हरजिंदर
केंद्र में मोदी सरकार के नौ साल पूरे होने पर एक अंग्रेजी चैनल में डिबेट चल रही थी. डिबेट में भारतीय जनता पार्टी के एक राज्यसभा सदस्य ने पूरी विनम्रता से स्वीकार किया कि मुसलमान अभी उनकी पार्टी से बहुत ज्यादा जुड़ नहीं पाए हैं, लेकिन उनका यह बयान शायद भाजपा की उस छवि को ही पुख्ता करने वाला था जो आमतौर पर राजनीति और मीडिया दोनों में ही बनाई जाती है.
जबकि जो जमीनी स्थिति है उससे यही लगता है कि ये हालात बदल सकते हैं ,बशर्ते पार्टी की ओर से थोड़ी कोशिश हो.बहुत ज्यादा समय नहीं बीता जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में पसमांदा मुसलमानों का जिक्र करते हुए उनसे हमदर्दी जताई थी.
राजनीतिक रूप से इसे ऐसे देखा गया कि प्रधानमंत्री ने पसमांदा मुसलमानों की तरफ हाथ बढ़ाया है और अब वे उनके वोट हासिल करने की कोशिश करेंगे, लेकिन भाजपा की जिस तरह की राजनीति है और जिस तरह से अपने देश में राजनीति का विमर्श चलता है उसमें यह बात जल्द ही भुला दी गई.
यही कहा गया कि मुसलमानों की मुख्यधारा भाजपा के नजदीक आने में परहेज ही रखेगी.लेकिन जमीन पर हालात किस तरह से बदल रहे हैं इसका उदाहरण पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में हुए स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजों में देखने को मिला.
हालांकि भाजपा ने इन नतीजो का इस्तेमाल कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार का जवाब देने भर के लिए किया. जबकि उत्तर प्रदेश में जमीनी स्तर पर जिस तरह का बदलाव हुआ है उसका विश्लेषण आमतौर पर नहीं हुआ.
स्थानीय निकायों के इन चुनाव में भाजपा के टिकट पर उसके 60 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीते. इनमें से अगर छह-सात को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी पसमांदा हैं. इससे यह भी समझ में आता है कि भाजपा ने टिकट देने में बाकी मुसलमानों के मुकाबले पसमांदा उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी है.
यह ठीक है कि कई राज्यों के विधानसभा चुनावों और आम चुनावों में भी भाजपा ने कुछ मुस्लिम उम्मीदवारों को समय-समय पर टिकट दिए हैं. उनमें से कुछेक जीते भी हैं. लेकिन इस सब में आप देश की मुस्लिम आबादी का अनुपात नहीं देख सकते.
वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब किसी राज्य में भाजपा के टिकट पर बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार स्थानीय निकायों के चुनावों में जीतकर आए हों. 2015 में गुजरात में हुए स्थानीय निकायों के चुनावों में भाजपा के टिकट पर 110 मुस्लिम उम्मीदवार जीतकर आए थे.
उत्तर प्रदेश के मुकाबले गुजरात के आकार को देखते हुए यह संख्या काफी बड़ी कही जा सकती है. लेकिन पांच साल बाद 2021 के स्थानीय निकाय चुनाव में भाजपा ने वहां सिर्फ 31 मुस्लिम उम्मीदवारों को ही टिकट दिए.
वहां मुस्लिम समुदाय में भाजपा ने जो बढ़त हासिल की थी उससे उसने खुद ही हाथ खींच लिए. इसलिए उत्तर प्रदेश के इन चुनाव नतीजों से बड़ी उम्मीद बांधने का वक्त शायद अभी नहीं आया है.
भाजपा की भावी राजनीति अब इस पर भी निर्भर करेगी कि उत्तर प्रदेश में पार्टी ने जो बढ़त हासिल की है उसे वह किस दिशा में ले जाती है. भाजपा चाहे तो इन नतीजों को अपने माथे पर सजा सकती है और अपनी प्रचार सामग्री में प्रमुखता से आगे रख सकती है. हालांकि उसने अभी तक ऐसा नहीं किया। क्या वह आगे ऐसा करेगी ?
यह इस पर निर्भर करेगा कि भाजपा को अपनी छवि बदलने की कितनी जरूरत महसूस हो रही है.यहां इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है कि इस पार्टी के कुछ नेता अक्सर नफरत की राजनीति में शामिल दिखाई देते हैं. और पार्टी ने ऐसे नेताओं से या उनके विवादास्पद बयानों से पल्ला झाड़ने की भी बहुत ज्यादा कोशिशें नहीं की.
उत्तर प्रदेश स्थानीय निकायों के नतीजों से एक अर्थ यह तो निकाला ही जा सकता है कि पसमांदा मुसलमानों ने भाजपा की ओर हाथ बढ़ाया है. इस बदलाव को किधर ले जाना है अब यह भाजपा को ही तय करना होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )