एक ऐसी दुनिया में जहाँ आत्म-प्रचार का बोलबाला है, वहाँ रहमत तरीकेरे की विनम्रता एक शांत विद्रोह की तरह है। जब मैंने उनसे उनकी कहानी साझा करने के लिए संपर्क किया, तो वह झिझके, उनकी कोमल आवाज़ में ज़ोर था, "मैं अपने बारे में कैसे बात कर सकता हूँ? मैं कोई परिवर्तनकर्ता नहीं हूँ!" उन्हें यह समझाने में सामान्य से दुगना प्रयास लगा कि स्वयं के बारे में बात करना दूसरों को प्रेरित कर सकता है। फिर मैंने सोचा, कन्नड़ के इस विद्वान, कवि और विचारक की 30किताबें और असहिष्णुता के ख़िलाफ़ उनका निर्भीक रुख़ उनकी विनम्रता से कहीं अधिक ज़ोर से बोलते हैं—यह साबित करते हुए कि वह हमारी खंडित दुनिया में बहुलवाद को बुनने वाले एक मूक क्रांतिकारी हैं।आवाज द वाॅयस के खास सीरिज द चेंज मेकर्स के लिए रहमत तरीकेरे पर बेंगलरू से यह विस्तृत रिपोर्ट की है हमारी सहयोगी सानिया अंजुम ने।
रहमत तरीकेरे का जन्म 26अगस्त, 1959को कर्नाटक के तरीकेरे तालुक़ के छोटे से क़स्बे समतला में हुआ था। यह वह दुनिया थी जहाँ विविधता कोई अमूर्त अवधारणा नहीं थी, बल्कि एक जीती-जागती वास्तविकता थी।
उनके पिता, जो एक लुहार थे और भट्ठी की गर्मी में लोहा पीटते थे, और उनकी माँ, जो अरबी शिक्षिका थीं और भाषाई ज्ञान प्रदान करती थीं, ने उन्हें एक श्रमिक वर्ग के पड़ोस में पाला, जहाँ हिंदू, मुस्लिम और अन्य लोग एक साथ रहते थे। धर्मों, भाषाओं और संघर्षों का यह पिघलता हुआ बर्तन (Melting Pot) ही तरीकेरे के विश्व-दृष्टिकोण का निर्माणकर्ता बना।
"मैं एक ऐसी गली में पला-बढ़ा जहाँ सभी धर्मों के लोग एक साथ रहते थे.." वह याद करते हैं, यह स्मृति उनके जीवन भर की बहुलवाद की खोज का आधार बन गई।
यह कोई सामाजिक प्रयोग नहीं था; यह जीवन जीने का अपरिहार्य तरीक़ा था। इस माहौल ने उन्हें सिखाया कि अलग-अलग आस्थाएँ होने के बावजूद, मूलभूत मानवीय अनुभव—मेहनत, ख़ुशी, दुख—सभी को समान रूप से बाँटते हैं।
उनके पिता का उन्हें कन्नड़-माध्यम के स्कूल में दाखिला दिलाने का फ़ैसला एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, जिसने भाषा के लिए एक जुनून प्रज्वलित किया, जो उन्हें इसकी साहित्यिक और सांस्कृतिक सीमा को फिर से परिभाषित करने के लिए प्रेरित करेगा।
.jpg)
इन विनम्र जड़ों से, तरीकेरे की परिवर्तनकर्ता के रूप में यात्रा शुरू हुई, जो इस विश्वास पर टिकी थी कि एकता थोपी नहीं जाती, बल्कि साझा मानवीय अनुभवों के माध्यम से पोषित की जाती है। उन्होंने ज़मीनी स्तर पर देखा कि धर्मों की किताबें भले ही अलग हों, लेकिन जीवन की किताब एक ही है।
सांस्कृतिक कीमियागर का जागरण: संकट और समाधान की खोज
1992में बाबरी मस्जिद का विध्वंस तरीकेरे के लिए एक भूकंपीय झटका था, जो उस समय कन्नड़ साहित्य में डूबे हुए एक युवा विद्वान थे। इस घटना ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया और उन्होंने खुद से एक मर्मस्पर्शी सवाल पूछा: "मैंने सोचा, क्या इस धार्मिक बीमारी की कोई दवा है?" वह सवाल कर रहे थे कि क्या तर्कवाद (rationalism) और संवैधानिकता (constitutionalism) जैसी आधुनिक विचारधाराएँ सांप्रदायिक विभाजन को पूरी तरह से ठीक कर सकती हैं।
संकट के इस क्षण ने उनके शोध में एक गहरा बदलाव ला दिया। उन्होंने विशुद्ध रूप से शैक्षणिक (purely academic) गतिविधियों से मुँह मोड़ लिया और कर्नाटक के लोगों के जीवित दर्शनों में उतर गए,जिनमें सूफ़ीवाद (Sufism), नाथवाद (Nathism), शाक्तवाद (Shaktism) और लोक परंपराएँ (folk traditions) शामिल थीं। ये किताबों तक सीमित अमूर्त विचार नहीं थे, बल्कि जीवंत अभ्यास थे जिन्होंने सदियों से समुदायों को एकजुट किया था।
तरीकेरे का फ़ील्डवर्क उन्हें कर्नाटक के गाँवों तक ले गया, जहाँ उन्होंने उन द्विभाषी कवियों को सुना जो सीता और राम जैसे हिंदू देवताओं की कहानियों को हसन, हुसैन और फ़ातिमा जैसे इस्लामी हस्तियों के साथ गूँथते थे। उनके काम ने उजागर किया कि कर्नाटक में धार्मिक सह-अस्तित्व सिर्फ़ सहिष्णुता नहीं था, बल्कि एक सक्रिय सांस्कृतिक आदान-प्रदान था।
.jpg)
कर्नाटक का मोहर्रम: एक अनोखा संगम
तरीकेरे ने कर्नाटक में मोहर्रम को एक अद्वितीय सांस्कृतिक आदान-प्रदान के रूप में खोजा, जो अन्य राज्यों से अलग था, जहाँ समुदाय साझा अनुष्ठानों, संगीत और नृत्य के माध्यम से धार्मिक सीमाओं को पार करते थे।
उन्होंने पाया कि मोहर्रम के जुलूसों में न सिर्फ़ शिया और सुन्नी मुस्लिम भाग लेते थे, बल्कि हिंदू समुदाय भी हुसैन की शहादत में गहराई से शामिल होता था। इस भागीदारी में ताज़िया बनाना, मातम करना और ‘पंजों’ की पूजा करना शामिल था,जो एक ऐसा समागम था जिसने ग्रामीण कर्नाटक के सामाजिक ताने-बाने को मज़बूत किया। यह अन्वेषण उनके 30से अधिक पुस्तकों के संग्रह का दिल बन गया, जिनमें कर्नाटकादा सूफ़ीगळु, कर्नाटक का नाथवाद, कर्नाटक का शाक्तवाद और कर्नाटक का मोहर्रम शामिल हैं।
उनके काम का न सिर्फ़ ज़मीनी स्तर पर, बल्कि साहित्यिक दुनिया में भी ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा। इन पुस्तकों में से चार ने राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार अर्जित किए, और एक, कट्टियांछिना दारी (Kattiyanchina Daari), ने 2010 में प्रतिष्ठित केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार जीता। इन पुरस्कारों ने उनकी इस बात पर मुहर लगाई कि सच्चा साहित्य सिर्फ़ भाषा की सुंदरता नहीं है, बल्कि वह सांस्कृतिक सच्चाई है जिसे वह उजागर करता है।
शैक्षणिक श्रेष्ठता और कन्नड़ की आत्मा की पुनर्रचना
तरीकेरे की शैक्षणिक यात्रा उनकी सांस्कृतिक खोज जितनी ही उल्लेखनीय थी। शिमोगा के सह्याद्री कॉलेज से बी.ए. करने के बाद, उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय से कन्नड़ साहित्य में एम.ए. किया, जहाँ उन्होंने पहला स्थान और सात स्वर्ण पदक प्राप्त किए। यह उनकी बौद्धिक तीक्ष्णता का एक प्रारंभिक संकेत था।
उनकी पी.एच.डी. और उसके बाद कन्नड़ विश्वविद्यालय, हम्पी में एक प्रोफ़ेसर और डीन के रूप में उनकी भूमिका ने उन्हें कन्नड़ साहित्यिक अध्ययन में एक ट्रेलब्लेज़र के रूप में स्थापित किया। लेकिन तरीकेरे कोई 'हाथीदांत की मीनार' वाले शिक्षाविद् नहीं थे। उन्होंने पारंपरिक ढाँचों से परे जाकर इस क्षेत्र का विस्तार किया, सांस्कृतिक अध्ययन और अंतरधार्मिक विमर्श को पेश किया ताकि कर्नाटक की समन्वयात्मक (syncretic) परंपराओं का पता लगाया जा सके।
उनकी कक्षा एक नई सोच की भट्टी थी, जहाँ उन्होंने शोधकर्ताओं की एक पीढ़ी को हाशिये पर पड़ी आवाज़ों को बड़ा करने के लिए प्रशिक्षित किया—ये आवाज़ें थीं लोक कवियों की, सूफ़ी संतों की और नाथपंथी रहस्यवादियों की। साहित्यिक आलोचना को सांस्कृतिक विश्लेषण के साथ मिलाकर, उन्होंने दिखाया कि कन्नड़ साहित्य सिर्फ़ एक क्षेत्रीय कलाकृति नहीं है, बल्कि बहुलवादी विचारों की एक जीवंत, साँस लेती हुई टेपेस्ट्री है।
.jpg)
उनकी पुस्तक अमीरबाई कर्नाटकी उन कलाकारों के योगदान को श्रद्धांजलि देती है जो धार्मिक सीमाओं के बाहर खड़े होकर भी संस्कृति को समृद्ध करते रहे। तरीकेरे का मानना है कि साहित्य को सिर्फ़ उच्च-वर्गीय विमर्श तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि उसे समाज के हर धागे को अपने भीतर समाहित करना चाहिए,चाहे वह धागा श्रमिक का हो या संत का।
रहमत तरीकेरे एक ऐसे शिक्षक हैं जिन्होंने अपने छात्रों को डिग्री से ज़्यादा, अपने समाज को पढ़ने की दृष्टि दी। उनकी निस्वार्थ भावना, जिसने उन्हें शुरुआत में "परिवर्तनकर्ता" कहलाने से रोका था, वास्तव में उनकी सबसे बड़ी शक्ति है।
उन्होंने हमें दिखाया है कि घृणा और असहिष्णुता का इलाज कोई राजनीतिक फ़रमान नहीं, बल्कि अपने ही घर की मिट्टी में दबी सदियों पुरानी सांस्कृतिक एकता की विरासत को गहराई से समझना और उसे सम्मान देना है। उनके लेखन और शिक्षण के माध्यम से, तरीकेरे आज भी कर्नाटक की बहुलवादी आत्मा को बुन रहे हैं, हमें याद दिला रहे हैं कि भारत की ताक़त उसके विभाजनों में नहीं, बल्कि उसके संगमों में निहित है।