अब्दुल्लाह मंसूर
बिहार विधानसभा 2025 के पहले चरण ने 'वोट बैंक' की राजनीति के सारे पुराने समीकरणों को ध्वस्त कर दिया है। 6 नवंबर को 121 सीटों पर हुआ अभूतपूर्व मतदान, विशेषकर पसमांदा बहुल इलाकों में उमड़ा हुजूम, महज़ वोट नहीं बल्कि दशकों से दबी एक आवाज़ का मुखर 'गेम-चेंज' ऐलान है। यह सिर्फ आँकड़ा नहीं, बल्कि अपनी हिस्सेदारी और सम्मान के लिए पसमांदा समाज का बढ़ता हुआ जोश है।
अब जब 11 नवंबर को 122 सीटों पर दूसरे चरण का रण तैयार है, तो यह उत्साह और भी गहरा गया है। बिहार की सियासी ज़मीन हमेशा से अद्वितीय रही है, यहाँ सामाजिक न्याय की लड़ाई सिर्फ नारों में नहीं, बल्कि राजनीतिक अस्मिता को चुनौती देते हुए लड़ी गई है।
यही वजह है कि पसमांदा समुदाय का मुद्दा अब इस चुनावी राजनीति का सबसे निर्णायक अध्याय बन गया है, जिसमें आज़ादी के पहले का राष्ट्रवादी संघर्ष और समकालीन हिस्सेदारी का सवाल, दोनों का संगम दिखता है। यह चुनाव स्पष्ट कर रहा है कि पसमांदा समाज अब 'वोट बैंक' नहीं, बल्कि अपने मुद्दों पर 'वोट-सिंक' (Vote-Sync) करने वाला एक जागरूक 'गेम चेंजर' बन चुका है।
यह संघर्ष तब शुरू हुआ, जब कांग्रेस के राष्ट्रवाद और मुस्लिम लीग की अलगाववादी राजनीति के बीच वैचारिक घमासान जारी था। उस दौर में, आसिम बिहारी और अब्दुल कय्यूम अंसारी के नेतृत्व वाली 'मोमिन कॉन्फ्रेंस' ने पसमांदा मुसलमानों (मुख्यतः बुनकरों) की वर्गीय चेतना और सामाजिक न्याय की लड़ाई को मुखर अभिव्यक्ति दी, जो मुस्लिम लीग के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को सीधी वैचारिक चुनौती थी।
जब मुस्लिम लीग धार्मिक नारे लगा रही थी, तब अब्दुल कय्यूम अंसारी ने धर्म के बजाय आजीविका और सम्मान को तरजीह देते हुए कहा, ‘जिस जगह मोमिन (बुनकर, अंसारी) रहते हैं, वही उनका पाकिस्तान होता है, हमें किसी पाकिस्तान की ज़रूरत नहीं’। उन्होंने रोजगार, शिक्षा और सामाजिक समानता को अपनी राजनीति का केंद्र बनाया।
मोमिन कॉन्फ्रेंस ने धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन कर पाकिस्तान का पुरजोर विरोध किया। इससे साबित होता है कि पसमांदा आंदोलन की बुनियाद ही राष्ट्रवाद और सामाजिक न्याय पर टिकी है।
हालांकि, 1946 के प्रांतीय चुनावों में मुस्लिम लीग ने 40 में से 33 मुस्लिम आरक्षित सीटें जीतीं, जबकि मोमिन कॉन्फ्रेंस को केवल 6 सीटें मिलीं। जैसा कि पसमांदा चिंतक फैयाज़ अहमद फ़ैज़ी बताते हैं, इस हार के दो मुख्य कारण थे: पहला, सीमित मताधिकार (जो मुख्यतः अशराफ यानी उच्च जाति के मुसलमान तक सीमित था); और दूसरा, गरीब पसमांदा उम्मीदवारों के पास संसाधनों की कमी। यह हार भी एक वैचारिक जीत थी, क्योंकि इसने पसमांदा समुदाय को पहली बार एक संगठित राजनीतिक मंच और कैबिनेट में प्रतिनिधित्व दिलाया।
लेकिन आज़ादी के बाद, इस राष्ट्रवादी धारा को हाशिये पर धकेल दिया गया। मुस्लिम लीग के कई नेता कांग्रेस में शामिल हो गए (जैसे बिहार में ज़फ़र इमाम, मज़हर इमाम, मोहम्मद शफ़ी और मक़बूल अहमद)। इन्होंने मुस्लिम राजनीति को 'अल्पसंख्यकवाद' की चादर ओढ़ा दी।
'मुस्लिम' पहचान के नाम पर 'अशराफ' पहचान को स्थापित कर दिया गया और पसमांदा समुदाय राजनीतिक नेतृत्व से अदृश्य हो गया। 1967 के आसपास बिहार ने गुलाम सरवर, बेताब सिद्दीकी, ए. मोगनी, शाह मुश्ताक अहमद, मोइन अंसारी और तकी रहीम जैसे नेताओं का एक नया समूह देखा, लेकिन इन्होंने भी मुख्य रूप से बिहार में अशराफ राजनीति को ही मजबूत किया।
ये नेता उन्हीं धार्मिक-सांस्कृतिक मुद्दों में उलझे रहे, जिन्हें 'पूरे समुदाय' का मुद्दा बताया जाता रहा, जबकि पसमांदा की असल समस्याएं रोटी, कपड़ा और तालीम की थीं।
इस लंबी खामोशी के बाद, 1990 के दशक में मंडल आंदोलन के बीच पसमांदा आंदोलन ने नए और मुखर स्वरूप में ज़ोर पकड़ा। इसका नेतृत्व डॉ. एजाज अली और अली अनवर ने किया। डॉ. एजाज अली के 'ऑल इंडिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा' (AIBMM) ने अनुच्छेद 341 पर लगे धार्मिक प्रतिबंध को चुनौती देकर दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति (SC) का दर्जा देने की मांग को राष्ट्रीय विमर्श बनाया।
वहीं, अली अनवर के ' आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज' (AIPMM) ने "दलित-पिछड़ा एक समान, हिंदू हो या मुसलमान" का क्रांतिकारी नारा देकर इस लड़ाई को भारत के बहुजन और दलित आंदोलनों से जोड़ दिया। इन संगठनों ने 'अशराफ वर्चस्व' के खिलाफ पसमांदा पहचान और हिस्सेदारी की मांग उठाई, जिसमें रोजगार, शिक्षा, आरक्षण और सम्मान जैसे बुनियादी मुद्दे प्राथमिक थे।
नीतीश कुमार ने इस उभरती चेतना को पहचाना। उन्होंने अली अनवर को दो बार राज्यसभा सांसद बनाकर पसमांदा आंदोलन को राष्ट्रीय मान्यता दी और अपनी 'अति पिछड़ा वर्ग' (EBC) की राजनीति में पसमांदा जातियों को साधा।
पसमांदा मुसलमानों की कई जातियों को OBC एवं EBC कोटा में शामिल किया गया, जिससे उन्हें सीमित ही सही, पर एक ठोस राहत मिली। हाल ही में हुए बिहार जाति सर्वेक्षण ने इस सामाजिक सच्चाई पर मुहर लगा दी है। सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार की 17.7% मुस्लिम आबादी में 72.42% यानी भारी बहुमत पसमांदा समुदाय का है।
अब्दाल, भठियारा, चिक, चूड़ीहारा, धुनिया, फकीर, धोबी, नाई (सलामी), क़स्साब, दर्जी (इदरीसी), जुलाहा (मोमिन), राईन (कुंजड़ा) जैसी दर्जनों जातियों की गिनती ने यह साफ़ कर दिया कि 'मुस्लिम समाज' का मतलब पसमांदा समाज है और यह समुदाय एकरूप (monolithic) नहीं है।
इसी बदले हुए परिदृश्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सार्वजनिक रूप से “पसमांदा” शब्द के प्रयोग ने इस वर्ग की राजनीति में नई बहस छेड़ दी है। दशकों तक कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और राजद जैसी पार्टियों ने मुसलमानों को 'वोट बैंक' माना, लेकिन उनका नेतृत्व और विमर्श अशराफ वर्ग के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रहा।
भाजपा के इस कदम ने, चाहे वह राजनीतिक लाभ के लिए ही क्यों न हो, पसमांदा समुदाय को मुख्यधारा के विमर्श के केंद्र में ला दिया। भाजपा ने पसमांदा मिलन समारोह आयोजित किए और वक्फ बोर्ड में पसमांदा मुसलमानों के लिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की बात की। इसका सीधा असर यह हुआ कि 'महागठबंधन' भी अब पसमांदा मुद्दे को गंभीरता से लेने पर मजबूर है। 2025 के चुनाव में पसमांदा मुसलमानों का वोट बैंक निर्णायक भूमिका निभाने जा रहा है, क्योंकि अब वे 'कैप्टिव वोटर' नहीं रहे।
यह राजनीतिक बदलाव "मुस्लिम वोट बैंक" के मिथक को भी तोड़ता है। मुस्लिम समाज जाति, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर बंटा है और एकसमान वोट नहीं करता। CSDS-Lokniti सर्वेक्षण दिखाते हैं कि उनकी असली चिंताएं भी बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई और शैक्षिक सुविधाओं की कमी हैं, न कि तीन तलाक, बाबरी मस्जिद या हिजाब जैसे मुद्दे, जिन्हें मीडिया अक्सर "मुस्लिम मुद्दे" के रूप में पेश करता है।
पसमांदा समुदाय, जो आर्थिक रूप से कमजोर है और सरकारी योजनाओं पर अधिक निर्भर है, उसके लिए रोजगार, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दे सबसे अहम हैं। इसी आधार पर उनका वोटिंग पैटर्न भी उच्च-वर्गीय मुसलमानों से अलग होता है; वे अक्सर अपनी सामाजिक न्याय की मांगों को उठाने वाले क्षेत्रीय दलों को समर्थन देते हैं।
लंबे समय तक मुस्लिम राजनीति पर उसी अशराफ अभिजात वर्ग का दबदबा रहा, जिसने आज़ादी के बाद कांग्रेस में शरण ली थी। यह वर्ग 'गंगा-जमुनी तहज़ीब' और 'बिरयानी-शायरी' जैसी सांस्कृतिक पहचानों को बचाने या तीन तलाक़ और बुर्क़ा जैसे घिसे-पिटे प्रतीकात्मक मुद्दों पर बहस करने में लगा रहा, न कि आम पसमांदा मुसलमानों के कल्याण और न्याय के ठोस दावों पर।
इसके विपरीत, अब एक नई पसमांदा पीढ़ी (जिसमें विद्वान, पत्रकार, एक्टिविस्ट और नेता शामिल हैं) उभर रही है, जो पुराने अशराफ नेतृत्व को खुलेआम चुनौती दे रही है। वे दलित राजनीति से प्रेरणा लेकर 'अपमान' (humiliation) और 'न्याय' (justice) के विमर्श को अपना रहे हैं।
वे सांस्कृतिक मुद्दों के बजाय भेदभाव, आरक्षण, कल्याण में हिस्सेदारी और संवैधानिक अधिकारों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। इसी प्रक्रिया में, वे 'बहुजन' आंदोलनों से जुड़कर अब्दुल कय्यूम अंसारी और आसिम बिहारी की राष्ट्रवादी विरासत का दावा भी कर रहे हैं।
इसलिए, 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव केवल दो गठबंधनों के बीच की लड़ाई नहीं होगा। यह चुनाव इस बात का लिटमस टेस्ट होगा कि कौन सा दल सामाजिक न्याय के इस सबसे मुखर और बहुसंख्यक दावेदार को कैसे संबोधित करता है।
पसमांदा आंदोलन ने 2025 के चुनाव को सामाजिक न्याय की लड़ाई और जाति आधारित हिस्सेदारी के इर्द-गिर्द केंद्रित कर दिया है। यह समुदाय अब 'वोट बैंक' नहीं, बल्कि एक ऐसा 'एक्टिव एजेंट' बन चुका है जो अपनी शर्तों पर राजनीतिक सौदेबाजी करेगा।
स्पष्ट है कि जो भी दल पसमांदा समुदाय की सम्मानजनक हिस्सेदारी (टिकट बंटवारे से लेकर नीति-निर्माण तक) सुनिश्चित करेगा, बिहार की सत्ता का रास्ता उसी के लिए खुलेगा। यह आंदोलन बिहार की राजनीति को एक नए, अधिक समावेशी और सच्चे सामाजिक न्याय के युग में ले जाने की क्षमता रखता है।
( अब्दुल्लाह मंसूर, लेखक और पसमांदा बुद्धिजीवी हैं। )