साकिब सलीम
हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया कि भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान में स्थित आतंकी ठिकानों पर किए गए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की जड़ें कश्मीर विवाद में हैं, जो कम से कम "हज़ार साल" पुराना है. या तो राष्ट्रपति के सलाहकार उन्हें गलत जानकारी दे रहे हैं या फिर वे भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास और भूगोल से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं. जो भी हो, पिछले आठ दशकों से पश्चिमी शक्तियाँ इसी भ्रामक नैरेटिव को दोहराती रही हैं.
राष्ट्रपति ट्रंप और पूरी दुनिया को यह समझना चाहिए कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) और पाकिस्तान में आतंकी शिविरों को निशाना बनाने का कारण ‘कश्मीर विवाद’ नहीं था.
भारत सरकार को यह कदम अपने नागरिकों के खिलाफ हो रहे आतंकवाद को रोकने के लिए उठाना पड़ा. पहलगाम में हुए आतंकी हमले में 26 भारतीय नागरिकों की हत्या की गई, जिनमें से अधिकतर हिंदू पुरुष थे—इस हमले ने इस प्रकार की सैन्य प्रतिक्रिया को उत्प्रेरित किया. भारत ने इन आतंकी ठिकानों पर हमले कश्मीर ‘विवाद’ को हल करने के लिए नहीं किए/
ये आतंकवादी भारत के किसी भी कोने में हमला कर सकते थे. अतीत में वे भारतीय संसद, रेलवे, दिल्ली और मुंबई के बाज़ारों और अन्य कई जगहों पर हमले कर सैकड़ों नागरिकों की जान ले चुके हैं. असली मुद्दा भविष्य में ऐसे हमलों से भारत की रक्षा करना है.
आतंकवाद और इसके विरुद्ध युद्ध के मामले में अमेरिका का रवैया हमेशा जॉर्ज ऑरवेल के कथन जैसा रहा है, “सभी जानवर बराबर हैं, लेकिन कुछ जानवर दूसरों से ज़्यादा बराबर हैं.”
जब अमेरिका आतंकियों पर कार्रवाई करता है, तो उसे “आतंक के खिलाफ युद्ध” कहा जाता है, लेकिन जब भारत आतंकवाद विरोधी अभियान चलाता है, तो उसे क्षेत्रीय विवाद में बदल दिया जाता है.
पश्चिमी शक्तियाँ दशकों से आतंकवाद के लिए पाकिस्तान को नहीं, बल्कि कश्मीर की ज़मीन को दोष देती आ रही हैं. राष्ट्रपति ट्रंप के आश्चर्य के लिए बता दें कि पाकिस्तान “हज़ार साल” पुराना नहीं बल्कि सिर्फ 78 साल पुराना देश है.
अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने ‘कबायली हमलावरों’ (आज के शब्दों में आतंकवादी) को कश्मीर पर हमला करने के लिए भेजा। भारत ने बार-बार पाकिस्तान से इन हमलावरों को रोकने को कहा, लेकिन जब कोई असर नहीं हुआ तो 31 दिसंबर 1947 को भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में एक ज्ञापन सौंपा. इस ज्ञापन में कहा गया.
“(a) इन हमलावरों को पाकिस्तान की ज़मीन से होकर जाने दिया जा रहा है;
(b) पाकिस्तान की ज़मीन को ऑपरेशन के अड्डे की तरह इस्तेमाल करने दिया जा रहा है;
(c) इनमें पाकिस्तानी नागरिक शामिल हैं;
(d) ये लोग पाकिस्तान से हथियार, ईंधन और रसद प्राप्त कर रहे हैं;
(e) और पाकिस्तान के अधिकारी इनका प्रशिक्षण, मार्गदर्शन और सहायता कर रहे हैं.”
संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता गोपालस्वामी अय्यंगार ने स्पष्ट रूप से कहा, “हमने परिषद के समक्ष एक सीधा और स्पष्ट मुद्दा रखा है. सबसे पहला कार्य हमलावरों को कश्मीर की ज़मीन से निकालना और लड़ाई को तत्काल रोकना है.”
भारत ने इस तथाकथित हमले में पाकिस्तानी सेना की भागीदारी के पुख़्ता सबूत पेश किए. लेकिन पाकिस्तान के प्रतिनिधि मोहम्मद ज़फरुल्ला ने कहा, “पाकिस्तान सरकार स्पष्ट रूप से इन हमलावरों को किसी प्रकार की मदद देने से इनकार करती है.”
UNSC ने क्या किया? उन्होंने हिंसा को रोकने के बजाय कश्मीर में जनमत संग्रह को प्राथमिकता बना लिया.1953 में प्रकाशित पुस्तक "Kashmir in Security Council" के अनुसार:“भारतीय प्रतिनिधि बार-बार इस बात पर ज़ोर देते रहे कि पाकिस्तान से इन कबायली हमलावरों को हटाना अत्यंत आवश्यक है.लेकिन सुरक्षा परिषद इस असली मुद्दे से मुंह मोड़ रही थी. ब्रिटेन और अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश इस सीधे मुद्दे का सामना नहीं करना चाहते थे, और पूरा मामला शक्ति राजनीति के अधीन कर दिया गया.”
इस पुस्तक में आगे कहा गया:“जब कश्मीर में लड़ाई चल रही हो, उस समय जनमत संग्रह की बात करना तो जैसे घोड़े के आगे गाड़ी लगाने जैसा था. सबसे पहला कार्य लड़ाई को रोकना होना चाहिए था। लेकिन यह साफ़-साफ़ मुद्दा दबा दिया गया.”
UNSC ने न केवल हिंसा को अनदेखा किया, बल्कि शेख़ अब्दुल्ला की सरकार को हटाकर ‘तटस्थ सरकार’ बनाने की बात की, और कश्मीर से भारतीय सेना को हटाने की कोशिश की. अब्दुल्ला ने इस पक्षपातपूर्ण रवैये को समझ लिया और अय्यंगार से मामले को वापस लेने को कहा.
वॉरेन ऑस्टिन और नोएल बेकर जैसे पश्चिमी प्रतिनिधि पाकिस्तान की संलिप्तता से इनकार करते रहे, जबकि असल चिंता उन्हें कश्मीर को रूस की सीमा पर एक भविष्य की सैन्य चौकी के रूप में देखना था..
भारत UNSC में इस विश्वास के साथ गया था कि वह पाकिस्तान से सीमा पार आतंकवाद को रोकने में मदद करेगा. लेकिन पश्चिमी देशों की ढुलमुल नीति ने बाद में यह साफ कर दिया कि वे कश्मीर को भारत-पाकिस्तान विवाद बना कर देखना चाहते हैं.
यह मुद्दा एक आतंकी हमले का था जिसमें कश्मीर के नागरिक मारे गए थे. उस समय कश्मीर की सबसे बड़ी पार्टी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, का नेतृत्व शेख़ अब्दुल्ला कर रहे थे और वही जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.
अब्दुल्ला के शब्दों में:“जब कबायली हमलावर श्रीनगर की ओर बढ़ रहे थे, तो राज्य को बचाने के लिए हमने एकमात्र विकल्प भारत से मदद माँगना समझा. नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रतिनिधि दिल्ली गए और भारत सरकार से मदद माँगी, लेकिन हमारे राज्य और भारत के बीच किसी संवैधानिक संबंध के अभाव में भारत तब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर सकता था... इसलिए जब जनता के प्रतिनिधियों ने भारत से संबंध की इच्छा व्यक्त की, तब भारत सरकार ने भी तत्परता दिखाई। संवैधानिक रूप से ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ हस्ताक्षर करना ज़रूरी था, जिसे महाराजा ने किया.”
और फिर भी पश्चिमी शक्तियों ने आतंक के इस सीधे मुद्दे को भारत-पाकिस्तान के क्षेत्रीय विवाद का रूप दे दिया.2025 में, यानी 78 साल बाद, वे आज भी यही करने की कोशिश कर रहे हैं.
राष्ट्रपति ट्रंप ने यह भी दावा किया कि भारत और पाकिस्तान के बीच यह विवाद “हज़ार साल पुराना” है. लेकिन पाकिस्तान का जन्म 14 अगस्त 1947 को हुआ. 1940 से पहले, जब मुस्लिम लीग ने विभाजन की माँग की, तब तक ‘पाकिस्तान’ नाम की कोई संकल्पना नहीं थी. अगर 1920 में आप कराची के किसी व्यक्ति से कहें कि ‘पाकिस्तान’ नाम का कोई देश होगा, तो वह आपको पागल समझेगा.
भारत का विवाद उस देश से कैसे हो सकता है जो सिर्फ 78 साल पहले बना?
हमारा कश्मीर को लेकर कोई विवाद नहीं है. यह भारत का अभिन्न हिस्सा है, जिसे पाकिस्तान केवल पश्चिमी शक्तियों के समर्थन से हथियाने की कोशिश करता रहा है. कश्मीरी जनता ने स्वयं, शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में, भारत से जुड़ने का निर्णय लिया था.
ट्रंप और उनके सलाहकारों को समझना चाहिए कि वर्तमान संघर्ष तब शुरू हुआ जब भारतीय सेना द्वारा आतंकियों पर की गई कार्रवाई के समर्थन में पाकिस्तानी सेना उतर आई। भारत का मकसद नियंत्रण रेखा को बदलना नहीं था, न ही वह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को ‘मुक्त’ करने निकला—हालाँकि नैतिक रूप से वह ऐसा कर सकता है.