ढाई - चाल : इतिहास के गड़े मुर्दों की राजनीति

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 20-02-2023
ढाई - चाल : इतिहास के गड़े मुर्दों की राजनीति
ढाई - चाल : इतिहास के गड़े मुर्दों की राजनीति

 

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हम राजनीति के उस दौर में हैं जहां अचानक ही किसी भी दिन किसी मोड़ पर इतिहास से निकाल कर कोई गड़ा मुर्दा खड़ा कर दिया जाता है और यह भी दावा कर दिया जाता है कि आगे का भविष्य अब इसी से तय होगा. जहां पर चुनाव नजदीक होते हैं वहां यह कुछ ज्यादा ही होने लगता है.

कर्नाटक का विधानसभा चुनाव अब बहुत दूर नहीं है. ऐसे में हम उम्मीद करते हैं कि कर्नाटक के लोगों की समस्याओं और उनके मुद्दों पर चर्चा हो.लेकिन वहां चर्चा हो रही टीपू सुल्तान पर. कर्नाटक प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष नवीन कुमार कतील ने पिछले दिनों एक भाषण में टीपू सुल्तान का नाम लिया तो अब देश भर में हर दूसरा-तीसरा नेता टीपू सुल्तान पर ही बोल रहा है.
 
कतील ने अपने इस भाषण में जो कहा वह अनावश्यक भी है और निरर्थक भी. उन्होंने कहा कि हम लोग राम और हनुमान को मानने वाले हैं. हम टीपू सुल्तान को नहीं मानते। जो लोग टीपू सुल्तान को मानते हैं वे उन्हें यहां से चले जाना चाहिए. राम और हनुमान के साथ टीपू सुल्तान को जोड़ने की कोई तुक भी नहीं है.
 
लेकिन इससे जो विवाद खड़ा हुआ उसमें पहले आॅल इंडिया मजलिसे इत्तहादुल मुसलमीन के नेता असुद्दीन ओवेसी कूदे और फिर कांग्रेस भी कूद पड़ी. अब हर तरफ कुतर्क खोजे जा रहे हैं और बतंगड़ बन रहा है.
 
इतिहास की जानकारी रखने वाले कह रहे हैं कि अतीत की ऐसी शख्सीयतें काफी जटिल होती हैं और उनके कईं पक्ष होते हैं. लेकिन राजनीति में विवाद की संभावना वाले पक्ष को सामने लाकर कईं दूसरे पक्षों को नजरंदाज कर दिया जाता है.
 
ठीक यहीं पर 1990 के दशक के उस विवाद को याद कर लेना जरूरी है जो टेलीविजन सीरियल- टीपू सुल्तान की तलावार से शुरू हुआ था. जिन दिनों यह सीरियल दूरदर्शन पर दिखाया जा रहा था इसे लेकर काफी हंगामा किया गया.
 
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यह कहा गया कि हैदर अली और टीपू सुल्तान के शासनकाल में लोगों का सांप्रदायिक दमन हुआ था। या तो वह सब इस सीरियल में दिखाया जाए या फिर इस पर पाबंदी लगाई जाए.विवाद के बाद इस मसले पर एक कमेटी बनाई गई थी जिसके अध्यक्ष थे वरिष्ठ पत्रकार और भाजपा नेता केवल रतन मलकानी.

इसके साथ ही मलकानी को राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का खांटी कार्यकर्ता भी माना जाता था. वे संघ के दोनों मुखपत्र आर्गेनाइज़र और पांचजन्य के संपादक रह चुके थे. मलकानी ने तमाम पक्षों से बात करने के बाद जो रिपोर्ट दी वह पढ़ी जानी चाहिए। बाद में उन्होंने इस मुद्दे पर नवभारत टाईम्स में एक लेख भी लिखा था.
 
मलकानी का कहना था कि इतिहास की शख्सीयतों के बारे में हम जो कोई फिल्म या सीरियल बनाते हैं या कोई उपन्यास कहानी वगैरह लिखते हैं तो उनके उन्हीं पक्षों को सामने लाते हैं जिनसे लोग प्रेरणा ले सकें. ऐसी चीजों में विवादास्पद पक्षों के लिए कोई जगह नहीं होती.
 
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तीन दशक पहले के आर मलकानी ने जो कहा था वह आज भी हमारी राजनीति को रास्ता दिखा सकता है. पर दिक्कत यही है कि राजनीति करने वाले यह रास्ता देखना कहां चाहते हैं ?
 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )