हिन्दू भाइयों का रिश्ता उतना ही पुराना है जितना इस्लाम का इतिहास

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] • 11 Months ago
इस्लामी शिक्षा में हिंदू बुद्धिजीवियों का योगदान
इस्लामी शिक्षा में हिंदू बुद्धिजीवियों का योगदान

 

wasayप्रो. अख़्तरुल वासे
 
इस्लाम से हिन्दू भाइयों का रिश्ता उतना ही पुराना है जितना खुद इस्लाम का इतिहास. इस बात के सबूत मौजूद हैं कि इस्लामिक युग की शुरुआत से ही भारत और मुसलमान निकट संपर्क में रहे हैं. यह संपर्क ऐसा नहीं था जो बाद में यूरोप और भारत का हुआ, बल्कि यह संपर्क ऐसा था जैसे एक ही घर के अलग-अलग सदस्यों के बीच में होता है.

भारत में इस्लाम के आगमन से पहले भी अरब व्यापारी और पर्यटक भारत आते थे. भारतीय उत्पादों की अरब में मांग रहती थी. अरब और भारत के बीच यह संबंध प्रागैतिहासिक काल से स्थापित है. इस संबंध के प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान भी मिलते हैं.
 
जब अरब के लोग मुसलमान हो गए उसके बाद भी वे हमेशा की तरह ही भारत आते रहे और भारत के लोग उनका बहुत सम्मान करते थे और उन्हें हर प्रकार की सुविधाएं प्रदान करते थे.. ये मुस्लिम व्यापारी बड़ी संख्या में भारत आते थे, यहां तक ​​कि तटीय शहरों में इनकी पूरी बस्तियां बस गई थीं.
 
मुस्लिम व्यापारी जब भी यहां आते थे तो भारत की जनता, यहां के राजाओं, यहां के औजारों, यहां की सभ्यता और संस्कृति की ख़ूब तारीफ़ करते थे. इसका स्पष्ट उदाहरण 8वीं, 9वीं और 10वीं शताब्दी के अरब यात्रा वृत्तांतों में देखा जा सकता है.
 
लेकिन आज का विषय हिंदुओं और मुसलमानों के बीच ऐतिहासिक रूप से घनिष्ठ संबंधों का वर्णन नहीं है, बल्कि आज हम इस्लाम, इस्लामी इतिहास, सभ्यता और भाषा के अध्ययन में हिंदू भाइयों की सेवाओं के विषय पर चर्चा करनी है. विशेष रूप से, इस क्षेत्र में उनकी शैक्षिक सेवाओं के बारे में परिचय कराना है.
 
इस्लाम के लिए हिन्दू भाइयों की सेवा की बात करें तो इसका इतिहास कमोबेश तेरह शताब्दियों तक फैला हुआ है. इस्लाम के आगमन के कमोबेश सौ साल बाद, हिंदू भाईयों ने इस्लाम की सेवा शुरू कर दी थी, जो आज भी जारी है. जाहिर है,
 
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इस पूरे कालखंड की समीक्षा एक सभा तो क्या, एक किताब में भी करना संभव नहीं है. इसलिए, यहाँ केवल इस विषय का परिचय ही कराना है.जब हम हिंदू विद्वानों द्वारा इस्लाम की सेवाओं के इतिहास को देखते हैं, तो सबसे पहले और सबसे प्रमुख व्यक्ति ब्रह्मगुप्त की तस्वीर हमारे सामने आती है.
 
ब्रह्मगुप्त संस्कृत के महान विद्वान थे. वह भारत से बग़दाद गये और ख़लीफ़ा मंसूर के दरबार में शामिल हो गए. वे पहले से ही फारसी जानते रहे होंगे, इसलिए कि हमारा देश उस समय वर्तमान अफगानिस्तान तक फैला हुआ था.
 
उन्होंने बगदाद में अरबी सीखी और एक अरब विद्वान की मदद से ब्रह्म-सिद्धांत का अरबी में अनुवाद किया. किताबों के एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद होते रहते हैं, लेकिन सांस्कृतिक दृष्टि से यह अनुवाद एतिहासिक साबित हुआ.
 
इस अनुवाद का मानव इतिहास पर गहरा और दूरगामी प्रभाव पड़ा. इस अनुवाद के माध्यम से अंक अर्थात् गिनती अरबी भाषा आई. इसीलिए अरब लोग गिनती को हिंदसा कहते हैं और अरबों के जरिए ये गिनती यूरोप गई और इसीलिए आज भी यूरोप में ये गिनती अरबी नंबरात कहलाते हैं.
 
इस पुस्तक के अनुवाद के बाद गणित की दुनिया में क्रांति आ गई. इसके माध्यम से ऐसे अंक खोजे गए जिनसे गणना की जा सके और उसी पुस्तक के माध्यम से शून्य भी निकाला गया. अरबों ने शून्य का प्रयोग कर गणित को बहुत ऊंचाइयां प्रदान कीं एवं बीजगणित जैसी कला का आविष्कार किया.
 
ब्रह्म-सिद्धांत के अनुवाद का एक और प्रभाव यह हुआ कि भारत से बड़ी संख्या में पंडित बगदाद जाने लगे और वहां विभिन्न विद्वतापूर्ण कार्यों में लग गए. बग़दाद में लगभग दो दर्जन ऐसे लोगों के नाम मिलते हैं जैसे सिंघल, सॉलेह बिन बहला, कनका, मनका आदि.  कुछ डॉक्टर ऐसे भी थे जिन्होंने भारतीय चिकित्सा पुस्तकों का अनुवाद भी किया.
 
बगदाद वह पहला केंद्र था जहां हिंदू भाइयों ने इस्लाम और मुसलमानों की बड़ी सेवा की. हालाँकि इस अवधि के दौरान अधिकांश संस्कृत पुस्तकों का अरबी में अनुवाद किया गया था परन्तु इल्म की दुनिया एक ख़ूबसूरत चमन है.
 
इसमें केवल एक फूल नहीं खिलता बल्कि जब वसंत आता है तो भिन्न-भिन्न प्रकार के फूल खिलते हैं. अतः यह निश्चित है कि अनुवाद के अतिरिक्त भी लेखन और शोध की एक श्रृंखला रही होगी.
इस्लाम की सेवा में हिंदू भाइयों का दूसरा प्रमुख युग कश्मीर की शैक्षणिक और सांस्कृतिक परंपरा का है.
 
कश्मीर में कई विद्वानों और पंडितों ने फारसी पुस्तकों का संस्कृत में अनुवाद किया. इन अनुवादों में प्रसिद्ध फारसी पुस्तक जुलेखा यूसुफ का अनुवाद बहुत प्रसिद्ध है. इसके अलावा इन अनुवादों से पहले राज तरगनी जैसी एक मशहूर पुस्तक लिखी गई थी, जिसमें इस्लामी इतिहास के संदर्भ भी हैं और पूरी किताब की लेखन शैली मुस्लिम युग की लेखन शैली को दर्शाती है.
 
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इसमें अनेक मुस्लिम राजाओं का भी उल्लेख मिलता है. ये सब दिल्ली सल्तनत की स्थापना से पहले की बातें हैं.दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद और विशेष रूप से फिरोज़ तुग़लक़ के शासनकाल से, हिंदुओं ने भी फारसी और अरबी सीखना शुरू किया और जल्द नक्ष हो गए.
 
उन्होंने फ़ारसी में पुस्तकें लिखना शुरू किया, फ़ारसी भाषा में कविता शुरू की, फ़ारसी कविता के अलावा, उन्होंने अपने हिंदी कविता में इस्लामी शिक्षाओं और विज्ञानों को जगह दी. भक्ति आंदोलन के कवि ज्यादातर इस्लामी शिक्षाओं से प्रभावित थे और उन्होंने इस्लामी शिक्षाओं, इस्लामी शब्दों और इस्लामी व्यक्तित्वों का इस्तेमाल किया एवं इसे अपने काव्य का विषय भी बनाया.
 
रैदास, गुरुनानक, बाद में तुलसीदास आदि के यहाँ इस तरह के बहुत से नमूने मौजूद हैं.मुग़ल काल तक आते-आते हिन्दू विद्वान इस्लामी शिक्षा, विशेषकर इतिहास, तज़कीर और फारसी साहित्य की रचना के ऐसे विशेषज्ञ हो गए थे कि उनकी कुछ पुस्तकें आज भी पाठ्यपुस्तकों के रूप में पढ़ाई जाती हैं,
 
जैसे चंद्रभान बरहमन की पुस्तक इंशा चंद्रभान और चहार चमन आदि.इस काल में चंद्रभान के अलावा बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी थे जो इस्लामी शिक्षा के विशेषज्ञ थे. उनकी मुस्लिम इतिहास पर पैनी नज़र थी और उन्होंने इन विषयों पर पुस्तकें लिखीं जो आज भी उपलब्ध हैं.
 
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ब्रिटिश युग के आगमन के साथ, इस्लामी शिक्षा के संबंध में हिंदुओं की सेवाओं का दायरा बहुत व्यापक हो गया था. मुग़ल काल में अधिकांश पुस्तकें इतिहास की ही होती थीं, लेकिन ब्रिटिश काल में इसका बहुत विकास हुआ और हिन्दुओं ने पवित्र क़ुरआन, सीरत-ए-तैयबा और अन्य विषयों पर भी लिखना शुरू कर दिया था.
 
मुग़ल काल के संबंध में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि मुहम्मद शाही काल में जयपुर के राजा सवाई जय सिंह ने खगोल विज्ञान पर एक पुस्तक लिखी थी. उसका नाम ज़ैज मुहम्मद शाही रखा गया. इसी तरह, उसने अपने दरबार में कई खगोलविदों को नियुक्त किया और दिल्ली और जयपुर में वेधशालाएँ बनवाईं जिन्हें जंतर मंतर के नाम से जाना जाता है.
 
(... जारी)

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज़) हैं.)