शगुफ्ता नेमत
एक तरफ कूड़े के ढेर में से रोटी का टुकड़ा चुनता एक मासूम सा बच्चा, दूसरी तरफ ‘ विश्व पर्यावरण दिवस ’ पर लगने वाले स्लोगन को देखकर मन में प्रश्न उठना लाजमी है कि क्या हम अपनी प्रकृति के साथ न्याय कर रहे हैं ? क्या हम मानव कहलाने का फर्ज निभा रहे हैं ?
इसका उत्तर तो हमें ही ढूँढना होगा ! हर साल विश्व पर्यावरण दिवस पर प्रकृति को बचाने के लिए लोगों को प्रेरित करने की औपचारिकताएं निभानी पड़ती हैं. वजह, क्यों कि हमने 1400 साल पहले कुरान में लिखे अल्लाह के संदेश को पढ़ा ही नहीं या पढ़ा तो उसे समझने की और जिंदगी में उतारने की कोशिश नहीं की.
इस संदेश में कहा गया है,”आकाश और धरती का बना देना तथा रात और दिन के बदलते हुए आने - जाने में बुद्धिजीवी के लिए बहुत निशानियां हैं.“ अर्थात अगर हम ईश्वर के अस्तित्व को पहचानना चाहें तो मात्र उसकी बनाई सृष्टि ही इसका सबूत दे रही है.
इसे स्वीकारना तो दूर हम उसके विनाश का कारण बने हुए हैं. केवल इतना ही नहीं जिस मानव जाति के लिए अल्लाह ने कुरान ( सूरह ‘ तीन ‘में) यह कहा , “बेशक इंसान को हमने बहुत खूबसूरत सांचे में ढाल कर बनाया है.“आज उनके ही कारण पशु पक्षियों का जीवन भी खतरे में है.
मानव ने अपने स्वार्थ में वातावरण को इतना ज्यादा प्रदूषित कर दिया है कि एक रिपोर्ट के अनुसार, 2050 तक समुद्रों में मछलियां कम प्लास्टिक अधिक मिलेंग. ऐसा अनुमान है कि 2070 तक पृथ्वी पर विलुप्त होते पशु-पक्षियों की संख्या में भी बढ़ोतरी हो जाएगी. साथ ही, जलस्तर इतना घट जाएगा कि वह समय दूर नहीं, जब हम पानी की बूंद-बूंद के लिए तरसेंगे.
हमें अपनी पृथ्वी को बचाना होगा, इसलिए नहीं कि हम खतरे में पड़ जाएंगे. इसलिए कि यह हमारा उत्तरदायित्व है. जिस पृथ्वी को अल्लाह ने हमारे लिए बिछौना तथा आकाश को छत बनाया है. उसकी छत्रछाया में हम पल बढ़ रहें हैं. उसे विनाश करने का अधिकार हमें किसने दिया ? क्या यह उचित है ?
किसी मुस्लिम आबादी में जाने के बाद यह कहते हुए शर्म महसूस होता है कि ‘सफाई आधा ईमान है ’. जिस ईमान का हम दावा करते हैं वह कूड़े के ढेर में कहीं दबता नजर आ रहा है.
मुस्लिम समुदाय में पर्यावरण को लेकर और सजग होने की आवश्यकता है. अधिकांश मुस्लिम आबादियां सलम क्षेत्र में बसी हुई हैं, जहां गरीबी रेखा के नीचे रहकर लोग अपना जीवन यापन करते हैं. उनमें शिक्षा का भी अभाव है.
प्रकृति की प्रत्येक वस्तु हमें त्याग और बलिदान का संदेश देती है. पेड़ सूरज की गर्मी को झेल कर हमें फल, फूल तथा छाया देते हैं. नदियां दुखों को आत्मसात कर हमारे खेत खलिहान को जीवन प्रदान करती हैं. पानी अपना कर्ज चुकाने के लिए बारिश बनकर फिर से धरती पर लौट आती है.
हम उसी पेड़, नदियों को विनाश का शिकार होता देख रहे हैं और हमें दुख नहीं होता ! शायद हमारी आत्मा ही मर चुकी है. अब हमें किसी की प्रतीक्षा नहीं करनी है.
स्वयं आगे बढ़ कर प्रकृति को बचाने का संकल्प लेना है. हमें अपने बच्चों को उद्यानों, अभ्यारण, चिड़िया घर की सैर करानी होगी, ताकि विलुप्त प्रजातियों के बारे में उन्हें मालूम हो सके. नदियां गंदी हो रही हैं, उन्हें कौन बताएगा ?
हमें ही बताना होगा. नदियों के गंदे जल दिखाकर उनसे पेयजल की आपूर्ति से संबंधित प्रश्न पूछकर उनके सोए मन - मस्तिष्क को जगाना होगा. बिजली की कम खपत के विभिन्न उपाय बताने होंगे. प्रदूषित हवा के कारण बढ़ ती सांस संबंधित बीमारियों के बारे में बच्चों को समझाना होगा.
बच्चों को यह हदीस बतानी होगी कि जिस किसी ने एक बीज बोया और वह पेड़ बन गया, जबतक उस पेड़ के फल- फूल से पशु- पक्षी अपना पेट भरेंगे उसे भी पुण्य मिलता रहेगा.
अल्लाह ने तो एक छोटी सी चींटी, मच्छर, मक्खी को भी यूहीं नहीं बनाया, तभी तो पवित्र ग्रंथ कुरान (के सूरह नमल) में मधुमक्खियों से कहा जा रहा है कि तुम पहाड़ों, पेड़ों और ऊंची इमारतों पर अपने छत्ते लटका दो. चींटी की दुआ सुनकर अल्लाह ने एक बार बारिश की थी, चींटी का भी (सूरह नहल) में जिक्र आया है.
क्या हमने कभी गंभीरता से सोचा है कि एक छोटा मच्छर भी हमें कितना बड़ा पाठ पढ़ाता है ? हम देखते हैं कि जब मच्छर अपनी आवश्यकता से अधिक खून चूस लेता है तो फिर वह उड़ने के लायक नहीं रहता.
कुछ ही समय बाद उसकी मृत्यु हो जाती है. यानी अपनी आवश्यकता से अधिक और शीघ्र सब कुछ पा लेने की इच्छा मनुष्य को विनाश की ओर धकेलती जाती है. कब हमारा समय समाप्त हो जाता है हमें इसका पता भी नहीं चलता. अगर समय रहते हमारी आंखें खुल गईं तो केवल अपना ही नहीं अनेक लोगों का हम कल्याण कर पाएंगे.
आधुनिकता के इस अंधी दौड़ में हमने सबको पीछे छोड़ दिया है. हम अब भी नहीं चेते तो वह समय दूर नहीं जब पृथ्वी आग का गोला बनकर सबको भस्म कर देगी.
लेखिका पेशे से शिक्षक हैं