कॉमनवेल्थ गेम्स 2022: केवल पांच मुस्लिम खिलाड़ी ही क्यों?

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 28-07-2022
कॉमनवेल्थ गेम्स 2022: केवल पांच मुस्लिम खिलाड़ी ही क्यों?
कॉमनवेल्थ गेम्स 2022: केवल पांच मुस्लिम खिलाड़ी ही क्यों?

 

मलिक असगर हाशमी

बर्मिंघम में देर रात शुरू हुए कॉमनवेल्थ गेम्स 2022 में भारतीय खिलाड़ी भी अपना जलवा दिखाने के लिए तैयार हैं. तकरीबन 200  खिलाड़ियों के भारतीय दल में कई ऐसे खिलाड़ी हैं, जो इससे पहले कई अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगितयाओं में अपना लोहा मनवा चुके हैं. हालांकि, वर्ल्ड एथेलेटिक्स के दौरान चोटिल होने के कारण भाला फेंक के स्टार खिलाड़ी नीरज चोपड़ा इस कॉमनवेल्थ गेम्स में मौजूद नहीं हैं.

इसके बावजूद उम्मीद की जा रही है कि पिछले कॉमनवेल्थ गेम्स के मुकाबले इस बार भारत की झोली में अधिक पदक आएंगे. इसके साथ यह भी आशा की जा रही है कि इस बार पदक लाने में कई मुस्लिम खिलाड़ियों का विशेष योगदान रहेगा. इन मुस्लिम खिलाड़ियों में महिला बॉक्सर निकहत जरीन और पुरुष मुक्केबाज मोहम्मद हसमुद्दीन का नाम उल्लेखनीय है. इस बार भारतीय दल में पांच मुस्लिम खिलाड़ी शामिल किए गए हैं.

देश की दूसरी बड़ी आबादी होने के बावजूद मुस्लिम खिलाड़ियों का इतनी कम संख्या में चयनित होना वास्तव में बेहद चिंताजनक है. इसके निहितार्थ यही हैं कि तकरीबन 20 करोड़ की मुस्लिम आबादी होने के बावजूद इस कौम से आला दर्जे के खिलाड़ी नहीं पैदा हो रहे हैं.

बेशक, खेल में कोई जाति-धर्म नहीं चलता. चलती है तो खिलाड़ी की प्रतिभा. प्रतिभावान खिलाड़ी की क्षमता को दबाने का मतलब है समाज और देश को पीछे धकेलना. खिलाड़ी अपने देश, समाज के एम्बेसडर होते हैं. वे जब कोई तमगा लेकर लौटते हैं, तो उनके परिवार से ज्यादा उस, मोहल्ले, गांव, शहर, प्रदेश, देश और समाज के लोग खुश और गौरवान्वित होते हैं, जिससे वह संबंध रखता है.

इस लिहाज से कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए भारतीय टीम के कम मुस्लिम खिलाड़ियों की मौजूदगी को इस कौम को गंभीरता से लेना होगा. मजहबी और मुस्लिम इदारों को इस दिशा में पहल करनी चाहिए. मुस्लिम समाज में खेल का माहौल बनाने की जरूरत है. देश में ऐसी कई जातियां और समुदाय हैं, जिनकी संख्या तो बहुत कम हैं, पर खिलाड़ी पैदा करने में वे मशीन की तरह काम करती  हैं.

खिलाड़ी पहले घर, समाज और स्थानीय स्तर पर तैयार होते हैं. सरकार और संगठन की भूमिका उसके अच्छा प्रदर्शन करने के बाद आती है. देश की मुस्लिम आबादी का बड़ा हिस्सा आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन से जूझ रहा है.

मगर यह समस्याएं खेल में बाधा नहीं बनतीं. देश-विदेश में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो कई अभावों के बावजूद बड़े खिलाड़ी बनकर उभरे हैं. इसकी मिसाल हैं जमैका के फर्राटा धावक उसैन बोल्ट, जिन्होंने बाधाओं को पार करके रफ्तार की दुनिया में अपना नाम कमाया है. इसके बरअक्स, कमाल की बात है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए भारतीय टीम में जगह बनाने वाले तमाम स्टार खिलाड़ियों की कहानी यही है कि वे अभावों में जन्मे हैं.

ऐसे खिलाड़ी पढ़ाई में भी बहुत अच्छे नहीं रहे. उन्हें शुरुआत में खेल का माहौल और प्रोत्साहन मिला, फिर वे बढ़ते चले गए. मुस्लिम कौम ऐसा क्यों नहीं कर सकती. देश के कुछ बड़े मदरसों में कुछ खास गेम के खिलाड़ियों को पैदा करने की व्यवस्था की जा सकती है.

मदरसों के माध्यम से मुसलमानों के बीच अच्छा खेल का माहौल बनाया जा सकता है. देश में कई गुरुकुल ऐसे है, जहां से संस्कृत के विद्वान तो निकलते ही हैं, कई बडे़ योगाचार्य भी दिए हैं. एक गुरुकुल के बच्चे ने हाल ही में एक टीवी कार्यक्रम में अपने गायन से तहलका मचा दिया था. मदरसे के बच्चे खेल में देश-विदेश में अपना और अपने समाज का लोहा मनवा सकते हैं.

भारत के हर जिले और कस्बे में जर्जर ही सही, स्टेडियम मौजूद है. प्रत्येक जिले में कई खेलों के सरकारी कोच भी हैं. इसके अलावा सरकार खेलो इंडिया जैसी स्कीम भी चला रही है. इसका लाभ मुसलमान क्यों नहीं उठा रहा है.

इसके अलावा अपने देश में सानिया मिर्जा से लेकर निकहत जरीन और मोहम्मद अजहरुद्दीन से लेकर हॉकी खिलाड़ी जफर इकबाल तक अनेक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी मौजूद हैं.

मुस्लिम इदारे ऐसे खिलाड़ियों का लाभ क्यों नहीं उठाते. अच्छी व्यवस्था हो, तो प्रायोजक भी मिल जाते हैं. वैसे, क्रिकेट में मुस्लिम खिलाड़ियों ने काफी नाम कमाया है. मौजूदा दौर के सबसे तेज़ गेंदबाज उमरान मलिक हो, शानदार विकेट टेकर मोहम्मद शमी हो, मोहम्मद खलील, मोहम्मद सिराज जैसे गेंजबाज तो हैं ही, अतीत में युसुफ पठान, इरफान पठान और मुनाफ पटेल जैसे खिलाड़ियों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है.

इसके अतिरिक्त मुंबई के रणजी खिलाड़ी और पाए के बल्लेबाज सरफराज खान भी है जो टीम इंडिया में शामिल होने के लिए दस्तक दे रहे हैं. इसके पीछे शायद यह भी वजह है कि क्रिकेट के लिए बुनियादी सुविधाओं की कमी नहीं है.

लेकिन एथलेटिक्स या बैडमिंटन और टेनिस खेलों में मुस्लिम नुमाइंदगी नाममात्र की है. मुस्लिम कौम अपने बीच से खिलाड़ी पैदा करने का कोई प्रयास नहीं कर रही है. मुस्लिम और इस्लामिक इदारों को इसके लिए जागरूकता अभियान चलाना चाहिए. साथ ही अपने खिलाड़ियों को इनाम और सम्मान देकर हौसला अफजाई भी करना चाहिए.

मुक्केबाज निकहत जरीन जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड मेडल लेकर आई, तो क्या किसी मुस्लिम इदारे ने उन्हें सम्मानित किया? यदि आप अपने लोगों का हौसला नहीं बढ़ाएंगे, तो खिलाड़ी कैसे निकलेंगे. यदि रखिए, अच्छे खिलाड़ी अपने समाज और देश के प्रति नजरिया बदल सकते हैं. चीन, जापान, अमेरिका जर्मनी, क्यूबा जैसे अनेक देश उदाहरण हैं. अब तो सउदी अरब से भी खिलाड़ी निकलने लगे हैं.