जाति जनगणना का अर्थशास्त्र और राजनीति

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 04-12-2025
The economics and politics of caste census
The economics and politics of caste census

 

डॉ विश्वम्भर नाथ प्रजापति

जाति जनगणना की बहस बहुत जोरों पर है। लेकिन उसके साथ-साथ उसके उद्देश्य और इरादों पर भी बात होनी चाहिए जिसकी बात दशकों से अंतिमपिछड़ा वर्ग कर रहा है। अतिम जाति जनगणना सन 1931 में ब्रिटिश भारत में हुई थी।बाद में काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग ने उसी जनगणना को आधार बना के पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की बात कही। मंडल आयोग के लागू होने तक कई राज्यों में उसी जाति जनगणना के आधार पर ओबीसी का वर्गीकरण भी हो चुका था।

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य और कई राज्यों में आज तक वर्गीकरण नहीं हुआl राजनीति में यादवों के वर्चस्व ने पिछड़े वर्ग की राजनीति को बहुत ही बुरी तरह से नुकसान पहुंचाया जहां पहले पिछड़े वर्ग की राजनीति का आशय ओबीसी की किसी भी जाति से था न की केवल यादव, जिसे जननायक कर्पूरी ठाकुर ने बखूबी स्थापित भी कर दिया।

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बाद में यादवों ने कांग्रेस के सहयोग से वर्गीय राजनीति को जातीय राजनीति में परिवर्तित कर दिया। कर्पूरी ठाकुर के राजनीतिक विजन को सिमटाने में यादव वर्चस्व वाली जातीय राजनीति ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।  इसी के चलते जननायक 1984 का समस्तीपुर लोकसभा का चुनाव हार गए ।

कांग्रेस जो इसके पहले तक बिहार की जातीय राजनीति में भूमिहार, कायस्थ और राजपूत को लेकर चल रही थी, पिछड़े वर्ग के राजनीतिक उभार को दबाने के लिए उसने यादवों को जातीय गोलबंदी करने के लिए प्रेरित किया ताकि पिछड़ा वर्ग की राजनीति को जातीय राजनीति बना के ख़त्म किया जा सके ।

बिहार में सन् 1984 के चुनाव में एक नया दौर शुरू हुआ। उत्तर भारत में पिछड़ा वर्ग की राजनीति को यादव जाति की राजनीति में तब्दील करने का श्रेय गजेन्द्र प्रसाद हिमाशुं (यादव) ने वैद्यनाथ मेहता ( कुशवाहा) का इस्तेमाल करके और कांग्रेस ने रामदेव राय (यादव ) को कर्पूरी ठाकुर के खड़ा खिलाफ करके किया।

यादवों ने पिछड़ों के नाम पर नहीं बल्कि जाति के नाम पर रामदेव राय के लिए रैली किया । कर्पूरी ठाकुर को दाव लगाकर और पिछड़े वर्ग की राजनीति की बलि देकर यादवों की जातीय वर्चस्व वाली राजनीति की इबारत लिखी गई ।

केंद्र सरकार द्वारा जाति जनगणना पुनः पिछड़ा और अति पिछड़ा के मुद्दे को धार दे सकता है। जाति जनगणना होने से यह महत्त्वपूर्ण है कि हम उस आंकड़ों का प्रयोग कैसे करेंगे। अगर मंडल कमीशन की तरह केवल उच्च पिछड़े वर्ग को लाभ पहुचना है तो इस जाति जनगणना से अति पिछड़े वर्गों (ईबीसी)  को कोई विशेष लाभ नहीं होगा।

अगर जाति जनगणना का उद्देश्य सभी वर्गों का उचित प्रतिनिधित्व और समानता लाना है तो यह न्यायोचित है। रोहिणी कमीशन को सरकार ने ठंडे बस्ते में डालकर अति पिछड़ों और पसमांदा को निराश किया है ।

अब देखना यह होगा कि केंद्र की वर्तमान राजग सरकार इस निराशा को दूर करती है या फिर और बढ़ा देती है। उच्च पिछड़े वर्ग को कल्पित डर है कि कही वह अपना आरक्षण खो न दे। वहीं अति पिछड़े वर्ग का दिवास्वप्न है कि उसे उचित प्रतिनिधित्व मिल जायेगा।

इसी खोने और पाने के बीच सत्ता और विपक्ष दोनों की राजनीति घूम रही है । राजनीतिक पार्टियाँ अब अति पिछड़े पर बात तो कर रही हैं लेकिन अपनी स्वयं की पार्टी के अन्दर जो बदलाव होना चाहिए उसको नहीं ला पा रही हैं । उनको सवर्णों के भय के साथ-साथ ओबीसी के दबंग जातियों से भी भय है। भयभीत सत्ता या विपक्ष दोनों ही लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिए नुकसानदेह होता है । 

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अगर हम जाति की सच्चाई को स्वीकार करते हैं तो अति पिछड़े वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा । ऐसे में संभव है कि कई पार्टियों के स्थापित वोट बैंक से प्रतिरोध भी झेलना पड़े लेकिन सामाजिक न्याय की भावना को ऊपर रखकर जननायक कर्पूरी ठाकुर जैसे कठोर निर्णय लेने होंगे।

केन्द्रीय राज्य मंत्री और अपना दल (एस) की अध्यक्ष श्रीमती अनुप्रिया पटेल का लगातार यह कहना कि कर्पूरी ठाकुर को वह पिछड़ों का सबसे बड़ा नेता मानती हैं, उनके राजनीतिक फलक को और बड़ा करता है कि वह अति पिछड़ों की चिंताओं से वह भलीभांति परिचित हैं।

ऐसे में अनुप्रिया पटेल का ओबीसी मंत्रालय की मांग इस बात को और पुख्ता करता है कि ओबीसी के भीतर बहुत सारे मसलें हैं और उनको हल करने के लिए ओबीसी मंत्रालय की जरुरत है । अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों के लिए स्वतंत्र मंत्रालय है लेकिन ओबीसी के लिए नहीं हैl

जाति जनगणना इस बात को और मजबूत करेगा कि ओबीसी मंत्रालय का गठन हो, ओबीसी और ईबीसी के लिए सही ढंग से पूरे देश में सामाजिक न्याय और विकास सुनिश्चित हो । अति पिछड़े वर्गों का सामाजिक उत्पीड़न बहुत ज्यादा है लेकिन इसको कभी गंभीरता से और ओबीसी के मुद्दे के तौर पर किसी ने लिया ही नहीं। अति पिछड़ों के लिए भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तर्ज पर उत्पीड़न निवारण अधिनियम बनाने की जरुरत है।

अलग मंत्रालय होने से अति पिछड़े के उत्पीड़न सम्बन्धी आकड़ों और समुचित परिवर्तनों की तरफ भी लोगों का ध्यान आकृष्ट होगा। देश की आधी से ज्यादा आबादी पिछड़े वर्ग की है लेकिन उसके मसलों को हल करने के लिए मंत्रालय ही नहीं है।

पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग का अभिन्न हिस्सा पसमांदा है । पसमांदा के मुद्दे बड़ी ही चालाकी से राजनीतिक पार्टियों द्वारा केवल मुस्लिम का मुद्दा बना दिया जाता है जिसका पसमांदा हमेशा से विरोध करता रहा है ।‘ पिछड़ा-पिछड़ा एक समान हिन्दू हो या मुसलमान’ तभी चरितार्थ होगा जब सरकार ओबीसी मंत्रालय का गठन करें । सन् 2024 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने भी अति पिछड़ों को रिझाने का प्रयोग किया जिसका उसे लाभ मिला और वह सबसे बड़ी पार्टी बनी उत्तर प्रदेश में बनी।

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विपक्षी पार्टियों में कांग्रेस ने पिछड़ा, अति पिछड़ा और पसमांदा का काकटेल बनाने की कोशिश कर रही है ताकि उसका फायदा वह सन्  2027 के उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में मिल सके। इसको भांपते हुए हाल ही में उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने अपना दल(एस) की मांग ‘आउटसोर्सिंग नौकरियों में आरक्षण’ को'उत्तर प्रदेश आउटसोर्सिंग सेवा निगम’ को बनाकर लागू कर दिया है। 

अपना दल (एस) के सामने कर्पूरी ठाकुर के आदर्शों पर चलते हुए अति पिछड़ों और पसमांदा को जोड़ने का सुनहरा अवसर है । इन्हीं अति पिछड़े वर्गों को एकजुट करके बिहार में नीतीश कुमार लगातार दसवीं बार मुख्यमंत्री बने हैं।

हालाँकि नरेन्द्र मोदी के केन्द्रीय नेतृत्व में और योगी आदित्य नाथ के उत्तर प्रदेश के नेतृत्व में कितना ताल-मेल बैठता है, उसी पर उत्तर प्रदेश और केंद्र की राजनीति निर्भर करेगी. ओबीसी मंत्रालय का गठन, रोहिणी कमीशन का लागू होना , अति पिछड़े वर्ग के लिए ओबीसी का वर्गीकरण यही कुछ मुद्दे है जो आने वाले समय में भाजपा के लिए सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे होंगे और जाति जनगणना उसी दिशा में उठाया गया सबसे महत्त्वपूर्ण कदम है.

(डॉ विश्वम्भर नाथ प्रजापति (पीएचडी-जेएनयू),  असिस्टेंट प्रोफ़ेसर(समाजशास्त्र), यूएनपीजी कॉलेज , पडरौना- कुशीनगर)