ढाई - चाल : सामाजिक कुप्रथा को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 13-02-2023
सामाजिक कुप्रथा को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश
सामाजिक कुप्रथा को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश

 

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सामाजिक समस्याओं से राजनीति और प्रशासन के जरिये किस हद तक निपटा जा सकता है इसे लेकर चलने वाली बहस बहुत पुरानी है. इन दिनों असम में जो हो रहा है उससे यह बहस एक बार फिर सतह पर आ गई है.पिछले कुछ दिनों में इस राज्य में दो हजार से ज्यादा लोगों को बाल विवाह के आरोप में गिरफ्तार किया गया। बाल विवाह को लेकर देश में चलने वाला विवाद कोई नया नहीं है. जब भी जहां से भी इसकी खबरें आती हैं इस कुप्रथा को रोकने की कोशिशें भी की जाती हैं.

 इसमें अक्सर पुलिस का सहयोग भी लिया जाता है। राजस्थान में इस कुप्रथा को असर ज्यादा दिखाई देता है इसलिए शादियों के सीजन से पहले वहां प्रशासन इसे रोकने के लिए सक्रिय हो जाता है, लेकिन चंद दिनों में ही असम में जिस पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं वैसा कम ही सुनने को मिलता है.
 
लेकिन ज्यादा चिंता की बात यह थी कि इस सब को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया. इसे कुछ इस तरह से पेश किया गया कि जैसे यह सिर्फ भारत के मुस्लिम समुदाय की ही समस्या है। गिरफ्तारियां भी इसी समुदाय के लोगों की हुईं. इससे तुरंत ही जो प्रतिक्रिया शुरू हुई वह भी सांप्रदायिक ही थी.
 
स्थानीय नेताओं के शुरुआती बयानों के बाद आॅल इंडिया मजलिसे इत्तहादुल मुसलमीन के नेता असुद्दीन ओवेसी ने अपनी शैली में तीखी प्रतिक्रिया दी. उन्होंने राज्य सरकार पर यह आरोप लगाया कि वह मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह के कारण उनके खिलाफ कार्रवाई कर रही है. इसके बाद आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड सक्रिय हुआ। उसने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने की चेतावनी दी.
 
राजनीति अपनी जगह है लेकिन यह सच है कि असम में बाल विवाह एक बड़ी समस्या है. नेशनल फेमिली हैल्थ सर्वे-5 के अनुसार राज्य में 11.7 फीसदी महिलाएं 15 से 19 साल की उम्र में ही मां बन जाती हैं. सर्वे यह नहीं बताता कि ये महिलाएं किस समुदाय की हैं. इसे लेकर किए गए कईं दूसरे अध्ययन यह बताते हैं कि इसका सबसे बड़ा कारण अशिक्षा और गरीबी है.
 
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कुछ साल पहले इंडिया स्पैंड ने इसे लेकर एक विस्तृत अखिल भारतीय अध्ययन किया था। इसमें यह पाया गया कि देश में बाल विवाह के 84 फीसदी मामले हिंदुओं में पाए जाते हैं, जबकि 11 फीसदी मामले देश के मुसलमानों में.
 
इसे अगर आबादी के अनुपात के लिहाज से देखें तो बाल विवाद देश के हिंदुओं के लिए भी उतनी ही बड़ी समस्या है जितनी देश के मुसलमानों के बीच। इसके मुकाबले देश के अन्य समुदायों में यह उतनी बड़ी समस्या नहीं है.
 
पिछले कुछ साल में यह कईं जगह दिख रहा है कि जो समस्याएं पूरे समाज की हैं उन्हें भी राजनीतिक कारणों से हिंदू मुसलमान का रंग दिया जा रहा है. बाल विवाह एक तरफ तो सामाजिक सुधार का मामला है और दूसरी तरफ उन हालात को खत्म करने का भी जिनकी वजह से लोग अपने बच्चों की शादी उनके बचपन में ही कर देते हैं.
 
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सांप्रदायिक रंग देने से यह समस्या हल होने के बजाए और जटिल ही होती जाएगी। लेकिन इस राजनीति को रोकेगा कौन ?
 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )