क़ुर्बानी का अज़ीम जज़्बा सिखाता है, ईद-उल-अज़हा

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 21-07-2021
क़ुर्बानी का अज़ीम जज़्बा सिखाता है, ईद-उल-अज़हा
क़ुर्बानी का अज़ीम जज़्बा सिखाता है, ईद-उल-अज़हा

 

आवाज विशेष । ईद-उल-अज़हा

वसीमा ख़ान

ईद-उल-अज़हा दीन-ए-इस्लाम का दूसरा सबसे बड़ा त्यौहार है. यह त्यौहार बकरा ईद, ईद-उल-अज़हा, ईदुज़्ज़ुहा, सुन्नत-ए-इब्राहीमी और ईदे क़ुर्बां के नाम से भी जाना जाता है. जिस तरह से ईदुल फितर रमज़ान की ख़ुशी में मनाया जाता है, ठीक उसी तरह से ईद-उल-अज़हा भी हज की ख़ुशी में मनाया जाता है.

ईद-उल-अज़हा, हर साल इस्लामी महीने ज़िल-हिज्ज यानी हज के महीने की दस तारीख़ को पड़ता है. इस्लाम में ज़िल-हिज्ज महीने की बड़ी मान्यता है. इस महीने के पहले दस दिनों में ही हज़रत आदम अलै. की दुआ कुबूल हुई. हज़रत इब्राहीम ने अल्लाह की राह में अपने प्यारे बेटे हज़रत इस्माईल की क़ुर्बानी पेश की. इसी अशरे (कालखंड) में इन दोनों हज़रात ने क़ाबा शरीफ़ की बुनियाद रखी. इन्हीं दिनों में हज़रत दाऊद अलै. को मग़फ़िरत (मोक्ष) अता की. बकरीद का चांद दस दिन पहले दिखता है. ईद-उल-अज़हा के दिन सभी मुस्लिम भाई सबसे पहले ईदगाह में जाकर ईद की ख़ास नमाज़ अदा करते हैं और उसके बाद अपने-अपने घरों में बकरे या भेड़ की क़ुर्बानी करते हैं.

यह पहली मर्तबा है, जब ईद-उल-अज़हा की नमाज़ ईदगाह और मस्ज़िद की बजाय घरों में ही होगी. स्थानीय प्रशासन की इजाज़त से कहीं पांच, तो कहीं उससे कुछ ज़्यादा लोग ईदगाह और मस्ज़िदों में नमाज़ पढ़ सकेंगे.

सिर्फ हमारे मुल्क के ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के मुसलमानों ने नोवेल कोरोना वायरस कोविड-19 महामारी की वजह से यह अहद किया है कि वे इस बार ईदगाह और मस्ज़िद की जगह अपने-अपने घरों में पाबंदगी से नमाज़ पढ़ेंगे. तमाम उलेमा, मुफ़्तियों और मज़हबी इदारों ने भी यही कहा है कि ईद-उल-अज़हा की नमाज़ अपने घर में ही पढ़ें. ताकि लोग कोरोना वायरस के संक्रमण से बचे रहें.

हजरत पैगम्बर मुहम्मद साहब के समय भी जब इस तरह की महामारी फैली,तो उन्होंने भी इससे बचने के लिए सारी उम्मत को दिशा-निर्देश दिए. उन्होंने फ़रमाया है,‘‘यदि कोई बीमारी आम हो रही हो, तो हमें नमाज़ अपने-अपने घरों में ही पढ़ना चाहिए.’’

हर त्यौहार के मनाए जाने के पीछे कोई न कोई वजह या वाक़िया होता है, वैसे ही ईद-उल-अज़हा के पीछे भी है. ईद-उल-अज़हा का वास्ता क़ुर्बानी से है. इस्लाम के एक पैगम्बर हज़रत इब्राहीम को ख़ुदा की तरफ से हुक्म हुआ कि यदि तुम मुझसे सच्ची मुहब्बत करते हो, तो अपनी सबसे ज़्यादा प्यारी चीज की क़ुर्बानी करो.

हज़रत इब्राहीम के लिए सबसे प्यारी चीज थी, उनका इकलौता बेटा हज़रत इस्माईल. लिहाजा हज़रत इब्राहीम, अल्लाह की राह में अपने प्यारे बेटे की क़ुर्बानी देने के लिए राज़ी हो गए. इधर बेटा इस्माईल भी खुशी-खुशी क़ुर्बान होने को तैयार हो गया. हज़रत इब्राहिम जब अपने बेटे को लेकर क़ुर्बानी देने जा रहे थे, तभी रास्ते में शैतान मिला और उसने कहा कि वह इस उम्र में क्यों अपने बेटे की क़ुर्बानी दे रहे हैं ? उसके मरने के बाद बुढ़ापे में कौन आपकी देखभाल करेगा ?

हज़रत इब्राहिम यह बात सुनकर सोच में पड़ गए और उनका क़ुर्बानी देने का मन बदलने लगा. लेकिन कुछ देर बाद वह संभले और क़ुर्बानी के लिए तैयार हो गए. हज़रत इब्राहिम को लगा कि क़ुर्बानी देते समय उनके जज़्बात आड़े आ सकते हैं, लिहाज़ा उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली. जैसे ही हज़रत इब्राहीम ने अपने बेटे हज़रत इस्माईल की गर्दन पर छुरी चलाई, उनकी जगह एक भेड़ क़ुर्बान हो गया.

ऐन क़ुर्बानी के वक्त ख़ुदा ने हज़रत इस्माईल को बचा लिया और हज़रत इब्राहीम की क़ुर्बानी भी क़ुबूल कर ली. ख़ुदा की ओर से यह महज़ एक इम्तिहान था, जिसमें पैगम्बर हज़रत इब्राहीम पूरी तरह से पास हुए. यह वाक़िया इस्लाम की तारीख़ में अज़ीम मिसाल बन गया. अपनी मुहब्बत, जज़्बात और एहसास को अल्लाह की ख़ुशी के लिये क़ुर्बान कर दो. तभी से हर साल इसी दिन, उस अज़ीम क़ुर्बानी की याद में मुसलमान भाई बकरा ईद मनाते हैं. अल्लाह की राह में अपने-अपने घरों के अंदर बकरे या भेड़ की क़ुर्बानी करते हैं.

क़ुर्बानी, ईद की नमाज़ के बाद से शुरू की जाकर ज़िल हिज्ज महीने की बारहवीं तारीख की शाम तक की जा सकती है. यानी जो शख़्स ईद के दिन क़ुर्बानी न कर पाए, तो वह दूसरे, तीसरे दिन भी क़ुर्बानी कर सकता है.

जिबह करने वाले जानवर की क़ुर्बानी के बाद, क़ुर्बानी के गोश्त के तीन हिस्से किये जाते हैं. एक हिस्सा अपने घर वालों के लिए, दूसरा हिस्सा रिश्तेदारों और दोस्त-अहबाब के लिए एवं तीसरा हिस्सा ग़रीबों और यतीमों में बांटा जाता है. ईद-उल-फ़ित्र पर जिस तरह से सदक़ा और जक़ात दी जाती है, ठीक उसी तरह से ईद-उल-अज़हा पर मुसलमान भाई क़ुर्बानी के गोश्त का एक हिस्सा ग़रीबों में तक़सीम करते हैं.

इस्लाम में हर त्यौहार पर ग़रीबों का ख़याल ज़रूर रखा जाता है. ताकि उनमें कमतरी का एहसास पैदा न हो. ग़रीब मुस्लिम भाई भी अच्छी तरह से त्यौहार मना सकें. ईद-उल-अज़हा, जहां सबको साथ लेकर चलने का पैग़ाम देता है, वहीं यह भी तालीम देता है कि इंसान को ख़ुदा का कहा मानने में, सच्चाई की राह में अपना सब कुछ क़ुर्बान (बलिदान) करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए. ईद-उल-अज़हा, मुस्लिम भाईयों को क़ुर्बानी की सीख देता है. यदि इस त्यौहार से उनके दिल में क़ुर्बानी का अज़ीम जज़्बा पैदा न हो, तो इस त्यौहार की क्या अहमियत है ?

 ईद-उल-अज़हा, मनाए जाने के पीछे हज की ख़ुशी भी है. हज, इस्लाम के पांच प्रमुख स्तम्भों में से एक है. हज हर उस मुसलमान पर फ़र्ज़ है, जिसके पास उसके सफ़र का ज़रूरी ख़र्च और बीबी-बच्चों के लिये इतना ख़र्च हो कि व उसके पीछे आराम से अपना गुज़र कर सकें. हज का फ़रीज़ा (पुनीत कर्त्तव्य) और अरकान मक्का शहर, मीना और अराफात के मैदान में जिल हिज्ज महीने की आठ से बारह तारीख तक पूरे किये जाते हैं. हज के इस फ़रीज़े को अदा करने के लिये दुनिया भर से मुसलमान सऊदी अरब के शहर मक्का और मदीना मुनव्वरा के लिये सफ़र करते हैं.

हमारे मुल्क से भी हजारों लोग इस फ़रीज़े को अदा करने के लिये मक्का और मदीना का सफ़र करते हैं. जिल हिज्ज महीने की दस तारीख को मक्का में हाज़ी लोग हज के तमाम अरकान पूरे करने के बाद मीना के मैदान में ख़ुदा की इबादत और क़ुर्बानी में मशगूल हो जाते हैं. 17 जुलाई से मुसलमानों का यह सबसे मुक़द्दस सफ़र शुरू हो गया है. सऊदी अरब के इतिहास में यह लगातार दूसरा मौका है, जब दुनिया के बाकी हिस्सों में रह रहे मुसलमानों को मक्का-मदीना में हज करने की इजाज़त नहीं मिली है. उन्हें मक्का-मदीना आने के लिए अगले साल का इंतजार करना होगा. कोरोना वायरस कोविड-19 की वजह से यह मुमकिन नहीं हो पा रहा है.

मध्य-पूर्व में सऊदी अरब, कोरोना महामारी से सबसे ज़्यादा प्रभावित मुल्कों में से एक है. सऊदी अरब में अब तक कोरोना संक्रमण के पांच लाख से ज़्यादा मामले और कोविड-19 से 8,000 मौतें दर्ज की गई हैं. ज़ाहिर है कि महामारी रोकने की कोशिशों के ही मद्देनज़र सऊदी अरब सरकार ने यह फ़ैसला किया है कि केवल सऊदी में रह रहे लोगों को ही इस बार हज पर जाने की इजाज़त दी जाएगी. इस साल महज़ 60 हज़ार लोग ही हज कर पाएँगे.

सऊदी अरब के भी वही लोग शामिल होंगे, जिन्हें कोरोना वैक्सीन की दोनों डोज लग चुकी हैं. इस फ़ैसले के बाद दुनिया भर में फैले मुसलमानों को काफी निराशा हुई है. लेकिन तरक़्क़ी पसंद और रौशन—ख़याल मुसलमान इस फ़ैसले की हिमायत कर रहे हैं. उनकी नज़र में कोरोना संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए यह ज़रूरी भी है. लोग तंदुरुस्त रहें, ज़िंदगी बाकी रही और दुनिया सलामत रहे, तो वे हज के इस फ़रीज़े को आइंदा भी अदा कर सकेंगे.