अफ़रोज़ शाह नागरिक-नेतृत्व वाली पर्यावरणीय कार्रवाई का एक वैश्विक प्रतीक बन गए हैं. 2015में उन्होंने एक ऐसा अभियान शुरू किया जो आगे चलकर दुनिया का सबसे बड़ा समुद्र तट सफ़ाई अभियान बन गया—प्रेम, आक्रोश और ज़िम्मेदारी का एक ऐसा कार्य जिसने न सिर्फ़ मुंबई के वर्सोवा बीच को, बल्कि दुनिया के सामुदायिक कार्यों के प्रति दृष्टिकोण को भी बदल दिया. यहां प्रस्तुत है भक्ति चालक की अफ़रोज़ शाह पर एक विस्तृत रिपोर्ट .
भारत के पश्चिमी तट पर पले-बढ़े अफ़रोज़ को साफ़ तालाबों, जीवंत मैंग्रोव और प्राचीन समुद्र तटों का वह दौर याद है. लेकिन किशोरावस्था तक आते-आते वह सुंदरता लुप्त हो गई थी. वर्सोवा बीच, जो कभी उनका बचपन का आश्रय स्थल था, अब एक कूड़ाघर बन गया था—पाँच फ़ीट गहरे समुद्री मलबे में. उन्होंने उस सदमे का वर्णन करते हुए, जिसने उन्हें कार्रवाई करने के लिए प्रेरित किया, "प्लास्टिक मेरे कानों तक पहुँच गया था."
वह क्षण अक्टूबर 2015में आया जब अफ़रोज़ 42 साल के थे और वे कचरे से भरे वर्सोवा तट के सामने वाले एक फ़्लैट में रहने चले गए. उन्होंने कहा, "कुछ बहुत ग़लत था, और तुरंत कुछ करना ज़रूरी था." दस्तानों और दृढ़ इच्छाशक्ति से लैस होकर, उन्होंने और उनके 83वर्षीय पड़ोसी, हरबंश माथुर ने सफाई शुरू की. यह एक निजी काम था. अफ़रोज़ ने सरकारी हस्तक्षेप का इंतज़ार करने से इनकार करते हुए कहा, "यह मेरा ग्रह है, मेरी धरती है, मेरा महासागर है, और मुझे इसे साफ़ करना ही होगा."
महीनों तक, सिर्फ़ वे दोनों ही थे. एक ऐसे शहर में जहाँ 'समय पैसे से ज़्यादा महत्वपूर्ण है', उनके अथक प्रयासों ने लोगों का ध्यान खींचा. जल्द ही, एक आंदोलन का जन्म हुआ. अफ़रोज़ पेशे से वकील हैं, जिससे उन्हें सक्रियता की गहरी समझ मिली.
उनकी निरंतरता ने सैकड़ों स्वयंसेवकों—झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले, छात्र, मछुआरे, पेशेवर—को 'समुद्र के साथ एक दिन' के लिए प्रेरित किया. इस अभियान ने ज़मीनी कार्रवाई को जागरूकता के साथ जोड़ा, और सफ़ाई को शिक्षित और सशक्त बनाने के साधन के रूप में इस्तेमाल किया.
85 हफ़्तों के भीतर, पाँच मिलियन किलोग्राम से ज़्यादा कचरा हटा दिया गया. इस बदलाव ने दुनिया को चौंका दिया. पुनर्जीवित वर्सोवा बीच की तस्वीरें वायरल हो गईं, और 2016में, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने इसे 'विश्व इतिहास का सबसे बड़ा समुद्र तट सफ़ाई अभियान' कहा.
2016 में, UNEP ने अफ़रोज़ शाह को अपने सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार - चैंपियंस ऑफ़ द अर्थ से सम्मानित किया, जिससे वे यह सम्मान पाने वाले पहले भारतीय बन गए. उनके सफ़ाई अभियान समुदाय-नेतृत्व वाली जलवायु कार्रवाई के लिए एक वैश्विक मॉडल बन गए.
बॉलीवुड अभिनेताओं से लेकर राजनीतिक नेताओं तक, हज़ारों लोग इस आंदोलन में शामिल हुए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में अफ़रोज़ की सराहना की; उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने सार्वजनिक रूप से इस अभियान का समर्थन किया. एडिडास और डाउ जैसे ब्रांडों के साथ कॉर्पोरेट साझेदारी से संसाधन और मशीनरी उपलब्ध हुईं.
इसके बाद पुरस्कार मिले: सीएनएन-न्यूज़18इंडियन ऑफ़ द ईयर, सीएनएन हीरो, जीक्यू इको वॉरियर, आदि. लेकिन अफ़रोज़ अपनी ज़मीन पर डटे रहे. उन्होंने कहा, "यह सिर्फ़ साफ़ समुद्र तट के बारे में नहीं है - यह समुद्री मलबे को कम करने और ऐसा करते हुए सीखने के बारे में है."
अफ़रोज़ ने सफ़ाई को कभी भी अंतिम लक्ष्य नहीं माना. यह गहन सुधार का प्रवेश बिंदु था. उन्होंने समझाया, "समुद्र तट की सफ़ाई को ग़लत समझा जाता है. यह समुद्र के पेट में प्रवेश करने वाले प्लास्टिक को कम करने के बारे में है."
2023 में, उन्होंने अफरोज शाह फाउंडेशन की स्थापना की, जिसमें दृश्य सफाई से ध्यान हटाकर तीन-चरणीय मॉडल पर ध्यान केंद्रित किया गया: प्री-लिटर - उपभोक्ताओं को अनावश्यक पैकेजिंग से बचने के लिए प्रोत्साहित करना, लिटर - पृथक्करण और पुनर्चक्रण के लिए सामुदायिक स्तर की प्रणाली बनाना और पोस्ट-लिटर - समुद्र तटों, मैंग्रोव और महासागरों की निरंतर सफाई.
उनका फाउंडेशन अब मुंबई में 4,00,000 से ज़्यादा लोगों को जोड़ चुका है और 25गाँवों में पर्यावरण-कार्यवाही शुरू कर चुका है, और उनका लक्ष्य 200और गाँवों तक पहुँचना है. अफ़रोज़ 200से ज़्यादा स्कूलों और कॉलेजों के साथ भी काम करते हैं और युवाओं को प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पुनर्विचार करने में मदद करते हैं. झुग्गी-झोपड़ियों से लेकर कॉर्पोरेट कार्यालयों तक, वे व्यवहार परिवर्तन का आग्रह करते हुए सत्र आयोजित करते हैं. वे ज़ोर देकर कहते हैं, "प्रदूषण दिमाग से शुरू होता है और वहीं खत्म होना चाहिए."
एक वकील के रूप में, अफ़रोज़ नीतिगत विफलताओं के बारे में अनोखी अंतर्दृष्टि रखते हैं. वे भारत में प्लास्टिक प्रतिबंध और विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (ईपीआर) नियमों के कार्यान्वयन में कमियों के बारे में मुखर हैं. वे तर्क देते हैं, "ज़मीनी हक़ीक़तों से अलग क़ानून न बनाएँ. सूक्ष्म-विवरणों में जाएँ. उन्हें लागू करने योग्य बनाएँ."
वे अपशिष्ट प्रबंधन से अलग एक सर्कुलर इकोनॉमी एक्ट की माँग करते हैं और संविधान में "पर्यावरण" को समवर्ती सूची में रखने की वकालत करते हैं—जिससे केंद्र और राज्य दोनों स्पष्ट रूप से कानून बना सकें. फ़िलहाल, यह क़ानूनी तौर पर अस्पष्ट है.
अफ़रोज़ वैश्विक प्लास्टिक संधि वार्ताओं को लेकर भी संशय में हैं. वे कहते हैं, "ये आँकड़ों से ज़्यादा कूटनीति से प्रेरित हैं." भारत के संविधान निर्माण के साथ तुलना करते हुए, वे एक ज़्यादा कठोर, साक्ष्य-आधारित प्रक्रिया का प्रस्ताव रखते हैं: "हमें हफ़्ते भर चलने वाले शिखर सम्मेलनों की नहीं, बल्कि साल भर काम करने वाली समर्पित समितियों की ज़रूरत है."
अफ़रोज़ के लिए, यह सिर्फ़ स्वच्छता का मामला नहीं है—यह सह-अस्तित्व का मामला है. वे कहते हैं, "मानव अधिकारों का अंत वहीं होना चाहिए जहाँ अन्य प्रजातियों के अधिकार शुरू होते हैं." उनका संदेश तीखा है: "हम सरकार को दोष देते रहते हैं. लेकिन सरकार कूड़ा नहीं फैला रही है—हम फैला रहे हैं."
वे प्रदर्शनकारी सक्रियता की आलोचना करते हैं: "ऐसे लोग हैं जो ज़िंदगी भर कैमरे के सामने कलम और कागज़ लिए बैठे रहते हैं. दस साल बाद भी, समस्या जस की तस है." इसके विपरीत, उनकी अपनी यात्रा निरंतर, भौतिक कार्रवाई की है—ज़मीनी, आशावादी और गहराई से भारतीय.
अफ़रोज़ शाह की यात्रा साबित करती है कि बदलाव के लिए राजनीतिक शक्ति या बड़े पैमाने पर धन की ज़रूरत नहीं होती. इसके लिए दिल, आदत और रेत में हाथ डालने की ज़रूरत होती है.