धुंध में गुम चेतना

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 14-11-2025
lost consciousness in the fog
lost consciousness in the fog

 

sअस्मा जबीन फलक

अली को वह क्षण आज भी अपनी आत्मा पर एक स्थायी छाप की तरह याद है—वह अपने करियर की सबसे ऊँची इमारत के कॉन्फ्रेंस रूम में खड़ा था। कमरा चमकदार रोशनी से भरा था, हर निगाह उसकी ओर थी। और तभी कुछ टूटा—उसके भीतर, उसकी चेतना में। जैसे किसी ने उसके दिमाग की “हार्ड ड्राइव” पर फॉर्मेट का बटन दबा दिया हो। वे शब्द जो उसकी ज़ुबान पर थे, हवा में घुल गए। सोचने की रफ़्तार जम गई। उसे ऐसा लगा जैसे विचारों का बहाव किसी अदृश्य दीवार से टकराकर रुक गया हो।

कमरे की रोशनी चुभने लगी, और कानों में एक अजीब सी सनसनाहट गूँजने लगी। यह सिर्फ़ याददाश्त का खो जाना नहीं था, बल्कि अपने ही दिमाग से संपर्क टूट जाने का भयानक अनुभव था—एक ऐसा क्षण, जब अली ने पहली बार “ब्रेन फ़ॉग” को एक मेडिकल टर्म नहीं, बल्कि अपनी वास्तविकता के बिखरते हुए ताने-बाने के रूप में महसूस किया।

लेकिन अली की कहानी सिर्फ़ उसकी नहीं, हम सबकी कहानी है। यह उस पीढ़ी का बयान है जो तेज़ी, उत्पादकता और हर पल ऑनलाइन रहने की दौड़ में अपनी मानसिक स्पष्टता खोती जा रही है। मानसिक धुंध कोई बीमारी नहीं, बल्कि हमारे शरीर और मस्तिष्क की ओर से उठाई गई एक चुपचाप बगावत है—एक चीख़ जो हमें याद दिलाती है कि हम अपनी जैविक सीमाओं को बहुत पहले पार कर चुके हैं।

नींद की कमी और डिजिटल बाढ़: आधुनिक मस्तिष्क का घेराव

हमारी यह मानसिक बगावत हमारे बेडरूम तक फैल चुकी है। कॉर्पोरेट कल्चर ने हमें यह यकीन दिला दिया है कि नींद विलासिता है—कि कम सोकर ज़्यादा काम करना ही सफलता है। अली की दिनचर्या भी यही थी—देर रात तक ईमेल, प्रेजेंटेशन और बाकी वक्त स्क्रीन पर अंतहीन स्क्रॉलिंग। लेकिन हम भूल गए कि नींद दिमाग के लिए आराम नहीं, बल्कि सफाई की प्रक्रिया है।

2012 में न्यूरोसाइंटिस्ट माइकन नीडरगार्ड ने “ग्लिम्फ़ैटिक सिस्टम” की खोज की, जो गहरी नींद के दौरान दिमाग की कोशिकाओं के बीच मौजूद तरल पदार्थ से ज़हरीले प्रोटीनों को बाहर निकालता है। जब नींद अधूरी रहती है, तो यह “कचरा” दिमाग में जमा होता रहता है—वही प्रोटीन, जो अल्ज़ाइमर जैसी बीमारियों से भी जुड़ा पाया गया है। अगली सुबह यही जमाव हमारे ध्यान, स्मृति और सोचने की क्षमता को धुंधला कर देता है।

लेकिन यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। डिजिटल युग का “Attention Economy” यानी ध्यान की अर्थव्यवस्था, हमारे दिमाग की नई जेल बन चुकी है। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के न्यूरोसाइंटिस्ट डॉ. एंड्रयू ह्यूबरमैन बताते हैं कि सोशल मीडिया और लगातार मिलने वाले नोटिफिकेशन हमारे डोपामाइन सिस्टम को हाईजैक कर लेते हैं।

हर “लाइक” या “कमेंट” एक छोटे डोपामाइन झटके की तरह है, जो हमें बार-बार फोन की ओर खींचता है। धीरे-धीरे हमारा मस्तिष्क लंबी एकाग्रता की शक्ति खो देता है और तुरंत मिलने वाली संतुष्टि का गुलाम बन जाता है।क्या यह विकास है या पतन—कि इतिहास में पहली बार हमारे पास इतनी जानकारी है, पर हम कुछ मिनटों से ज़्यादा किसी एक विचार पर ठहर नहीं पाते?

आंत और दिमाग का रिश्ता: भीतर जलती सूजन की आग

यह मानसिक धुंध सिर्फ़ हमारे सिर में नहीं, बल्कि हमारे पेट में भी पल रही है। अली की तरह हममें से अधिकांश लोग अपनी थकान को कॉफी, एनर्जी ड्रिंक्स और जंक फूड से ढकते हैं, यह सोचकर कि यही हमें ताकत देंगे। लेकिन सच इसके उलट है।

नए शोध बताते हैं कि हमारी आंतें और मस्तिष्क आपस में गहराई से जुड़े हैं—इसे “गट-ब्रेन एक्सिस” कहा जाता है। जब हम प्रोसेस्ड और असंतुलित भोजन खाते हैं, तो हमारी आंतों में सूजन होती है, जो तंत्रिका तंत्र के ज़रिए सीधे मस्तिष्क तक पहुँचकर “न्यूरो-इंफ्लेमेशन” यानी तंत्रिका सूजन को जन्म देती है।

यही कारण है कि लॉन्ग कोविड से जूझने वाले लाखों लोग वायरस खत्म हो जाने के महीनों बाद भी “ब्रेन फ़ॉग” का अनुभव करते रहे। कोविड ने उस मौन महामारी को उजागर कर दिया, जो हमारी प्लेटों और स्क्रीन दोनों में छिपी थी।

धुंध से पार: स्पष्टता की ओर वापसी

अली के लिए वह कॉन्फ्रेंस मीटिंग अंत नहीं, बल्कि शुरुआत थी—एक चेतावनी जो जीवन का मोड़ बन गई। उसने समझा कि इलाज किसी दवा में नहीं, बल्कि जीवनशैली के पुनर्निर्माण में है। उसने सुबह उठते ही फोन उठाने की बजाय कुछ मिनट अपनी साँसों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया। मल्टीटास्किंग छोड़ दी, और “एक समय में एक काम” की सादगी को अपनाया। रात में स्क्रीन छोड़कर किताबों का साथ लिया। एनर्जी ड्रिंक्स की जगह पानी और फल रखे।

शुरुआत में ये बदलाव मामूली लगे, पर असर गहरा था। कुछ महीनों बाद उसे महसूस हुआ कि उसके मन की धुंध छँट रही है। विचारों की साफ़ हवा लौट रही है। वह समझ गया कि मानसिक स्पष्टता कोई उपलब्धि नहीं, बल्कि हमारी प्राकृतिक अवस्था है—जिसे हमने आधुनिक जीवन के शोर में खो दिया था।

अंत में, एक सवाल

ब्रेन फ़ॉग का बढ़ता फैलाव हमसे एक गहरा सवाल पूछता है—क्या हम वास्तव में आगे बढ़ रहे हैं, या बस अपनी मानसिक जड़ों से कटते जा रहे हैं? इस धुंध से बाहर निकलने का रास्ता तेज़ तकनीक या “बायोहैकिंग” के उपकरणों में नहीं, बल्कि धीमे पड़ने, प्रकृति से दोबारा जुड़ने, वास्तविक मानवीय रिश्ते बनाने और अपने शरीर की बुद्धिमत्ता को सुनने में है।

हमें इंतज़ार नहीं करना चाहिए उस पल का जब हमारा दिमाग जवाब दे दे। हमें आज ही उन खामोश चेतावनी संकेतों पर ध्यान देना होगा—क्योंकि शायद वही हमें एक संतुलित, जागरूक और सच्चे जीवन की ओर ले जाएँ।

शायद अब समय आ गया है कि हम अपने भीतर की आवाज़ सुनें, और इस आत्मिक धुंध को चीरकर कहें—

“हाँ, मैं देख सकता हूँ… साफ़, स्पष्ट और सच।”