साकिब सलीम
रमज़ान 2019 के पवित्र महीने में, मक्का में मुस्लिम वर्ल्ड लीग के तत्वावधान में दुनिया के 139 देशों से आए 1200 से अधिक इस्लामी विद्वानों और 4500 मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने एक ऐतिहासिक घोषणापत्र पर सहमति जताई—मक्का चार्टर. यह चार्टर मुस्लिम समुदाय के भीतर सह-अस्तित्व, वैश्विक शांति और संवाद को बढ़ावा देने की दिशा में एक बड़ा कदम था. मक्का चार्टर सुप्रीम कमीशन के चेयरमैन मोहम्मद बिन अब्दुलकरीम अल-इस्सा ने इसे एक ऐसी पहल बताया जिसमें मुस्लिम उलेमा ने यह स्पष्ट किया कि वे विश्व समुदाय का सक्रिय हिस्सा हैं और शांति, सौहार्द और मानवता की भलाई के लिए पुल बनाना चाहते हैं.
जहाँ एक ओर कई इस्लामी विद्वानों ने इस चार्टर को मदीना के संविधान की मूल भावना के अनुरूप बताया, वहीं कुछ आलोचकों ने इसे “धार्मिक अधिकार को केंद्रीकृत करने” और “मुसलमानों की वर्तमान पीड़ाओं को सामान्यीकृत करने” का प्रयास करार दिया.
लेकिन एक भारतीय मुसलमान के नाते, जो स्वयं को इस्लामिक स्कॉलर नहीं मानता, मुझे यह चार्टर अपनी परवरिश, अपने बुजुर्गों, उलेमा और सामान्य भारतीय मुस्लिम समाज की सोच के बेहद करीब प्रतीत होता है. हो सकता है कि यह पश्चिम एशिया या यूरोप के मुसलमानों के लिए एक नई सोच हो, पर हमारे लिए यह विचारधारा कोई नई बात नहीं है. यह हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक परंपरा का हिस्सा रही है.
चार्टर में कुल 30 बिंदु हैं और अंतिम बिंदु में कहा गया है कि “केवल योग्य और प्रशिक्षित इस्लामी विद्वान ही उम्मत के नाम पर बोलने के अधिकारी हैं.” यह बात भले ही पश्चिमी लोकतांत्रिक सोच के विपरीत लगे, जिसमें हर व्यक्ति की राय को बराबरी का दर्जा दिया जाता है, लेकिन भारतीय मुस्लिम समाज में यह एक आम धारणा रही है कि धार्मिक मामलों में बिना इल्म के बोलना अनुचित है.
डॉ. इक़बाल का मशहूर शेर,“जम्हूरियत एक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में, बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते”.इस सोच को बहुत खूबसूरती से बयां करता है. इस्लामी परंपरा में विद्वानों को पैगंबर का उत्तराधिकारी माना गया है और भारतीय मुसलमानों के बीच यह बात हमेशा से रही है कि धर्म पर बात करने के लिए इल्म ज़रूरी है, केवल भावनाएं काफी नहीं होतीं.
चार्टर के बिंदु 5 में कहा गया है कि ईश्वर समस्त मानवता के लिए प्रकट हुआ है और धर्मों के विभिन्न स्वरूप उसी की अभिव्यक्तियाँ हैं, जब वे अपने वास्तविक स्वरूप में पालन किए जाएँ.
यह विचार भी भारतीय मुसलमानों के लिए नया नहीं है. हमारे समाज में हमें बचपन से ही सिखाया गया है कि हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म जैसी अन्य आस्थाओं के प्रतीकों और व्यक्तित्वों का सम्मान किया जाना चाहिए. भारतीय मुस्लिम परंपरा में यह मान्यता रही है कि हिन्दू धर्म भी एकेश्वरवादी विचारधारा से जुड़ा है और विभिन्न देवी-देवता वास्तव में ‘ईश्वर के संदेशवाहक’ माने जाते हैं. सूफी संत मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ जैसे विद्वानों ने इस सोच को अपने लेखन में उजागर भी किया है.
हालांकि चार्टर का बिंदु 15 कुछ आलोचनाओं का विषय बना. इसमें कहा गया है कि “इस्लामोफोबिया का मूल कारण इस्लाम को सही रूप में न समझ पाना है. इसे समझने के लिए पूर्वग्रह और रूढ़िवादिता से मुक्त दृष्टिकोण की ज़रूरत है.” कुछ लोगों ने इसे इस्लामोफोबिया का दोष खुद मुसलमानों पर डालने की कोशिश बताया, लेकिन भारतीय मुसलमानों के लिए यह विचार नया नहीं है.
तब्लीगी जमात की पूरी सोच इसी आधार पर टिकी है. पहले मुसलमान खुद सही इस्लाम को समझें और उस पर अमल करें, ताकि उनका आचरण दूसरों को प्रभावित कर सके. सूफी विद्वान ख्वाजा हसन निज़ामी ने भी यही कहा कि मुसलमानों को ‘सच्चा इस्लाम’ अपनाना चाहिए जिससे अन्य धर्मों के लोग सहज महसूस करें और संवाद का वातावरण बने.
भारतीय मुस्लिम समाज में यह विचार बहुत सामान्य है कि मुसलमानों की समस्याओं की जड़ उनकी अपनी धार्मिक अनभिज्ञता में है. यह सोच किसी बाहरी घृणा को उचित नहीं ठहराती, लेकिन यह ज़रूर मानती है कि जो व्यक्ति ‘सच्चे मुसलमान’ हैं, उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकता.
चार्टर का बिंदु 27 कहता है कि “हमें न केवल हिंसा और आतंकवाद से बल्कि वैचारिक उग्रवाद से भी लड़ना चाहिए और युवाओं को सहिष्णुता, शांति और सह-अस्तित्व की इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर मार्गदर्शन देना चाहिए.” मक्का चार्टर में आतंकवाद के खिलाफ कई बार सख़्त शब्दों में निंदा की गई है.
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि अल-कायदा, ISIS, लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों के नेताओं में शायद ही कोई भारतीय मूल का रहा हो. भारत, जो दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी का घर है, जहाँ देवबंद, बरेली, तब्लीगी जमात जैसे बड़े इस्लामी आंदोलन पनपे, वहाँ इस्लाम के नाम पर आतंकवाद की कोई ज़मीन नहीं बन सकी. पाकिस्तान जैसे मुल्कों से अलग, भारतीय मुसलमानों ने कभी हिंसा का रास्ता नहीं चुना. यहाँ के उलेमा ने हमेशा शांति, संयम और सह-अस्तित्व की शिक्षा दी है.
वैश्विक संदर्भ में मक्का चार्टर भले ही एक नई पहल हो, लेकिन एक भारतीय मुसलमान के नाते, यह हमारे लिए किसी नई सोच का दस्तावेज़ नहीं बल्कि हमारे सदियों पुराने विश्वास, परंपरा और संस्कृति की वैश्विक पुनःपुष्टि जैसा है. शांति, सह-अस्तित्व, संवाद और धार्मिक सद्भाव की यह विरासत भारत के मुसलमानों की पहचान रही है और मक्का चार्टर उस सोच को एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्वीकृति देने जैसा प्रतीत होता है.