतरण भ्रांतिविलास (विद्यासागर के अनुवाद से) है.उत्तम और भानु बंद्योपाध्याय द्वारा अभिनीत कहानी देखकर कोई भी कहेगा कि यह शेक्सपियर की कहानी है.इन कृतियों को करने वाला हर व्यक्ति एक कुशल कलाकार है.
फिल्मों में कौन सी कहानियाँ कही जा सकती हैं? मैं इस सवाल के उलट एक सवाल पूछना चाहूँगा, कौन सी कहानियाँ नहीं कही जा सकतीं? फिल्मों में सभी कहानियाँ कही जा सकती हैं, शैली के आधार पर, वह थ्रिलर, एक्शन, ड्रामा, कॉमेडी, रोमांस, फंतासी या हॉरर हो सकती है.
एक थ्रिलर के कई उप-शैलियाँ होती हैं. साइको थ्रिलर, एक्शन थ्रिलर, क्राइम थ्रिलर, हॉरर थ्रिलरवगैरह.यानी कहानी कई तरह से कही जा सकती है. अलग-अलग तरह की कहानियाँ कही जा सकती हैं, लेकिन शर्त एक ही है.
कहानी नई होनी चाहिएया नए तरीके से कही जानी चाहिए.हालाँकि बांग्लादेशसिनेमा में कभी-कभार नई तरह की कहानियाँ देखने को मिलती हैं, लेकिन कथात्मक तकनीक में ज़्यादा नयापन नहीं दिखता.संवादों में एक और कमज़ोरी साफ़ दिखाई देती है.
मैंने एक दशक में रिलीज़ हुई कई उल्लेखनीय फ़िल्में देखी हैं. एक-दो को छोड़कर, ज़्यादातर फ़िल्मों के संवाद कमज़ोर हैं.कहानी अच्छी है, लेकिन याद रखने लायक कोई तीखा संवाद नहीं है.ऐसा इसलिए है क्योंकि सिनेमा खुद को साहित्य से अलग करने की कोशिश कर रहा है.
निर्देशक ख़ुद पटकथा लिख सकता है, सत्यजीत और असगर फ़रहादी जैसे विश्व-प्रसिद्ध फ़िल्मकारों ने ऐसा किया है.फिर, ज़रूरत पड़ने पर उन्होंने साहित्य का भी रुख़ किया है.
निर्देशक को यह समझना होगा कि उसकी कहानी और पटकथा कमज़ोर तो नहीं है.वह साल में एक फ़िल्म बना सकता है. उसे अपनी कहानी पर बनाएगा या किसी और की अच्छी कहानी पर, यह फ़ैसला सिर्फ़ उसका है.
हमारे दर्शकों की भी कुछ समस्याएँ हैं.दर्शक हॉलीवुड फ़िल्मों की हिंसा का आनंद लेते हैं.कोरियाई रिवेंज थ्रिलर 'ओल्डबॉय (2003)' देखते समय वे कहते हैं, "शानदार फ़िल्म है." उस समय वे "अनाचार, विकृत यौन संबंध" पर सवाल नहीं उठाते.
लेकिन अगर वे देश में किसी फ़िल्म में थोड़ी हिंसा देखते हैं, थोड़ा सा भी यौन दृश्य देखते हैं, तो उन्हें लगता है कि युवा बर्बाद हो जाएँगे.अगर कोई फ़िल्म नैतिकता नहीं सिखाती, तो उन्हें लगता है कि यह फ़िल्म सिनेमाघरों में नहीं दिखाई जानी चाहिए.
निजी जीवन में नैतिकता न रखने वाला यह देश सिनेमाघरों को बच्चों का स्कूल समझता है.यह भी एक तरह का संकट है.'माई शेल्फ़ एलन स्वपन (2023)' पर सवाल उठे थे.
पशु अधिकार कार्यकर्ताओं ने 'हवा (2022)' फिल्म में पक्षियों को खाने के आरोप में मुकदमा दायर किया था.उस समय मैंने लिखा था कि व्यक्तिगत सक्रियता और उद्योग जगत की सक्रियता अलग-अलग चीज़ें हैं.दर्शकों की समझ न पाने की ज़िम्मेदारी उद्योग जगत के लिए उठाना मुश्किल है.
दर्शकों द्वारा कला की भाषा न समझ पाना अक्सर उद्योग के लिए ख़तरा बन जाता है.यही बात नैतिकता के मुद्दे पर भी लागू होती है.सिनेमा का मुख्य काम लोगों का मनोरंजन करना है, चाहे वह सामाजिक कहानियों के ज़रिए हो या एक्शन थ्रिलर के ज़रिए.
उद्योग को बचाने के लिए हमें अच्छी कहानी वाली फ़िल्मों और व्यावसायिक फ़िल्मों की ज़रूरत है.हमने कला फ़िल्म नाम का एक बेतुकाशब्द गढ़ लिया है.कला या व्यावसायिक, असल में कोई मायने नहीं रखता.मेरे विचार से सिनेमा दो तरह का होता है - अच्छा सिनेमा, कमज़ोर सिनेमा.मैं कहानी पर ज़ोर देता हूँ क्योंकि कमज़ोर कहानी से कभी अच्छी फ़िल्म नहीं बन सकती.
कोई भी अच्छी फिल्मों को कास्ट/शैली से अलग नहीं करता है.अच्छी फिल्मों के लिए स्पॉइलर कोई चीज नहीं है.शुरुआत में, मैंने मलयालम उद्योग के बारे में बात की थी.
वहाँ से, कुछ वर्षों में, 'कुंबलंगी नाइट्स (2019)', 'होम (2021)', 'उस्ताद होटल (2012)' जैसी ड्रामा फिल्में; 'नयट्टू (2021)', 'दृश्यम (2013)', 'अंजाम पथिरा (2020)' जैसी थ्रिलर फिल्में; 'एला वीझा पुंछिरा (2022)' जैसी रिवेंज थ्रिलर; 'मंजुम्मेल बॉयज़ (2024)', 'आदुजीविथम: द गोट लाइफ (2024)' जैसी सर्वाइवल फिल्में; 'ब्रमयुगम 2024', 'रोमांचम (2023)' जैसी हॉरर फिल्में; हृदयम (2022), 'चार्ली (2015)' जैसी रोमांटिक फिल्में; 'लूसिफ़ेर (2019)' जैसी एक्शन फ़िल्में रिलीज़ हुई हैं.
मौलिक कहानियों वाली सभी अद्भुत फिल्में.हमारी इंडस्ट्री में भी पिछले कुछ सालों में 'हवा (2022)', 'परान (2022)', 'गुनीन (2022)', 'उमर (2024)', 'सुरंगा (2023)', 'दयालेर देश (2024)', 'श्यामा काव्य (2023)', 'जंगली (2025)', 'चक्कर 302' जैसी फिल्में आई हैं। (2025)', 'उत्सव (2025)', 'प्रिया मालती (2024)', 'नक्षीकांठा की भूमि (2024)', 'लाल मोर्गर झूंटी (2021)', 'एशा मर्डर (2025)' ने क्षमता की रोशनी दिखाई है.
बांग्लादेशी सिनेमा में एक दशक में काफ़ी बदलाव आया है.अब, अगर हम चाहते हैं कि बांग्लादेशी सिनेमा देश के बाहर भी दर्शकों को आकर्षित करे, तो हमें कुछ और सीमाओं को पार करना होगा.सबसे ज़रूरी है कि हम मौलिक कहानियों वाली फ़िल्में बनाएँ। अपनी तरह से कहानियाँ कहें.
नेटफ्लिक्स के इस दौर में कोई भी बॉलीवुड और हॉलीवुड की कमज़ोर नकल देखने नहीं बैठेगा. यह स्वाभाविक है.अस्सी और नब्बे के दशक में कई व्यावसायिक रूप से सफल फ़िल्में बॉलीवुड फ़िल्मों की नकल करके बनाई गईं.
लेकिन अब दर्शकों को बनाए रखने के लिए ऐसा नहीं किया जा सकता.उस ज़माने में बंगाली फ़िल्मों के दर्शकों का एक बड़ा हिस्सा, ज़िले से लेकर थाने तक, मज़दूर वर्ग का होता था.
लेकिन अब शहरी मध्यम वर्ग सिनेमा हॉल जाता है.ख़ासकर जो सिनेप्लेक्स जाते हैं, वे दस फ़िल्मों का 'कोलाज सिनेमा' देखने नहीं जाते.वे कहानी पर आधारित फ़िल्में देखना चाहते हैं और सोशल मीडिया व चैट में उन फ़िल्मों पर चर्चा भी करना चाहते हैं.'मनपुरा (2009)' से लेकर 'उत्सव (2025)' इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। कहानी पर आधारित फ़िल्में बनाने की चाहत रखने वालों के लिए यह सही समय है।.
हॉलीवुड, बॉलीवुड, कोरिया, चीन, जापान, तमिल-तेलुगु-मलयालम उद्योगों से प्रतिस्पर्धा का तो सवाल ही नहीं उठता.क्योंकि हमारी फिल्मों के लिए अभी तक ऐसा उद्योग नहीं बना है जो हर महीने विश्वस्तरीय फिल्में बना सके। हमारी कई सीमाएँ हैं.लेकिन यह भी सच है कि ईरान इन सीमाओं के बावजूद बेहतरीन फिल्में बना रहा है.
जफर पनाही, असगर फरहादी, अब्बास कियारोस्तामी जैसे विश्वस्तरीय फिल्म निर्माता मौजूद हैं.सीमित संसाधनों के बावजूद, उन्होंने दुनिया को असाधारण फिल्मों का तोहफा दिया है.
मैं विश्व इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि उनकी फिल्में ईरानी सीमाओं से परे हैं.1997 में, माजिद मजीदी की 'चिल्ड्रन ऑफ हेवन (1997)' को ऑस्कर में सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए नामांकित किया गया था.इतालवी उत्कृष्ट कृति 'लाइफ इज़ ब्यूटीफुल (1997)' से हारना भीएक तरह की जीत है.
फिर 2011 में, अमेरिका के साथ कूटनीतिक युद्ध के बीच, असगर फरहादी की 'अ सेपरेशन (2011)' ने अमेरिकी धरती पर सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म श्रेणी में ऑस्कर जीता.
2017 में, उन्होंने 'द सेल्समैन (2016)' के लिए भी ऑस्कर जीता, जिसने कान फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ कहानी वाली फिल्म का भी पुरस्कार जीता.एक अच्छी कहानी के साथ, सब कुछ संभव है, चाहे वह खचाखच भरा दर्शक वर्ग हो या घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान.
एक साहित्यिक कार्यकर्ता होने के नाते, मुझे फ़िल्म के बारे में बात करने का एकमात्र कारण यह है कि फ़िल्म के बिना, किसी भी देश में कोई भी अन्य कला रूप प्रगति नहीं कर सकता.यह कला का प्रमुख रूप है.अगर सिनेमा को सचमुच आगे बढ़ना है, तो बांग्लादेशी सिनेमा की नई यात्रा में सभी को भाग लेना होगा.इसलिए, एक फ़िल्म दर्शक के रूप में, मैंने कुछ विचार और धारणाएँ व्यक्त की हैं.
मुजफ्फर हुसैन: कथा लेखक