बिहार ने फिर सिखाया राजनीति का सच: जिसने नब्ज़ समझी वही सत्ता तक पहुँचा

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 27-11-2025
How the NDA changed and won in Bihar
How the NDA changed and won in Bihar

 

fडॉ. ख्वाज़ा इफ्तिखार अहमद

बिहार चुनाव इस बार एक बहुत बड़ा राजनीतिक सबक देकर गया है। आमतौर पर चुनावों से बहुत कुछ नहीं बदलता, बस कोई नेता सत्ता से बाहर हो जाता है या किसी को नया मौका मिल जाता है। लेकिन जीत से ज़्यादा हार बहुत कुछ बता देती है, और बिहार में यही हुआ। चुनाव से दो-तीन महीने पहले तक विपक्ष, खासकर राहुल गांधी, काफी आक्रामक थे। लेकिन नतीजे ने सबकुछ उलट दिया और विपक्ष अब अपनी हार के कारणों को समझने की कोशिश कर रहा है। इस बीच नितीश कुमार, जो जेपी आंदोलन और लोहियावादी राजनीति से निकले पुराने नेता हैं, अपनी उम्र, गिरती सेहत और याददाश्त कमज़ोर होने की खबरों के बावजूद 10वीं बार मुख्यमंत्री बनकर आए हैं।

उन्होंने 72 रैलियाँ करके अपना चुनाव अभियान पूरी ताकत से चलाया और NDA को जीत तक पहुँचाया। सबसे बड़ा सवाल यह था कि 70 साल से ऊपर का एक नेता, जो कई बार गठबंधन बदलने के लिए भी जाना जाता है, कैसे इतनी बड़ी जीत ला सकता है जबकि विपक्ष के सामने युवा नेता थे?

Despite Nitish Kumar changing alliances, his grip on Bihar's politics is firm, while PM Narendra Modi-led BJP is balancing to keep the "double-engine" narrative afloat. (PTI Images)

इसका जवाब बहुत साफ है,बिहार को समझने वाला ही बिहार की राजनीति जीत सकता है। बिहार भले देश के सबसे गरीब राज्यों में गिना जाता है, लेकिन यहाँ के लोग राजनीति के मामले में सबसे ज़्यादा जागरूक होते हैं। वे जाति, समाजिक समीकरण और स्थानीय मुद्दों को बहुत गहराई से समझते हैं। कोई भी गठबंधन या नेता तभी स्वीकार होता है जब वह इन बातों को सही तरीके से साध ले।

विपक्ष से सबसे बड़ी गलती यही हुई कि उन्होंने बिहार की असल राजनीति को समझने के बजाय “वोट चोरी” जैसे मुद्दे पर सारा जोर लगा दिया। कांग्रेस और RJD ने दावा किया कि चुनाव आयोग की वोटर लिस्ट की विशेष जांच (SIR) मुसलमानों के नाम काटकर चुनाव NDA के लिए आसान बना देगी।

उन्होंने “वोटर अधिकार यात्रा” निकालकर लोगों को डराने की कोशिश की। लेकिन जब SIR पूरा हुआ तो पता चला कि 68 लाख नाम हटे और 24 लाख नए जोड़े गए, और यह प्रक्रिया पूरी तरह सामान्य थी। न राहुल गांधी और न तेजस्वी यादव जमीन पर उन लोगों के बीच दिखाई दिए जिनके नाम हटे थे। बल्कि राहुल गांधी दिल्ली में फोटो खिंचवाकर अपने अभियान को आगे बढ़ाते रहे। धीरे–धीरे यह पूरा मुद्दा कमजोर पड़ गया और लोगों में इसका कोई असर नहीं हुआ।

चुनाव नतीजों से भी साफ हो गया कि SIR किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं था। जहाँ सबसे ज़्यादा नाम हटे, उन पाँच सीटों में से चार NDA ने जीतीं। मुस्लिम बहुल किशनगंज जैसी सीट पर भी कांग्रेस जीत गई। इससे साबित हो गया कि वोट चोरी वाला मुद्दा विपक्ष की रणनीति को कमजोर कर गया।

दूसरी बड़ी गलती विपक्ष की यह रही कि वह सीटों के बंटवारे पर चुनाव के आखिरी दिन तक भी फैसला नहीं कर सका। यह उनकी तैयारी की कमी को दिखाता है। वहीं NDA ने समय रहते अपनी पूरी तैयारी कर रखी थी। बड़ी बात यह रही कि भाजपा ने अपने वरिष्ठ नेताओं को भी टिकट नहीं दिया और उन्होंने इसे विरोध का मुद्दा नहीं बनाया। HAM-S और LJP(RV) जैसे NDA के साथी दल भी पूरी तरह साथ खड़े रहे।

इस एकजुटता ने NDA को मजबूत किया और विपक्ष को कमजोर कर दिया। इसके अलावा महिलाओं का समर्थन NDA की सबसे बड़ी ताकत बना। नितीश कुमार ने अपने पंद्रह साल के शासन में महिलाओं के लिए कई योजनाएँ चलाईं,पंचायतों और नगर निकायों में 50% आरक्षण, शराबबंदी, लड़कियों के लिए साइकिल और सेनेटरी पैड योजना, स्कूलों में छात्राओं की मदद और घर–घर बिजली, सड़क और पानी जैसी मूल सुविधाएँ। इन सबके कारण महिलाएँ लगातार नितीश के साथ खड़ी रहीं।

2015 और 2020 के चुनावों में महिलाओं ने पुरुषों से ज़्यादा वोट डाले। 2025 चुनाव के पहले नितीश सरकार ने 75,000 महिलाओं को 10–10 हजार रुपये दिए ताकि वे छोटा व्यवसाय शुरू कर सकें। विपक्ष ने इसे वोट खरीदना बताया, लेकिन महिलाएँ इसे अपने जीवन में सुधार की दिशा में बड़ा कदम मानकर नितीश के साथ गईं।

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बिहार की राजनीति का सबसे बड़ा आधार जातीय समीकरण है। नितीश कुमार ने इसे बखूबी साधा। उनका “लव-कुश” फॉर्मूला,कुर्मी और कोयरी समाज का गठबंधन,पहले से ही मजबूत है। इस चुनाव में 24 कोयरी और 14 कुर्मी विधायक जीते और लगभग सभी NDA से थे। NDA को OBC वोटों में लगभग 10% अधिक समर्थन मिला। ऊपरी जातियाँ-राजपूत, ब्राह्मण और भूमिहार,जो कुल मिलाकर केवल लगभग 10% आबादी हैं, लेकिन राजनीतिक रूप से बहुत प्रभावशाली मानी जाती हैं, उन्होंने भी खुलकर NDA को समर्थन दिया। इस चुनाव में 25 भू

मिहार, 72 ऊपरी जाति के विधायक चुने गए और ब्राह्मणों ने 82%, भूमिहारों ने 74% और राजपूत–कायस्थों ने लगभग 77% NDA को वोट दिए। दलित और महादलित वोट भी NDA के साथ गए।

चौंकाने वाली बात यह रही कि NDA ने मुस्लिम बहुल इलाकों में भी अच्छा प्रदर्शन किया। बिहार की 32 मुस्लिम बहुल सीटों में से 21 NDA ने जीतीं। AIMIM ने 5 जीतीं और कांग्रेस ने सीमांचल की 3 सीटें जीत लीं। इससे स्पष्ट होता है कि मुसलमानों को डराने वाली राजनीति असरदार नहीं रही। बिहार ने फिर साबित किया कि यहाँ के लोग नारेबाज़ी या अफवाहों से नहीं, बल्कि जातीय संतुलन, स्थानीय जरूरतों और भरोसेमंद नेतृत्व के आधार पर वोट देते हैं।

आखिर में यही कहा जा सकता है कि बिहार की राजनीति की लिखावट बहुत साफ है,जो इसे पढ़ लेता है वह सत्ता में बना रहता है। जो इसे नजरअंदाज कर देता है, वह राजनीतिक मैदान से बाहर हो जाता है। इस चुनाव में NDA ने बिहार की नब्ज़ पहचानी और विपक्ष इसे समझने में नाकाम रहा, इसलिए नतीजे भी उसी दिशा में आए।

( ख्वाजा इफ़्तेखा वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं)