एक रुके हुए फैसले से उम्मीद

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 10-11-2025
Hope from a pending decision
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हरजिंदर

सुप्रीम कोर्ट में सांप्रदायिक दंगे से जुड़ा एक मामला इस समय एक ऐसी जगह पहंुच गया है जहां इसकी व्याख्या का मौका मिल सकता है कि देश की धर्मनिरपेक्षता को अमली जामा कैसे पहनाया जाए।मामला 2023 में महाराष्ट्र के अकोला में हुए सांप्रदायिक दंगे का है। इस दंगे के दौरान एक आॅटो ड्राईवर की हत्या कर दी गई थी। कहा गया कि यह हत्या दूसरे संप्रदाय के लोगों ने की है। यह आरोप भी लगा कि पुलिस ने इस मामले में ठीक से जांच नहीं की।

मामला हाईकोर्ट पहंुचा तो अदालत ने सभी पक्षों को सुनने के बाद यह आदेश दिया कि इस मामले की जांच जो पुलिस अधिकारी करेंगे उनमें दोनों ही समुदायों के जांचकर्ता होंगे।
महाराष्ट्र सरकार ने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। राज्य सरकार का तर्क था कि यह फैसला संस्थागत धर्मनिरपेक्षता के अनुकूल नहीं है। इसमें यह मानकर चला गया है कि सार्वजनिक अधिकारियों में सांप्रदायिक पूर्वाग्रह हो सकते हैं।

मामला अदालत की दो सदस्यों वाली पीठ ने सुना। इन दो जजों में न्यायमूर्ति संजय कुमार ने अपील को खारिज कर दिया। उनका कहना था कि पुलिस ने जिस तरह से मामले की जांच की उसे देखते हुए पूर्वाग्रह की बात कही जा सकती है। जबकि न्यायमूर्ति एससी शर्मा ने कहा कि इस फैसले की समीक्षा होनी चाहिए।

अदालत की किसी पीठ में जब दो जजों की अलग-अलग राय हो तो ऐसे फैसले को ‘स्प्लिट वर्डिक्ट‘ कहा जाता है। ऐसे मामलों में आगे का फैसला मुख्य न्यायधीश लेते हैं। यही इस मामले में भी होगा। लेकिन इसके साथ ही एक ऐसा मसला फिर सतह पर आ गया है जो आजादी से पहले से देश में एक बड़े विमर्श को जन्म देता रहा है।

भारत की आजादी से पहले मुस्लिम लीग का कहना था कि सिर्फ मुसलमान ही मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं इसलिए उनके लिए एक अलग निर्वाचन मंडल होना चाहिए। जबकि कांग्रेस का कहना था कि उसके सदस्य चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान वे सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। लीग समुदाय को प्रतिनिधित्व देने की बात कर रही थी जबकि कांग्रेस कह रही थी कि उसकी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा सबको प्रतिनिधित्व देने में समर्थ है।

तब से अब तक राजनीति में बहुत सी चीजें बदल गई हैं। कुछ समय पहले जब संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने का मामला आया तो कई विद्वानों ने वही तर्क दोहराया था कि पुरुष महिलाओं का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम है और इसी के साथ महिलाएं भी पुरुषों को प्रतिनिधित्व कर सकती हैं तो फिर आरक्षण की क्या जरूरत।

इसके बहुत सारे और बहुत पुख्ता जवाब भी हैं। सबसे बड़ा तो यह कि अगर बराबरी हर तरह से सचमुच है तो राजनीति में महिलाएं बराबर संख्या में क्यों नहीं आ पातीं। फिर यह तर्क तो है ही कि महिलाएं समाज में आज भी दोयम क्यों बनी हुई हैं।

इस बीच बाकी दुनिया में भी इसे लेकर काफी लंबा विमर्श चला है। जिसे हम सशक्तीकरण का नाम देते हैं उसके बारे में पश्चिम में एक नारा इन दिनों काफी सुनाई देता है- नथिंग एबाउट अस, विदाउट अस। यानी हमारी भागीदारी के बिना आप हमारे बारे में कोई फैसला नहीं कर सकते। भारत की राजनीति पर भी आजकल ऐसी सोच हावी दिखाई देती है।क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी देश में ऐसे ही किसी विमर्श को शुरू करेगा? 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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