ढाई - चाल : सांप्रदायिकता के जहर पर राजनीति की चुप्पी

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 26-02-2023
ढाई - चाल : सांप्रदायिकता के जहर पर राजनीति की चुप्पी
ढाई - चाल : सांप्रदायिकता के जहर पर राजनीति की चुप्पी

 

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पिछले दिनों झारखंड के पलामू में जिस तरह से बेबात दंगा हुआ उसे लेकर पूरे देश के कान खड़े हो जाने चाहिए थे. लेकिन उस सांप्रदायिक हिंसा को दिल्ली के अखबारों तक में ठीक से जगह नहीं मिली. इसने यह साफ कर दिया कि बात सिर्फ अतिवादी सोच वाले कुछ नेताओं के जहर उगलने वाले बयानों भर की ही नहीं है. यह जहर कईं जगह फैल गया है.

थोड़ा सा दूर अगर हम हरियाणा में देखें तो वहां पिछले दिनों गो-तस्करी और गोहत्या के शक में दो लोगों को जला कर मार दिया गया. अब वहां तमाम जगह दोनों की हत्या के आरोपी के समर्थन में गांवों में पंचायते हो रही हैं. पुलिस को चेतावनी दी जा रही है कि किसी भी तरह की कार्रवाई न की जाए. हत्या का यह मामला राजस्थान में दर्ज किया गया है>वहां की पुलिस पशोपेश में है कि वह करे क्या ?
 
वैसे, राजस्थान की पुलिस क्या कर सकती है इसे हम रकबर खान के मामले में देख चुके हैं. रकबर को 2018 में गो-तस्करी के शक में भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला था. मामला जब अदालत में पहंुचा तो वहां वरिष्ठ वकीर नासिर अली नकवी को स्पेशल पब्लिक प्रासीक्यूटर नियुक्त किया गया.
 
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नकवी ने पिछले दिनों यह बताया कि राजस्थान सरकार इस मामले को आगे ले जाने के पक्ष में नहीं दिख रही है. यहां तक कि सरकार ने नकवी की फीस देने की जरूरत भी नहीं समझी.लेकिन सबसे गंभीर मामला पिछले दिनों पंजाब में अमृतसर जिले के अलनाला में देखने को मिला.
 
वहां एक गिरफ्तारी को लेकर जिस तरह से उन्माद दिखा. थाने पर हथियारों के साथ हमला हुआ, उसने चार दशक पहले की याद दिला दी, जब पूरा पंजाब आतंकवादी की चपेट में चला गया था. सबसे बड़ी बात है कि पुलिस का रवैया वैसा ही ढुलमुल रहा जैसा कि वह चार दशक पहले था.
 
वैसे सांप्रदायिक हिंसा और दंगों वगैरह का इतिहास इस देश में काफी पुराना रहा है. यह सब देश के आजाद होने के काफी पहले से चल रहा है. इससे मुक्त होने की कोशिशें भी तब से ही जारी हैं, लेकिन अगर 21वीं सदी में भी यह हो रहा है तो चिंता का विषय भी है और परेशानी का कारण भी. शर्मनाक तो खैर यह है ही.
 
इन दिनों ज्यादा बड़ी दिक्कत यह हुई है कि जब भी कहीं सांप्रदायिक तनाव होता है, उसे शांत करने की सक्रिय राजनीतिक कोशिशों के बजाए उसे चुनाव की नजर से तौला जाने लगता है. यह ठीक है कि पिछले कुछ साल से देश में वैसे जघन्य दंगे नहीं हुए जैसे अतीत में हो चुके हैं, लेकिन यह भी सच है कि अब हर चैथे दिन जिस तरह के आग लगाने और नफरत फैलाने वाले बयान सामने आ जाते हैं .
 
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वैसी निरंतरता ऐसे बयानों में पहले कभी नहीं थी.पहले कहीं भी तनाव फैलते ही शांति समितियां बनाई जाने लगती थीं.अब आमतौर पर ऐसा नहीं सुनाई देता. नफरत का जहर लगातार फैलाया जा रहा है यह परेशानी की बात है, लेकिन इसे लेकर बड़े नेताओं की चुप्पी ज्यादा परेशानी की चीज है.
 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )