क्या नारों से साबित होती है मोहब्बत ? 'आई लव मुहम्मद' विवाद की  पड़ताल

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 06-10-2025
Do slogans prove love? An investigation into the 'I love Muhammad' controversy.
Do slogans prove love? An investigation into the 'I love Muhammad' controversy.

 

डॉक्टर उज़्मा खातून

भारत के मौजूदा ध्रुवीकृत वातावरण में कैसे एक सामान्य धार्मिक अभिव्यक्ति भी एक बड़े राष्ट्रीय संकट का रूप ले सकती है. इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में लगे एक बैनर से हुई, जिस पर लिखा था 'आई लव मुहम्मद ﷺ'. जो बात एक स्थानीय स्तर पर आस्था के प्रदर्शन तक सीमित रहनी चाहिए थी, वह जल्द ही पुलिस कार्रवाई, देशव्यापी विरोध और राजनीतिक खींचतान के भंवर में फंस गई. इस पूरे प्रकरण ने भारत के संवैधानिक सिद्धांतों और सामाजिक वास्तविकताओं के बीच मौजूद तनाव को उजागर कर दिया. विशेषकर यह सवाल कि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार और सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने की जिम्मेदारी में संतुलन कैसे स्थापित किया जाए ?

घटनाक्रम की शुरुआत 4 सितंबर को कानपुर में एक धार्मिक जुलूस के निर्धारित मार्ग पर लगे "आई लव मुहम्मद ﷺ" के बैनर से हुई. स्थानीय हिंदू समूहों ने इस पर तत्काल आपत्ति जताई और इसे एक "नई परंपरा" की शुरुआत करने का प्रयास बताया.

उनका तर्क था कि सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए दशकों से यह एक अलिखित नियम रहा है कि स्थापित धार्मिक जुलूसों में किसी भी प्रकार की नई प्रथाओं या प्रदर्शनों की अनुमति नहीं दी जाती, ताकि किसी भी पक्ष को उकसावे का मौका न मिले. स्थिति की नाजुकता को भांपते हुए, पुलिस ने हस्तक्षेप किया.

इस दलील को मानते हुए कि नई परंपराओं से बचना चाहिए, बैनर को हटवा दिया. शुरुआत में, पुलिस ने स्पष्ट किया कि नारे के लिए कोई FIR दर्ज नहीं की गई है . मामला शांत होता दिख रहा था.

लेकिन तनाव की आग भीतर ही भीतर सुलग रही थी. कुछ दिनों बाद, 9 सितंबर को, पुलिस ने 24 लोगों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत FIR दर्ज कर ली. पुलिस का कहना था कि यह FIR नारे की सामग्री के लिए नहीं, एक नई परंपरा शुरू करने, पारंपरिक तंबू की जगह बदलने और शांति भंग करने की आशंका के लिए की गई थी.

यह खबर आग की तरह फैल गई. खासकर जब AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया कि पैगंबर से प्यार करना कोई अपराध नहीं. इस राजनीतिक हस्तक्षेप ने मामले को स्थानीय प्रशासनिक मुद्दे से उठाकर एक राष्ट्रीय धार्मिक अधिकार का मुद्दा बना दिया.

इसके बाद उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और उत्तराखंड के कई शहरों में मुसलमानों ने 'आई लव मुहम्मद' बैनर और तख्तियों के साथ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए. जहाँ लखनऊ में महिलाओं का विरोध प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहा, वहीं कई जगहों पर स्थिति हिंसक हो गई.

इसका सबसे गंभीर और दुखद उदाहरण बरेली में देखने को मिला. बरेली में, एक प्रभावशाली धार्मिक नेता, मौलाना तौकीर रज़ा ने जुमे की नमाज़ के बाद एक विशाल विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया था. उनके आह्वान पर हज़ारों की भीड़ इकट्ठा हुई. तनाव तेज़ी से बढ़ गया.

जब कुछ प्रदर्शनकारियों ने कथित तौर पर भड़काऊ नारे लगाए और पुलिस पर पथराव शुरू कर दिया, तो स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई. जवाब में, पुलिस को भीड़ को तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज और आंसू गैस का इस्तेमाल करना पड़ा. इस झड़प में कई पुलिसकर्मी घायल हुए.

दर्जनों प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया. इस प्रकार, कानपुर की एक गली में लगा एक बैनर देखते-ही-देखते एक राष्ट्रीय संकट का प्रतीक बन गया, जिसके केंद्र में एक नारा और उससे जुड़ी भावनाएँ थीं.

यह हिंसक टकराव हमें इस विवाद के कानूनी, नैतिक और सामाजिक पहलुओं पर गहराई से सोचने के लिए मजबूर करता है. सैद्धांतिक और कानूनी दृष्टिकोण से, "आई लव मुहम्मद ﷺ" का नारा धार्मिक भक्ति की एक सरल अभिव्यक्ति है.

भारत जैसे देश में, जहाँ विभिन्न धर्मों का संगम है, ऐसी अभिव्यक्तियाँ आम हैं. यह नारा अपने सार में "जय श्री राम" कहने या "आई लव जीसस" के स्टिकर लगाने से अलग नहीं है. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 सभी नागरिकों को अपने धर्म को अबाध रूप से मानने, उस पर अमल करने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है.

वहीं, अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है. इस कानूनी और नैतिक दृष्टिकोण से, किसी को भी अपने पैगंबर के लिए प्रेम व्यक्त करने पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए. तो फिर समस्या कहाँ उत्पन्न हुई? समस्या शब्द में नहीं, बल्कि संदर्भ में थी.

आज के ध्रुवीकृत सामाजिक और राजनीतिक माहौल में, किसी भी कार्य का मूल्यांकन केवल उसके शाब्दिक अर्थ से नहीं, बल्कि उसके समय, स्थान और संभावित प्रभाव से भी किया जाता है. नारा भले ही मासूम और पवित्र इरादे से लगाया गया, लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या इसे ऐसे समय में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करना बुद्धिमानी थी जब माहौल पहले से ही सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील हो?

क्या इसका उद्देश्य अनजाने में भी किसी दूसरे समुदाय को उकसाना या अपनी धार्मिक पहचान का आक्रामक प्रदर्शन करना था ? यह बहस नारे को गलत नहीं ठहराती, बल्कि उसके प्रदर्शन के समय और तरीके पर सवाल उठाती है. साथ ही, यह घटना हमें एक बड़े मुद्दे पर सोचने के लिए मजबूर करती है: हमें अपनी धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करते समय विवेक और हिकमत (बुद्धिमानी) से काम लेना चाहिए.

अधिकार होना एक बात है. उस अधिकार का प्रयोग कैसे और कब किया जाए, यह दूसरी और शायद ज़्यादा महत्वपूर्ण बात है. सीधे राज्य या सरकार से टकराव का रास्ता अपनाना अक्सर समुदाय के लिए ही हानिकारक साबित होता है.

जब प्रदर्शन शांतिपूर्ण सीमाओं को लांघकर हिंसक हो जाते हैं, तो सरकार को सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर सख्त कानून लागू करने का मौका मिल जाता है. अंततः नुकसान उसी समुदाय का होता है जो अपने अधिकारों के लिए लड़ रहा था. जब हम इस टकराव की रणनीति पर गहराई से सोचते हैं, तो एक और महत्वपूर्ण सवाल उठता है: इन प्रदर्शनों में सड़कों पर कौन होता है. इस पूरी राजनीति का असली फायदा किसे मिलता है?

इस सवाल का जवाब समझने के लिए मुस्लिम समाज के भीतर की सामाजिक संरचना को समझना बेहद ज़रूरी है. भारतीय मुस्लिम समाज कोई एकरूप इकाई नहीं है. यह जातियों और वर्गों में गहराई से बंटा हुआ है.

मुख्य रूप से दो वर्ग हैं: 'अशराफ़' और 'पसमांदा'. अशराफ़ वे लोग हैं जो खुद को विदेशी मूल (अरब, तुर्क, फ़ारसी) का वंशज मानते हैं. ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से कुलीन वर्ग रहे हैं. वहीं, 'पसमांदा' का फ़ारसी में अर्थ है 'जो पीछे रह गए. यह उन स्थानीय भारतीय लोगों का विशाल बहुमत है जिन्होंने इस्लाम कबूल किया था. वे अक्सर सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं.

दशकों से, भारतीय मुसलमानों का राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व अशराफ़ वर्ग के हाथों में रहा है.आलोचकों का तर्क है कि इस "अशराफ़ राजनीति" ने हमेशा अपनी प्रासंगिकता और पकड़ बनाए रखने के लिए भावनात्मक और धार्मिक मुद्दों का इस्तेमाल किया है.

शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, गरीबी और सामाजिक न्याय जैसे पसमांदा समाज के ज़मीनी और बुनियादी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, यह नेतृत्व अक्सर पहचान-आधारित मुद्दों जैसे कि नारे, धार्मिक प्रतीक या ईशनिंदा को हवा देता है.

ऐसा इसलिए है, क्योंकि भावनात्मक मुद्दों पर पूरे मुस्लिम समाज को, विशेषकर युवाओं को, धर्म के नाम पर एकजुट करना आसान होता है. "आई लव मुहम्मद ﷺ" जैसे विवादों में यही पैटर्न स्पष्ट रूप से दिखाई देता है.

जब भावनात्मक मुद्दों पर सड़कों पर उतरने का आह्वान किया जाता है, तो सबसे आगे पसमांदा समाज के युवा होते हैं. वे अपने धर्म और पैगंबर के प्रति सच्ची श्रद्धा और जुनून से प्रेरित होते हैं. वे उस बड़ी राजनीतिक शतरंज के मोहरे बन जाते हैं जिसका खेल अशराफ़ नेता खेल रहे होते हैं.

बरेली में मौलाना तौकीर रज़ा (जो एक अशराफ़ नेता हैं) के आह्वान पर जो भीड़ इकट्ठा हुई और हिंसा का शिकार हुई, उसमें अधिकांश पसमांदा नौजवान थे. इसका नतीजा हमेशा दुखद होता है. जब हिंसा होती है, पुलिस लाठियाँ बरसाती है, FIR दर्ज होती है और गिरफ्तारियाँ होती हैं, तो इसका खामियाजा पसमांदा परिवारों के लड़के भुगतते हैं.

वे सालों तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटते हैं, उनका भविष्य बर्बाद हो जाता है. उनके परिवार आर्थिक रूप से टूट जाते हैं. वहीं, जो नेता बंद कमरों से भड़काऊ भाषण देकर उन्हें सड़कों पर भेजते हैं, वे सुरक्षित रहते हैं.

इस टकराव से अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकते हैं. यह एक त्रासदी है कि जिन नौजवानों को अपनी गरीबी, बेरोज़गारी और पिछड़ेपन के खिलाफ सड़कों पर होना चाहिए था, उन्हें भावनात्मक रूप से इस कदर तैयार कर दिया गया है कि वे उन मुद्दों पर अपना सब कुछ दाँव पर लगा देते हैं जो अंततः उनके जीवन को बेहतर नहीं बनाते.

यह राजनीतिक विश्लेषण हमें एक और भी गहरे, रूहानी सवाल की ओर ले जाता है: आखिर पैगंबर मुहम्मद ﷺ से मोहब्बत करने का असली मतलब क्या है? हमें किसी रोल मॉडल या आदर्श की ज़रूरत क्यों पड़ती है?

इंसान की यह स्वाभाविक प्रकृति है कि वह प्रेरणा के लिए किसी की ओर देखता है. आज के दौर में लोग फिल्मी सितारों, खिलाड़ियों और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स की प्रशंसा करते हैं. उनकी जीवनशैली की नकल करते हैं. उनसे एक गहरा जुड़ाव महसूस करते हैं.

धर्म हमें एक दिव्य और शाश्वत रोल मॉडल प्रदान करता है, जिसका प्रभाव अस्थायी नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु के बाद भी रहता है. पैगंबर मुहम्मद ﷺ से मोहब्बत करने का आह्वान किसी भावना को जबरन महसूस करने का आदेश नहीं है.

यह उनके जीवन और चरित्र को जानने, समझने और अपनाने का निमंत्रण है. सच्ची मोहब्बत ज्ञान के बिना नहीं हो सकती. किसी व्यक्ति को गहराई से जाने बिना उससे स्थायी और सार्थक प्रेम करना असंभव है. इसलिए, पैगंबर से मोहब्बत का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम उनके जीवन (सीरत) का अध्ययन करना है.

जब हम उनके जीवन को पढ़ते हैं, तो हमें ऐसे गुण मिलते हैं जो केवल मुसलमानों के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए कालातीत सबक हैं. उनकी ईमानदारी ऐसी थी कि पैगंबरी मिलने से बहुत पहले, मक्का के लोग उन्हें "अल-अमीन" (विश्वसनीय) और "अस-सादिक़" (सत्यवादी) के नाम से जानते थे.

यहाँ तक कि उनके कट्टर दुश्मन भी अपना कीमती सामान उनके पास अमानत के तौर पर रखते थे. ईश्वर के दूत और एक शक्तिशाली राज्य के शासक होने के बावजूद, उन्होंने अविश्वसनीय रूप से विनम्र जीवन जिया. वे अपने फटे कपड़े खुद सिलते थे. अपनी बकरियों का दूध खुद दुहते थे.

अपने जूते खुद ठीक करते थे. सबसे गरीब और कमजोर लोगों के साथ बैठकर खाना खाते थे. शायद सबसे शक्तिशाली सबक उनकी क्षमा में निहित है. मक्का के लोगों द्वारा तेरह वर्षों तक क्रूर उत्पीड़न, सामाजिक बहिष्कार और अंततः निर्वासन के लिए मजबूर किए जाने के बाद, जब वे एक विजेता के रूप में मक्का लौटे, तो वही लोग उनके सामने पराजित और भयभीत खड़े थे.

उनके पास हर तरह का बदला लेने की शक्ति और अधिकार था, लेकिन उन्होंने सबको माफ़ करते हुए कहा, "जाओ, तुम सब आज़ाद हो." मुसलमानों के उनके प्रति गहरे प्रेम का सबसे मार्मिक कारण उनका अपनी उम्मत (समुदाय) के प्रति गहरा और अथाह प्रेम है. वे अक्सर अपनी नमाज़ों में अपनी आने वाली पीढ़ियों की क्षमा के लिए रोते थे. अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी उनके अंतिम शब्द थे: "उम्मती, उम्मती" ("मेरा समुदाय, मेरा समुदाय").

पैगंबर से प्रेम का दावा महज एक नारा नहीं. एक दर्पण है जिसमें हमारे अपने किरदार का अक्स दिखना चाहिए. इस प्रेम को साबित करने के लिए राजनीतिक रूप से संवेदनशील समय में बैनर उठाना एक ऐसा मार्ग है जो अंततः समुदाय को ही हानि पहुँचाता है. सच्ची श्रद्धा का प्रमाण हमारे कार्यों की सुगंध में है.

क्या हमारे व्यवहार से उनकी ईमानदारी, विनम्रता और दया की महक आती है? सबसे बड़ी चुनौती इस नारे को एक भौतिक वस्तु से एक आध्यात्मिक अवस्था में बदलने की है, जहाँ यह दिलों में बस जाए और हमारे हर अमल से झलके.

उन्हें सम्मान देने का सर्वोच्च तरीका उनकी शिक्षाओं की जीती-जागती मिसाल बनना है, जो दुनिया के लिए रहमत बनें. भारत की विविधतापूर्ण भूमि पर, टकराव के बजाय निर्माण का यह रास्ता ही आपसी समझ बढ़ाएगा और देश को जोड़ेगा. अंत में, असली विजय नारों की गूंज में नहीं,  बदले हुए दिलों की धड़कन में सुनाई देती है.

(डॉ. उज़्मा ख़ातून, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की पूर्व प्राध्यापिका, लेखिका, स्तंभकार और सामाजिक चिंतक हैं.)