इस्लामी न्याय व्यवस्था: प्रतिशोध नहीं, पुनर्स्थापन की राह

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 08-08-2025
Islamic justice system: A path to restoration, not retribution
Islamic justice system: A path to restoration, not retribution

 

– ए. फैज़ुर रहमान

यमन में मलयाली नर्स निमिषा प्रिया का मामला मुस्लिम देशों की प्रतिशोधात्मक न्याय प्रणाली की कानूनी और नैतिक पेचीदगियों को बेनकाब करता है. 2017 से जेल में बंद निमिषा पर अपने व्यावसायिक साझेदार, तलाल अब्दो महदी की हत्या का आरोप है. हालाँकि नवंबर 2023 में हूती सुप्रीम पॉलिटिकल काउंसिल ने उनकी अपील खारिज कर दी थी, लेकिन अपील कोर्ट ने शरिया कानून के अंतर्गत "दियाह" (रक्त-धन) के ज़रिये क्षमादान की संभावना खुली रखी.

कुरान में वर्णित दियाह (4:92) की अवधारणा इस्लाम की न्याय व्यवस्था की जड़ में है. यहाँ कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति भूलवश किसी अन्य मोमिन की हत्या कर देता है, तो उसे एक मोमिन गुलाम को आज़ाद करना होगा और मृतक के परिवार को मुआवज़ा देना होगा. साथ ही कुरान में क़िसास (कानूनी प्रतिशोध) की भी व्यवस्था है, परंतु उसका उद्देश्य प्रतिशोध नहीं, बल्कि समाज में जीवन की रक्षा हेतु निवारक चेतावनी है (2:178-179, 5:45).

यह समझना अनिवार्य है कि कुरान की अधिकतर शिक्षाएँ प्रतिशोध को प्रोत्साहित नहीं करतीं; वे पुनर्स्थापनात्मक न्याय (restorative justice) की ओर इशारा करती हैं, जिसमें अपराध से उपजे संकट का समाधान संवाद, मुआवज़ा, और क्षमा के ज़रिये ढूँढा जाता है.

इस्लाम से पहले भी प्रतिशोध और मुआवज़ा आधारित प्रणालियाँ हिब्रू बाइबिल (निर्गमन 21:12-36) और सुमेरियन-बेबीलोनियन कानूनों में मौजूद थीं, जहाँ अपराधी का भाग्य अक्सर पीड़ित के उत्तराधिकारियों के निर्णय पर निर्भर करता था.

कुरान ने इस प्रतिशोधात्मक मानसिकता में एक मूलभूत परिवर्तन प्रस्तुत किया. 2:178 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पीड़ित के उत्तराधिकारी, यदि चाहें, तो हत्यारे को क्षमा कर सकते हैं – और ऐसा करना न केवल मानवीय होगा, बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी उन्हें ऊँचाई देगा। 5:45 में यही बात दोहराई गई: “जो कोई क्षमा करता है, उसके लिए यह प्रायश्चित (कफ़्फ़ारा) बनता है.”

यह दृष्टिकोण कुरान के नैतिक मूल्यों के अनुरूप है, जिसमें ईश्वर को "अर-रहमान" (अत्यंत दयालु) और "अर-रहीम" (अत्यंत करुणामय) बताया गया है. सूरह 64:14 और अन्य अनेक आयतों में क्षमा और करुणा को सर्वोच्च मूल्य माना गया है. पैगंबर मुहम्मद (स.अ.) ने भी अबू दाऊद की एक हदीस में मुसलमानों को ज़मीन पर दया बरतने की सीख दी, ताकि स्वर्ग से भी उन पर दया हो.

निमिषा प्रिया का मामला: कुरानिक दृष्टिकोण से मूल्यांकन

कुरान में 4:92 में यह स्पष्ट किया गया है कि यदि हत्या पूर्व-नियोजित द्वेष से नहीं की गई हो – यानी अगर यह ‘क़त्ल ख़ता’ (ग़लती से हत्या) हो – तो मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है; केवल दियाह देना होता है.मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, निमिषा ने महदी को बेहोश करने का प्रयास केवल अपना पासपोर्ट वापस पाने के लिए किया था, जिसे वह अवैध रूप से रोक कर रखे हुए था.

यदि यह साबित किया जा सके कि हत्या का इरादा नहीं था और मौत एक दवा के ओवरडोज़ से हुई, तो कुरानिक सिद्धांतों के अनुसार यह ‘ग़लती से हुई हत्या’ की श्रेणी में आता है और ऐसे में पीड़ित परिवार मृत्युदंड की माँग नहीं कर सकता.

इसके अतिरिक्त, यदि महदी स्वयं आपराधिक पृष्ठभूमि वाला था, जैसा कि कुछ रिपोर्टों में दावा किया गया है, तो उसकी पूर्ण निर्दोषता भी प्रश्न के घेरे में आ सकती है।

इस्लामी न्याय की मूल भावना से विचलन

दुर्भाग्य से, आज के अधिकांश मुस्लिम समाजों में कुरानिक न्याय की जगह सांप्रदायिक न्यायशास्त्र (sectarian jurisprudence) ने ले ली है. इस्लाम को एक नैतिक व्यवस्था के रूप में नहीं, बल्कि एक पितृसत्तात्मक और हठधर्मी धार्मिक अनुशासन के रूप में देखा जाने लगा है, जहाँ न्याय नहीं, सत्ता और नियंत्रण का बोलबाला है.

इस विकृति की जड़ें पैगंबर के बाद के कालखंड में धर्मशास्त्रियों और शासक वर्ग के बीच बने गठबंधन में हैं – शासकों को धार्मिक वैधता चाहिए थी, और धर्मशास्त्रियों को सामाजिक नियंत्रण। नतीजतन, इस्लाम का मूल कुरानिक संदेश – जो तर्क, करुणा और न्याय पर आधारित था – एक कठोर मज़हबी ढाँचे में ढल गया.

इस परिवर्तन ने इस्लामी इतिहास के सबसे गंभीर संकटों में से एक को जन्म दिया – और यह संकट आज भी सुलझा नहीं है. विशेष रूप से आपराधिक कानून के क्षेत्र में, इस परिवर्तन का प्रभाव सबसे तीव्र रूप से दिखाई देता है, जहाँ इस्लाम को एक कठोर और अमानवीय धर्म के रूप में प्रस्तुत किया जाता है – जबकि कुरान इसका विपरीत संदेश देता है.

यदि आज के मुस्लिम धर्मशास्त्री वास्तव में मानते हैं कि इस्लामी ईश्वर दयालु और क्षमाशील है, तो उन्हें चाहिए कि वे कुरान के करुणामय और न्यायपरक सिद्धांतों को फिर से अपनाएँ – और इस्लाम को 'दीन' (नैतिक जीवन पद्धति) की उसकी मूल स्थिति में लौटाएँ, न कि केवल एक 'मज़हब' (अनुशासनात्मक धर्म) के रूप में बाँधें।

लेखक परिचय:

ए. फैज़ुर रहमान, चेन्नई स्थित Islamic Forum for the Promotion of Moderate Thought के महासचिव हैं।
ईमेल: [email protected]
एक्स: @FaizEngineer

नोटः यह लेख द हिंदू में प्रकाशित हो चुका है.