भारतीय वास्तविकता में धर्मनिरपेक्षता

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 24-03-2024
Secularism in the Indian reality
Secularism in the Indian reality

 

atirआतिर खान

स्वतंत्रता के बाद भारत में धर्मनिरपेक्षता को एक त्वरित समाधान के रूप में पेश किया गया था. यह भारतीय धर्मों के राजनीतिकरण पर बातचीत के लिए लाई गई एक संकट प्रबंधन अवधारणा थी. हालांकि, संविधान के 42वें संशोधन के लागू होने के बाद से ही यह कदम विवादास्पद रहा है. आज की बहस पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गई है.

भारतीय सवाल कर रहे हैं कि क्या भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता को शामिल करना वास्तव में एक आवश्यकता थी. इस अवधारणा के कार्यान्वयन के पक्ष में तर्क यह है कि भारत विविधता का देश है. वह इस अवधारणा को खत्म नहीं कर सकता, जो उसके नागरिकों के बीच समानता लाती है.

जो लोग इस प्रस्ताव के खिलाफ हैं, उनका कहना है कि यह अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहा और देश में धार्मिक विश्वासों के अनौपचारिक समायोजन की प्रणालियों को कमजोर कर दिया.

धार्मिक समझ और सहिष्णुता हजारों वर्षों से भारतीय भौगोलिक सीमाओं की पहचान रही है.

भारत में धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियां

धर्मनिरपेक्षता की शुरुआत ने सहिष्णुता और समझ की प्रणालियों को एक कानूनी तंत्र में औपचारिक रूप दिया, जिसे अंततः राजनीतिक व्यवस्था द्वारा समर्थित नहीं किया जा सका.

क्या हमारे नेताओं ने मूल अवधारणाओं को हटाकर उन अवधारणाओं को प्रतिस्थापित करके गलती की, जो भारतीय परिवेश में फिट नहीं बैठती थीं?

भारत सभ्यताओं का मिश्रण रहा है, इस घटना का एक कारण भौगोलिक स्थिति थी, जो विदेशियों के लिए एक गहन भारतीय अनुभव के लिए उपयुक्त थी.

उर्दू कवि इकबाल ने एक बार लिखा था कि समय के हर मोड़ के साथ, भारत की भावना हर शत्रुता के सामने अजेय रही है.

यह भी सत्य है कि भारतीय अपने दिन की शुरुआत धार्मिक आह्वान से करते हैं. हालांकि भारत एक ऐसा देश है, जो प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रकार की धार्मिक संवेदनाओं को समाहित करता रहा है.

इसीलिए संवैधानिक सभा की बहस के दौरान ‘सर्व धर्म समभाव’ पर चर्चा की गई. लोगों में बहुलवादी मूल्यों के बारे में एक मौन समझ थी.

लेकिन समय के साथ, हमने धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी अवधारणा को समावेशिता की हमारी मूल अवधारणाओं पर हावी होने दिया.

शायद राजनीतिक नेताओं के बीच एक विचार यह था कि एक विदेशी विचार अधिक आत्मविश्वास को प्रेरित करेगा, स्वीकार्य होगा और अशांत समय में प्रभावी माना जाएगा.

विडंबना यह है कि इस अवधारणा को पश्चिमी दुनिया से अपनाया गया था, एक ऐसा क्षेत्र जो भारत के विपरीत, बहुसंस्कृतिवाद के संपर्क में नहीं था, जो हजारों वर्षों से विविधता का गवाह रहा है.

भारत का विभाजन बुरी यादें लेकर आया और देश सांप्रदायिक दंगों से जूझा था. उस स्थिति में धर्मनिरपेक्षता की शुरुआत करना कुछ लोगों का मानना है कि यह एक बुद्धिमान निर्णय था. लेकिन कई लोग कहते हैं कि यह निर्णय की त्रुटि थी.

जो लोग इस कदम के खिलाफ हैं, वे अंतिम मुगल राजा बहादुर शाह जफर के एक उर्दू शेर के माध्यम से वर्तमान स्थिति का वर्णन करते हैं.

उन्होंने लिखा - ना खुदा ही मिला ना विसाल-ए-सनम, ना इधर के हुए ना उधर के हुए.

इतिहास हमें बताता है कि सार्वजनिक क्षेत्र में धर्म के निजीकरण के परिणामस्वरूप पश्चिमी दुनिया में धर्मनिरपेक्षता की परियोजना का जन्म हुआ. इसे उस समय प्रचलन मिला, जब यूरोप धार्मिकता से दूर होकर सांसारिक चीजों की ओर बढ़ रहा था.

तब से, पश्चिमी दुनिया में धार्मिकता कम हो रही है, भारत के बिल्कुल विपरीत, जहां लोगों के लिए आस्था सर्वोच्च है. भारतीयों के लिए धर्म उनके सामाजिक और निजी जीवन का केंद्र है.

जाहिर तौर पर समय के साथ-साथ धर्मनिरपेक्षता के प्रयोग और भारतीय लोगों की गहरी धार्मिक प्रकृति के बीच एक अलगाव स्वाभाविक था.

धर्मनिरपेक्षता की हमारी परिभाषा वह मॉडल नहीं थी, जिसे तुर्की ने कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में अपनाया था और हर पहलू में कानून की समानता लाई थी.

पिछले दो दशकों में तुर्की ने धर्मनिरपेक्षता के पश्चिमी मॉडल को खारिज कर दिया है. एर्दोगन के तहत तुर्की अपनी इस्लामी जड़ों की ओर लौट आया है.

भारत में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने कहा है - एक मूल अवधारणा के रूप में धर्मनिरपेक्षता को भारतीय अनुभव में दोहराया नहीं जा सकता है, जो बहुत गहराई से धार्मिक है.

उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को एक ऐसी प्रथा के रूप में वर्णित किया है जो ‘जियो और जीने दो’ के विचार को बढ़ावा देती है. हालांकि अवधारणा की परिभाषा अभी भी विकसित हो रही है.

भारत में धर्मनिरपेक्षता जैसी परियोजना की सफलता के लिए हिंदू-मुस्लिम संबंधों की कड़ी निगरानी और निरंतर पोषण की आवश्यकता थी.

विशेष रूप से विभाजन के बाद, लेकिन इस पहलू को हल्के में ले लिया गया और पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया, अन्य प्राथमिकताओं को प्राथमिकता दी गई.

स्वतंत्रता से पहले भी, भारतीय किसी भी धार्मिक संबद्धता के बावजूद अपनी पहचान की रक्षा के लिए दृढ़ रहे हैं. ऐसा करते समय छत्रपति शिवाजी महाराज को अपने मुस्लिम सैनिकों पर अटूट विश्वास था. उनकी सेना में 60 हजार से अधिक मुस्लिम सैनिक थे, जिनमें प्रमुख सैन्य पदों पर बैठे सैनिक भी शामिल थे.

धार्मिकता के बावजूद भारतीय ‘जियो और जीने दो’ के धर्म और ईमान से बंधे हुए थे, जिसने उन्हें समग्र एकता में बांध दिया.

यह भी एक तथ्य है कि भारत सजातीय समुदायों का देश नहीं है, जिससे राज्य के लिए धर्म से पूरी तरह से अलग होना असंभव हो जाता है.

भारत में बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के भीतर भी अल्पसंख्यकों के स्तरीकरण ने धर्मनिरपेक्षता के कार्यान्वयन को एक बहुत कठिन अनुभव बना दिया है. परिणामस्वरूप, धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को भारतीय आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलित किया गया है.

  • यह अनुसूचित जाति/जनजाति, पिछड़े समुदायों के लिए आरक्षण के प्रावधानों को समायोजित करने के लिए बनाया गया है.
  • हिन्दू मंदिर ट्रस्टों के प्रशासन पर सरकार का नियंत्रण.
  • व्यक्तिगत धार्मिक कानून और धर्म-आधारित सब्सिडी इसकी कुछ अन्य अनूठी विशेषताएं हैं.

अतः धर्मनिरपेक्षता की सच्ची भावना का कार्यान्वयन कभी भी भारतीय वास्तविकता नहीं बन सका.

यह महज एक रणनीति बनकर रह गई, जिसे कभी उपयुक्त सहायक ढांचा नहीं मिला. दशकों से अपवादों ने इस अवधारणा को कमजोर कर दिया है.

आजादी के बाद से भारत के लगभग हर राजनीतिक दल ने जन प्रतिनिधि अधिनियम 1951 का खुलेआम उल्लंघन किया है और जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगे हैं. भारत निर्वाचन आयोग में हजारों शिकायतें जमा हो गई हैं.

हालांकि, जन प्रतिनिधियों ने इफ्तार पार्टियों सहित धार्मिक प्रकृति के समारोहों में भाग लेने में संकोच नहीं किया. ये सब वोट बैंक की राजनीति के लिए हुआ.

सुविधा की राजनीति ने यह सुनिश्चित किया कि भारत की धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करना भारत के सर्वोच्च न्यायालय की जिम्मेदारी बन गई.

जबकि अमेरिका और अन्य देशों की अदालतों ने लेमन टेस्ट जैसे परीक्षणों को धर्मनिरपेक्षता के पैमाने के रूप में इस्तेमाल किया है, भारतीय अदालतें अभी भी धर्मनिरपेक्षता की एक परिभाषा खोजने के लिए संघर्ष कर रही हैं.

हम ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां जब कोई हिंदू आज के समाज में अपनी मान्यताओं के सुधार और उपलब्धियों के बारे में बात करता है, तो उसे सांप्रदायिक करार दिया जाता है.

जब वह ड्राइंग रूम में बातचीत के दौरान हिंदुओं के बीच धार्मिक सहिष्णुता की कमजोरी के बारे में आलोचना करते हैं, तो उनके अपने ही लोग उन्हें पागल करार देते हैं. इसी तरह, जब कोई मुसलमान अपनी पहचान रखता है, तो वह लोगों का ध्यान आकर्षित करता है या अपनी पहचान और धार्मिक प्रथाओं के प्रति सचेत होता है. जब वह अपने समुदाय के भीतर प्रतिगामी प्रथाओं की आलोचना करता है, तो उसके भाइयों द्वारा उसे बाहर कर दिया जाता है.

आज हमारी दुर्दशा को बहादुर शाह जफर के शब्दों में फिर से सबसे अच्छे तरीके से वर्णित किया जा सकता है. उन्होंने लिखा - बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो ना थी.

यह तथ्य कि आस्था को भारतीय चेतना से अलग नहीं किया जा सकता, धर्मनिरपेक्षता पर ड्राइंग रूम की बहस को दिलचस्प बनाता है. ऐसी चर्चाएं अक्सर किसी सार्थक संवाद के बजाय आक्रामक तर्क-वितर्क में बदल जाती हैं.

लोकतंत्र को धर्मनिरपेक्षता की चचेरी बहन कहा जाता है. लेकिन धर्मनिरपेक्षता को लेकर हमारे परस्पर विरोधी विचारों ने हमें एक ऐसे रुख पर ला दिया है, जहां हमारा लोकतंत्र वास्तव में सभी भारतीय समुदायों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है.

यह मन में एक विचार जगाता है कि शायद धर्मनिरपेक्षता का आयात करने के बजाय धार्मिक समझ और सहिष्णुता की अपनी मूल अवधारणाओं जैसे ‘सर्व धर्म समभाव’ पर भरोसा करना ज्यादा बेहतर होता.

भारत की सहिष्णुता की मूल अवधारणाएं

हमारे अपने ऋग्वेद ने इस विचार का प्रचार किया - एकम् सद्विप्राः बहुधा वदन्ति अग्निं यमन मातरिश्वनमहुः (आर.वी.1.164.46). इसका मतलब है कि सच्चाई एक है, विद्वान जन उसकी अलग-अलग तरह से देखते हैं.

भारत में सदैव बहुलवाद का प्रावधान रहा है. भारत की समावेशिता गुरु नानक, साईं बाबा, कबीर और बुल्ले शाह जैसे आध्यात्मिक प्रतीकों द्वारा रखी गई नींव से समृद्ध हुई.

रामचरितमानस में भगवान राम को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है  ‘सब नर कर हे परस्पर प्रीति’ (प्रत्येक व्यक्ति को एक-दूसरे के प्रति सम्मान रखना चाहिए). भारतीय मुसलमान कुरान में विश्वास करते हैं, जिसमें कहा गया है ‘ला इकराहा फिद्दीन’ (धर्म में कोई जबरदस्ती न हो).

ये दिशा सूचक यंत्र इतने चुंबकीय थे कि मुगल शासकों ने खुद को भारतीय सभ्यता की अंतर्निहित सद्भावना में डुबो दिया. भारतीय आध्यात्मिकता के बारे में उनकी समझ के दूरगामी परिणाम हुए, जिसने हमारी अनूठी सभ्यता की समन्वित समझ को जन्म दिया - दारा शिकोह इसका प्रतीक बन गया.

दारा शिकोह ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुवाद के माध्यम से दुनिया को हिंदू सभ्यता से परिचित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनका पथप्रदर्शक कार्य मजमा-उल-बहरीन (दो महासागरों का मिलन) हिंदू धर्म और इस्लाम की सामान्य जड़ों पर केंद्रित है.

अकबर जैसे सम्राटों ने राजनीति और धर्म के बीच अलगाव रखने की आवश्यकता को सबसे अच्छी तरह समझा. वह सभी भारतीय समुदायों को एक साथ लाने के बहुत इच्छुक थे. वह बहुलता की भारतीय अवधारणाओं से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने दीन-ए-इलाही नामक एक आध्यात्मिक कार्यक्रम विकसित किया, जिसका बाद में भारतीय मौलवियों ने कड़ा विरोध किया. यह सब भारत में धर्मनिरपेक्षता लाने से बहुत पहले हुआ था.

यहां तक कि अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर भी समग्र भारतीय संस्कृति के प्रतीक थे. वह उर्दू के शायर बने, एक ऐसी भाषा, जिसका जन्म भारत में हुआ था. मिर्जा गालिब उनके गुरु हुआ करते थे.

दरारें

मुगलों के कमजोर होने से भारतीय मुसलमानों में उपनिवेशवाद विरोधी भावनाओं को जन्म मिला और पैन-इस्लामवाद आंदोलन को बढ़ावा मिला.

पैन-इस्लामिक आंदोलन का प्रचार जमाल-अल-दीन-अल-अफगानी द्वारा किया गया था, जिन्होंने मुस्लिम भूमि पर औपनिवेशिक कब्जे का विरोध करने के लिए मुसलमानों के बीच एकता की मांग की थी. यह वह समय था, जब तुर्कों का ओटोमन साम्राज्य भी अवसान पर था और पश्चिमी शक्ति उनकी जमीनों पर कब्जा कर रही थी.

भारत में सर सैयद अहमद जैसे क्रांतिकारी आधुनिक शिक्षा के लाभों का प्रचार-प्रसार करने के लिए संघर्ष कर रहे थे. उन्होंने भारतीय मुसलमानों को राष्ट्रवादी विचारधारा में लाने के लिए अपने विचार को पारंपरिक इस्लामी अध्ययनों के साथ सबसे अच्छे तरीके से जोड़ने की कोशिश की.

जब मुस्लिम प्रभुत्व उपनिवेशवाद-विरोधी भावनाओं के धार्मिक उत्साह में कम हो रहा था, तब अंग्रेजों ने भारतीयों के लिए एक नई कहानी पेश की, यह बंधनकारी होने के बजाय अलगाववादी अधिक थी.

अंग्रेजों द्वारा मुस्लिम प्रभुत्व को कम करने और उसके बाद हिंदू धर्म के उदय के कारण भारतीय मुसलमानों में असुरक्षा पैदा हो गई. भारत के विभाजन के साथ अविश्वास की भावना और भी तीव्र हो गई.

यदि सुभाष चंद्र बोस जैसे नेता लंबे समय तक होते, तो वे अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को चुनौती देकर धार्मिक आधार पर भारत के विभाजन को टाल सकते थे. आजाद हिंद फौज में जनरल शाहनवाज खान और अन्य मुस्लिम नेता देशभक्ति के उत्साह में उनके बराबर के भागीदार थे.

बाद में राजनीतिक नेताओं ने मुसलमानों के बीच असुरक्षा और पीड़ित होने की भावना को शांत करने की कोशिश की. वे मुस्लिम समुदाय को विशेष ध्यान देने योग्य समझने लगे, जो वास्तव में उसे कभी नहीं मिला.

हालांकि, एक कहानी गढ़ी गई कि मुस्लिम समुदाय को अतिरिक्त ध्यान दिया गया और उसका तुष्टीकरण किया जा रहा है. इससे न तो देश और न ही मुस्लिम समुदाय को फायदा होने की बजाय, नुकसान ही ज्यादा हुआ.

इसने हिंदू विवेक को कमजोर कर दिया और मुसलमानों के लिए पक्षपात और अन्यता की भावना पैदा की. समय के साथ इस आख्यान का स्थान भारतीय मुस्लिम समुदाय में पीड़ित होने की भावना ने ले लिया.

महात्मा गांधी को बहुत पहले ही एहसास हो गया था कि भारत में लोग किसी भी कीमत पर धर्म को परिभाषित नहीं कर सकते हैं, इसलिए आपसी सह-अस्तित्व का एकमात्र समाधान वास्तविक धार्मिक समझ और सहिष्णुता के माध्यम से ही आ सकता है.

हालांकि वे स्वयं एक कट्टर हिंदू थे, उनके अंतिम शब्द थे ‘हे राम!’ वे स्वयं स्वामी विवेकानन्द और रामकृष्ण परमहंस की भांति धर्मनिरपेक्षता की अपेक्षा ‘सर्व धर्म समभाव’ में अधिक विश्वास रखते थे.

गांधी ने राधाकृष्णन सर्वपल्ली और मौलाना आजाद जैसे अन्य दिग्गजों के साथ, जो मदरसे से निकले थे, भारतीय परिवेश में पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता के भौतिकवादी संस्करण को अपनाने के नुकसान को रिकॉर्ड में रखा.

दुर्भाग्य से, कुछ पश्चिमी शिक्षित भारतीय अभिजात वर्ग द्वारा इस सबको नजरअंदाज कर दिया गया. उन्होंने स्वतंत्र भारत में धर्मनिरपेक्षता को सांसारिक चीजों से प्रेरित पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता को अपनाने की अपनी परियोजना के ट्रोजन हॉर्स के रूप में देखा. उनकी विकास योजना नैतिक आधार से रहित थी. इसका परिणाम विशुद्ध रूप से भौतिकवादी दृष्टिकोण के रूप में सामने आया.

आगे का रास्ता

धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को लागू करने में किए गए समझौतों की पृष्ठभूमि में भारतीय धर्म उन लोगों के लिए अधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं, जो समन्वयवाद के अपने गौरवशाली अतीत को भूल रहे हैं.

स्पष्ट रूप से आज धर्मनिरपेक्षता की वामपंथी परिभाषा बेमानी है, धर्मनिरपेक्षता की शास्त्रीय परिभाषा पर कायम है - राज्य और चर्च के बीच अलगाव अब काम नहीं करेगा.

धर्मनिरपेक्षता का प्रयोग सफल हुआ या असफल यह तो समय ही बता सकता है. लेकिन अभी तक भारतीय समुदाय इस परियोजना के बारे में गहराई से सोच रहे हैं, जिसे मान्यता से परे विकृत कर दिया गया है.

जैसे-जैसे भारतीयों की युवा पीढ़ी, प्राचीन ज्ञान की ओर लौटते हुए नई पहचान बना रही है, उन्हें यह समझना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब तुष्टिकरण नहीं हो सकता, पीड़ित होने की भावना उन्हें कहीं नहीं ले जाएगी. धर्मनिरपेक्षता का धार्मिकता से टकराव नहीं हो सकता. एकरूपता प्राप्त करने का प्रयास भी कोई समाधान नहीं है.

एक राष्ट्र के रूप में भारत को विविधता को संरक्षित करने और यह सुनिश्चित करने का एक तरीका खोजना होगा कि चुनावी लोकतंत्र वास्तव में प्रतिनिधि हो. बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि हम देश को कैसे चलाने का निर्णय लेते हैं - धर्म या मजहब के आधार पर.

वेदों का एक श्लोक - ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, जिसका अर्थ है ‘मुझे ज्ञान के माध्यम से, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो’ और रब्बी जिदनी इल्मा - कुरान के सूरह ताहा से एक दुआ करते हैं, जिसका अर्थ है ‘हे भगवान मेरे ज्ञान में वृद्धि करो’, ये मार्गदर्शन के लिए उपयुक्त हो सकता है.

( लेखक आवाज द वाॅयस के प्रधान संपादक हैं)