अग्निपथ देश के मुसलमानों के लिए कैसे साबित हो सकता है बेहतर मौका ?

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 23-06-2022
अग्निपथ देश के मुसलमानों के लिए कैसे साबित हो सकता है बेहतर मौका?
अग्निपथ देश के मुसलमानों के लिए कैसे साबित हो सकता है बेहतर मौका?

 

मलिक असगर हाशमी

‘अग्निपथ’ और ‘अग्निवीर’ को लेकर तमाम हंगामों एवं विवादों के बीच देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और पीआइबी यानी प्रेस सूचना कार्यालय ने लगभग स्पष्ट कर दिया है कि 2030 तक जब देश में युवाओं की जनसंख्या सर्वाधिक होगी, तब भारतीय सेना के तीनों अंग पूरी तरह आधुनिक तकनीक और युवा ऊर्जा से लैस होंगे.

हालांकि, आज भी भारतीय सेना की गिनती दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सेनाओं में होती है, पर जब देश 2030 को पारकर सदी के चौथे दशक में प्रवेश कर रहा होगा तब शायद हमारी सेना दुनिया की अव्वलतरीन सेना साबित होगी. सवाल है कि तब मुसलमानों की सेना में क्या भूमिका होगी या इसमें कितनी हिस्सेदारी होगी ?

गौरतलब है कि भारत की मूल आत्मा की तरह भारतीय सेना भी ‘समावेश‘ पर विश्वास करती है. कम से कम सेना को लेकर तो हम यह सीना ठोंककर कह ही सकते हैं . सेना में जाति, धर्म को नहीं देशभक्ति को महत्व दिया जाता है.

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यही वजह है कि  सेना में रहते जहां सभी धर्मों के तीज-त्योहारों एवं इबादत-प्रार्थना को महत्व दिया जाता है, वहीं जब राष्ट्र पर बन आए तो कोई भी वीर जवान पहले कुर्बानी देने से नहीं हिचकता. इसे समझने के लिए यहां दो-तीन नाम लेना जरूरी है. इदरीस हसन लतीफ जो 1978 से 81 तक भारतीय वायुसेना के प्रमुख रहे और बाद में फ्रांस में भारत के राजदूत और महाराष्ट्र के राज्यपाल हुए.

इसी तरह मोहम्मद जकी, जो गढ़वाल रेजिमेंट के कमांडिंग ऑफिसर थे. इस क्रम में हवलदार अब्दुल हमीद का नाम भी लिया जा सकता है, जिन्होंने पाकिस्तान को धूल चटाने के लिए अपनी जान की परवाह नहीं की. सेना से जुड़े ऐसे नाम गिनाए जाएं तो कभी खत्म नहीं होंगे.

फ्रांस से जब राफेल युद्धक विमानों की पहली खेप भारत आई थी तो यह सारा काम एक मुस्लिम कश्मीरी वायुसेना अधिकारी हिलाल राथर की देख-रेख में हुआ. अब वह इंडियन एयर फोर्स में एयर वाइस मार्शल हैं.

इसी तरह, गलवान घाटी में चीनी सैनिकों के साथ झड़प हो या पाकिस्तान के साथ करगिल युद्ध, शहादत देनेवालों में कई नाम ऐसे थे जिनका संबंध मुस्लिम परिवार से था.

ऐसे में सवाल है कि सेना के नए स्वरूप ‘अग्निपथ’ और ‘अग्निवीर’ को अपनाने में मुसलमानों की हिस्सेदारी कितनी होगी और इस कौम को इस सुनहरे अवसर का लाभ उठाने के लिए क्या करना चाहिए? भारत में धर्म के आधार पर दूसरी बड़ी आबादी होने के नाते इन सवालों पर मुसलमानों को मंथन जरूर करना चाहिए.

जहां तक सेना में मुसलमानों की भागीदारी का सवाल है, इसपर कोई विश्वसनीय आंकड़े नहीं मिलते. लेकिन अंग्रेजी वेबसाइट सीएनएन-आईबीएन की एक रिपोर्ट पर यकीन करें, तो मौजूदा दौर में सेना में मुसलमानों की भागीदारी का अनाधिकारिक आंकड़ा करीबन तीन प्रतिशत है. संख्या में इसे 29,000 के करीब माना जाता है.

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भारत के जांबाज सैनिक

हालांकि इस आंकड़ों को इस लिए सही नहीं मान सकते कि देश की सुरक्षा से जुड़े एक आला अधिकारी का कहना है कि 2014 के बाद अन्य सरकारों की तुलना में सेना और देश की सुरक्षा एजेंसियों में मुसलमानों की भागीदारी बढ़ी है. चूंकि इन विभागों को मजहब के दायरे से अलग रखा जाता है तथा भारतीय जनता पार्टी की सियासी मजबूरी के चलते भी इन बातों का बखान करने से बचा जाता है.

इसे यूं समझ सकते हैं कि यदि आप में काबिलियत है तो सरकार चाहे किसी की भी हो, आपको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. ढोने की सियासत को भले ही आप तुष्टिकरण का नाम दे सकते हैं, मगर आप में काबिलियत है तो आपको हर कोई झुककर सलाम करेगा.

एपीजे अब्दुल कमाल मुसलमान होने के नाते ‘मिसाइल मैन’ या राष्ट्रपति नहीं बने थे. उनमें ऐसी विशेषता थी कि उन्हें इतने बड़े पदों पर बैठाकर महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी गई थीं. उनके योगदान और स्वभाव को आज भी उतनी ही शिद्दत से याद किया जाता है जितना कि उनके जीवित रहते किया जाता था.

मुसलमानों को भी अग्निपथ योजना का भरपूर लाभ उठाना चाहिए. आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक बदहाली के चलते इस कौम के पास आगे बढ़ने के बहुत कम रास्ते और अवसर हैं. 30 नवंबर, 2006 को लोकसभा में पेश किए गए जस्टिस सच्चर कमिटी की 403 पेज की रिपोर्ट से पता चलता है कि देश के 6 से 16 वर्ष के एक चौथाई मुस्लिम बच्चे स्कूल नहीं जाते. 26 प्रतिशत ही मैट्रिक पास कर पाते हैं. 50 प्रतिशत मुस्लिम बच्चे मिडिल स्कूल से आगे नहीं बढ़ते और 60 प्रतिशत मुस्लिम बच्चों ने स्कूल का मुंह ही नहीं देखा है.

सरकारी नौकरियों में मुसलमानों का प्रतिशत 4.9 है. मुसलमान ज्यादातर निचले पदों पर हैं. प्रशासनिक सेवा में इनकी भागीदारी मात्र 3.2फीसदी है. इसी तरह 62.2प्रतिशत मुसलमानों के पास गांवों में अपनी जमीन तक नहीं है. मेहनत मजदूरी कर अपना किसी तरह गुजारा करते हैं.

सच्चर कमिटी की रिपोर्ट आने के बाद से अब तक देश में ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ है जिससे पता चले कि पिछले 17-18सालों में किस हद तक मुसलमानों की स्थिति में बदलाव आए है.

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सैनिक की डिजिटल नजर

महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में एक अध्ययन जरूर हुआ था, जिससे पता चलता है कि तब से अब तक इन प्रदेशों के मुसलमान कई मामलों में अनुसूचित जातियों से भी अधिक पिछड़े हुए हैं. पूर्व आईपीएस अधिकारी अब्दुर रहमान की पुस्तक ‘डिनायल ऐंड डिप्राइवेशन इंडियन मुस्लिम आफ्टर द सच्चर कमिटी ऐंड रंगनाथ मिश्रा कमीशन रिपोर्टस’ में लिखा है कि सरकार ने कभी इन रिपोर्ट्स को गंभीरता से नहीं लिया. इस वजह से मुसलमानों के हालात भी जस के तस बने हुए हैं.

हालांकि, संघ विचारक राकेश सिन्हा जैसे लोग सच्चर कमिटी की रिपोर्ट को ‘सच्चर कमिटीः कॉन्सपिरेसी टू डिवाइड द नेशन’ मानते हैं. इसलिए भी शायद सरकारें मुसलमानों के पिछड़ेपन पर खुलकर बात करने से कतराती हैं.

हाल में, मुसलमानों के मुद्दों को लेकर जिस तरह सियासत गरमाई गई और उस दौरान तथाकथित सेक्युलर पार्टियों ने अपना मुंह बंद रखा, इससे भी समझ बनी है कि सियासत या सरकारों के भरोसे स्थिति सुधरने की उम्मीद करना बेमानी है. मुसलमानों को जो करना होगा खुद करना होगा. यदि नौकरी या अच्छी नौकरी चाहिए तो उन्हें इतनी शिद्दत से प्रयास करने होंगे कि आपको चुनने के लिए हर कोई मजबूर हो जाए.

अग्निपथ योजना भारतीय मुसलमानों की तस्वीर बदलने के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है. देश के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने एक न्यूज एजेंसी के साथ साक्षात्कार में कहा है, “पहले अधिकतर गांव के युवा फौज में भर्ती होते थे, जो बाद में सेवानिवृत्त होकर अपने गांव लौट जाते थे.

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फिल्मों में भारतीय सेना की गौरव गाथा


गांव में जमीन होती थी जिससे पेंशन के साथ उनका गुजारा हो जाता था. मगर अधिकांश मुसलमानों के पास गांव में जमीन भी नहीं है! इसलिए भी मुस्लिम युवाओं को अग्निपथ के रास्ते अपने करियर तलाशने चाहिए.”

अग्निवीर बनने के लिए बहुत ज्यादा विशेषज्ञता दिखाने की जरूरत नहीं. बस खुद को शारीरिक रूप से इतना मजबूत करना है कि किसी अन्य से दौड़-भाग में पीछे न रह जाएं और थोड़ी बौद्धिक कुशलता की आवश्यकता होगी ताकि लिखित परीक्षा पास किया जा सके .

अग्निवीर बनने के बाद यदि उन्होंने अपने युद्ध कौशल का बेहतर प्रदर्शन किया तो निश्चित ही आपकी जगह सेना में होगी. यदि ऐसा नहीं कर पाए तो चार साल की नौकरी के बाद तकरीबन 12लाख रुपये की पूंजी, शिक्षा और कई अन्य तरह की कुशलता का प्रमाण-पत्र लेकर आप नए सिरे से अपनी जिंदगी संवारने को आगे बढ़ सकते हैं.

मुस्लिम नौजवानों के लिए यह स्कीम इस लिए बेहतर है कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं, पर पाने के लिए अनेक अवसर हैं. स्कूल से निकलने के बाद नौकरी या उच्च शिक्षा पाने के लिए कड़ी स्पर्धा से गुजरना पड़ता है.

किसी आला कोर्स के चयन हो भी जाए तो आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए मोटी रकम की जरूरत पड़ती है. अग्निवीर के लिए चयन होने पर चार सालों तक बंधी-बंधाई सैलरी के बाद नए सिरे से जिंदगी के सफर का आगाज किया जा सकता है. स्कूल से निकल कर मोबाइल पर गेम्स खेलने और सड़कों पर मटरगश्ती करने से तो यह कई गुना बेहतर ही है.

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अग्निपथ का विरोध करने वालों ने रेल गाड़ियों कें लगा दी आग

अग्निपथ को लेकर होने वाले हिंसक आंदोलन के संदर्भ में देखा जाए तो इसका एक अच्छा पहलू भी रहा. सरकारी संपत्ति को आग लगाने वालों में मुस्लिम लड़कों की भागीदारी लगभग न के बराबर रही. तीनों सेना के प्रमुखों ने चेतावनी दी है कि जांच में यदि हिंसा में शामिल होने वालों के नाम सामने आए तो अग्निवीर के चुने जाने के बाद भी उन्हें सेना से निकाल दिया जाएगा.

जहां मुसलमान अपने धार्मिक मुददे को लेकर हर शुक्रवार के जुमे की नमाज के बाद सड़कों पर निकल आते हैं. अग्निपथ को लेकर होने वाले आंदोलनों से वे बेहद दूर रहे. हालांकि ऐसी हंगामी सूरत से मुस्लिम युवाओं को दूर रखने के लिए मुस्लिम रहनुमाओं और मुस्लिम अदारों को आगे आना चाहिए था. उन्हें बताना चाहिए था कि इस तरह के आंदोलन में शामिल होने से पकड़े जाने पर आपर कानूनी कार्रवाई तो की ही जाएगी, आपका कॅरियर भी चौपट हो सकता है.

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सैनिक की पैनी नजर

बावजूद इन कोताहियों के, अब उनसे उम्मीद की जा रही कि वे मुस्लिम नौजवानों को अपने प्लेटफॉर्म से अग्निपथ स्कीम का लाभ उठाने के लिए प्रेरित करें. कई प्रदेशों में मुसलमानों की संस्थाएं पुलिस में भर्ती होने के लिए मुफ्त कोचिंग कैंप चला रही हैं. उन कोचिंग में अब अग्निवीर बनने के लिए भी मुस्लिम युवाओं को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था शुरू कर देना चाहिए.

सच्चर कमिटी ने मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक स्तर सुधारने के लिए जो दस सुझाव दिए थे. उनमें से एक ‘मदरसों की डिग्री को डिफेंस, सिविल और बैंकिंग एग्जाम के मान्य करने की व्यवस्था’ करने पर जोर दिया था.

इस दिशा में अब तक मदरसों में यह काम शुरू नहीं हुआ है, सेना में नई भर्ती व्यवस्था के साथ मदरसों को भी अब इस दिशा में पहल करनी चाहिए ताकि मुसलमानों की नई नस्ल को भी समय के साथ चलने का मौका मिल सकता है.

(लेखक आवाज द वॉयस हिंदी के संपादक हैं)