अधिकार एवं न्याय की तलाश में फ़िलिस्तीन !

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 15-05-2022
 अधिकार एवं न्याय की तलाश में फ़िलिस्तीन !
अधिकार एवं न्याय की तलाश में फ़िलिस्तीन !

 

 
wasayप्रो. अख्तरुल वासे‎
 
रमज़ान के पवित्र दिनों के दौरान, इजरायली पुलिस ने आक्रामक रूप से अल-अक़्सा ‎मस्जिद के परिसर में प्रवेश कियी और फ़िलिस्तीनी नमाज़ियों के ख़िलाफ आंसू गैस और ‎रबर की गोलियों का अनुचित इस्तेमाल किया. जानकारों का मानना है कि हिंसा के इन कृ‎त्यों का कारण यहूदी त्योहार ‘‘पास ओवर’’ (जिसे पिशाख़ भी कहा जाता है) है, जो हिब्रू ‎कैलेंडर में निसान महीने की 15 तारीख़ को इजरायल की मिस्र से आज़ादी के उपलक्ष्य में ‎मनाया जाता है.

इस मौके पर बड़ी संख्या में यहूदी पश्चिमी दीवार की तरफ जाकर ‎फिलीस्तीनियों को भड़का रहे हैं. पश्चिमी दीवार पर यहूदियों का कदम स्टेटसको ‎‎(Statusquo) समझौते का उल्लंघन है, जिसके तहत वह केवल कुछ विशेष परिस्थितियों ‎में पश्चिमी दीवार तक जा सकते हैं ,लेकिन वहां उन्हें इबादत (पूजा) करने की इजाज़त नहीं ‎है.
 
हाल ही में पश्चिमी दीवार तक यहूदियों के जाने का उद्देश्य इबादत से ज़्यादा ‎मुसलमानों को उत्तेजित करना है क्योंकि वह पश्चिमी दीवार से आगे बढ़ते हुए अल-अक़्सा ‎मस्जिद तक आ जाते हैं.
 
वहां नमाज़ियों को उकसाते हैं और और इस तरह स्टेटसको ‎‎( Statusquo) का उल्लंघन ही नहीं करते बल्कि ऐसे उत्तेजना से भरे कृत्य करते हैं कि ‎उस पर जब फिलिस्तीनी विरोध करें तो इजरायली पुलिस अल-अक्सा मस्जिद में आक्रामक ‎‎रूप से प्रवेश कर जाए और फिलीस्तीनी नमाज़ियों, युवा, बूढ़े, बच्चों और महिलाओं के साथ ‎अनावश्यक रूप से बर्बरतापूर्वक अपना का निशाना बनाए.
 
बीते दिनों शुक्रवार (जुमे) की ‎नमाज़ के बीच इस तरह के हादसों में करीब 200 लोग घायल हो चुके हैं, जिनमें से कई ‎गंभीर घायलों को अस्पताल में भी दाखिल करना पड़ा है.
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स्थिति इतनी गंभीर और जटिल ‎है कि किसी भी क्षण युद्ध छिड़ सकता है. हालांकि, इजरायल और फिलीस्तीन दोनों पक्षों ‎के अधिकारियों ने किसी भी संभावित बड़े टकराव बचने की बात की है.
 
इज़राइल के बारे में यह एक कड़वा सच है कि जो यूरोपीय देश खुद को धर्मनिरपेक्ष ‎कहते हैं, वे धर्म के नाम पर स्थापित होने वाले इस यहूदी देश व इसके एजेण्डे के सबसे ‎बड़े समर्थक हैं. चाहे वह अमेरिका हो या यूरोप के अधिकांश देश, वे धर्म के नाम पर बनने ‎वाले दो देशों पाकिस्तान और इज़राइल के सबसे सगे बनते हैं जो 1947 और 1948 में ‎दुनिया के नक्शे पर उभरे थे.

दुनिया भर में मानवाधिकर के संबंध में चिंता करने वाले, ‎‎धार्मिक पक्षपात के नाम पर अधिकतर देशों की आलोचना करने वाले इन देशों को ‎इजरायल की क्रूरता और अन्याय और मानवाधिकारों का उल्लंघन शायद पता ही नहीं ‎चलता या फिर जान बूझकर आंखों पर पट्टी बांध लेते हैं.
 
हम यह अच्छी तरह से जानते ‎हैं और हमारी सहानुभूति उन यहूदियों के साथ है जिन्हें जर्मनी और उसके आस-पास के ‎देशों में नाज़ियों के द्वारा परेशानियों का सामना करना पड़ा और लाखों यहूदी या तो अपनी ‎जान गंवा बैठे या अपने प्रियजनों का ज़ख्म उन्हें सहन करना पड़ा या फिर देश छोड़ने के ‎लिए विवश कर दिया गया.
 
लेकिन पश्चिमी देशों की नीति यह है कि उसने अपने पापों का ‎प्रायश्चित स्वयं अदा करने के बजाय फ़िलिस्तीन के रहने वालों को, जिनमें सिर्फ़ मुसलमान ‎ही नहीं ईसाइ भी हैं, इस बात पर मजबूर कर दिया कि यहूदियों के खिलाफ नाज़ियों द्वारा ‎किए गए अत्याचारों की कीमत वह अदा करें. और यहूदियों को जो पश्चिम में असहाय ‎छोड़ दिए गए थे.
 
उन्हें इज़राइल नामक राज्य में बसने का मौक़ा दिया गया था. पश्चिमी ‎देशों की इस मक्कारी और धूर्तापूर्ण वाले दृष्टिकोण पर महात्मा गांधी ने बहुत पहले कहा ‎था कि ‘‘फ़िलिस्तीन अर्थात् वर्तमान इजरायल उसी तरह फ़िलिस्तीनियों का है जिस तरह ‎ब्रिटेन अंग्रज़ों का और फ्रांस फ्रांसीसियों का और यह ग़लत भी है और अमानवीय कृत्य भी ‎कि यहूदियों को अरबों पर थोपा जाए.’’
 
भारत ने फ़िलिस्तीनियों के संघर्ष का शुरू से ही ‎समर्थन किया है चाहे वह जवाहर लाल नेहरू हों या इंदिरा गांधी या फिर राजीव गांधी, ‎सभी फिलिस्तीनियों के पक्ष में ना केवल अडिग रहे बल्कि फ़िलिस्तीनी की आज़ादी के ‎आंदोलन (पीएलओ) के नेता और फिलिस्तीनियों के संघर्ष के प्रतीक यासिर अराफ़ात, इंदिरा ‎गांधी को अपनी बहन कहते थे.
 
अब जब जॉर्डन के शासक अब्दुल्ला इब्न अल-हुसैन, जो अल-अक्सा मस्जिद के ‎ट्रस्टी भी हैं, ने एक बार फिर दुनिया के न्याय चाहने वालों की अंतरात्मा को जगाने का ‎प्रयास किया है.
 
अरब लीग ने इजरायल के रवैये और नीतियों पर विशेष रूप से ‎अल-अक़्सा मस्जिद के अपमान की आलोचना की है एवं सऊदी अरब में ओआईसी की ‎बैठक इसी विषय पर बुलाई जा रही है, जहां स्पष्ट है कि फिलिस्तीनियों के साथ ‎सहानुभूति और इज़राइल द्वारा अल-अक्सा मस्जिद के अनादर व अपमान के खिलाफ एक ‎प्रस्ताव पारित किया जाएगा.
 
लेकिन क्या यह मौखिक टिप्पणी काफ़ी होगी ? क्या इस ‎बैठक से कुछ हासिल होने वाला है? निःसंदेह इसका जवाब दुर्भाग्यवश ना में है. हम भी ‎‎युद्ध नहीं चाहते हैं और बिना शर्त शांति के समर्थक हैं.
 
लेकिन हम इस तथ्य से इनकार ‎नहीं कर सकते कि दुनिया में तनाव तब तक कम नहीं होगा जब तक कि मध्य पूर्व में शांति ‎नहीं होती और मध्य पूर्व में शांति तब तक संभव नहीं है जब तक कि फ़िलिस्तीनियों को ‎उनका जायज़ हक और मुसलमानों का उनका पवित्र शहर यरुशलम उनको नहीं मिल ‎जाता.
 
इस तथ्य के साथ हम एक और सच्चाई को भी जानते हैं कि इस्लामी दुनिया की ‎तरफ से यह ज़िम्मेदारी उन देशों की है जो न केवल इजरायल के पड़ोसी हैं और जिन्होंने ‎अपने क्षेत्र में सद्भावना और शांति की स्थापना और अपने इलाके में तनाव को कम करने ‎के लिए इजरायल को न केवल मान्यता दी है बल्कि उसके साथ अच्छे संबंध भी बनाए हुए ‎हैं.
 
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उन्हें इजरायल को यह बताना होगा कि वह इजरायल के साथ बेहतर संबंध चाहते हैं ‎और उसे मान्यता देकर उन्होंने राजनयिक संबंधों को बहाल करके अपनी सद्भावना को ‎पहले ही साबित कर दिया है, लेकिन अब यह इजरायल की जिम्मेदारी है कि वह इन ‎मुस्लिम देशों की कोशिशों को नाकाम न होने दे.
 
उनकी साख और प्रतिष्ठा को न गिरने दे ‎और वह मुस्लिम देश जो अब इजरायल के प्रतिद्वंदी नहीं बल्कि सहयोगी हैं उन्हें इजरायल ‎के अमेरिकी और यूरोपीय समर्थकों को भी यह बताना चाहिए कि उन्होंने विश्व शांति के ‎लिए इजरायल को मान्यता दी है और अब कैंप डेविड एकॉर्ड समझौते के तहत दो-राज्य ‎‎योजना को व्यावहारिक रूप से लागू कर देना चाहिए.
 
यासिर अराफ़ात ने बंदूक़ छोड़ कर ‎ज़ैतून की शाखा को शांति की स्थापना के लिए जिस प्रकार थामा था, आज इजरायल को ‎उसका सम्मान करते हुए फिलिस्तीनियों को उनका अधिकार दे देने चाहिए ताकि ‎फ़िलिस्तीन एवं इजरायल के नागरिक एक अच्छे, न्यायप्रिय और शांतिपूर्ण पड़ोसी के रूप में ‎रह सकें.
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज़) हैं.)‎