हरजिंदर
असद्दुदीन ओवेसी और उनकी पार्टी के एक और सांसद ने लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक के खिलााफ वोट दिया। सिर्फ ये दो ही वोट थे जो इस बिल के विरोध में पड़े. उनका तर्क था कि इससे मुस्लिम महिलाओं को तब तक पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा जब तक इसमें उनके लिए आरक्षण की विशेष व्यवस्था नहीं की जाती. उन्होंने इसके साथ ही अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को भी आरक्षण देने की बात की। यही बात और दलों के लोगों ने भी कही लेकिन उन्होंने बिल के विरोध में वोट नहीं दिया.
शाम को ओवेसी जब एक टीवी चैनल पर इंटरव्यू के लिए बैठे तो उनसे पूछा गया कि उन्हें अगर मुस्लिम महिलाओं की इतनी ही चिंता है तो उनकी पार्टी ने आज तक संसदीय चुनाव या विधानसभा चुनाव के लिए किसी महिला को कभी टिकट क्यों नहीं दिया. उनका जवाब था कि उनकी पार्टी ने कईं जगह से स्थानीय निकाय चुनावों के लिए मुस्लिम महिलाओं को टिकट दिया है और वे वहां से जीती भी हैं.
स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं को टिकट देना मजबूरी है, क्योंकि वहां उनके लिए पहले से ही आरक्षण है। जाहिर है कि अगर लोकसभा और विधानसभाओं में भी आरक्षण होगा तो उनमें भी महिलाओं को टिकट देने की मजबूरी हर दल के सामने पेश आएगी.
हालांकि महिलाओं के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण देने के जो तर्क हैं उनमें दम हो सकता है और मुमकिन है कि भविष्य में इसकी भी राजनीति अपना दबाव बनाए. लेकिन यहां सवाल यह है कि देश का मुस्लिम नेतृत्व अपने भीतर से महिलाओं को आगे लाने में क्यों नाकाम रहा.
देश में मुस्लिम महिला नेताओं के नाम उंगलियों पर गिने जा सकते हैं. गिनने लगेंगे तो उंगलियां ज्यादा होंगी, नाम कम। इस समय लोकसभा में सिर्फ दो मुस्लिम महिलाएं सदस्य हैं. कुछ लोकसभा ऐसी भी रहीं हैं जिनमें एक भी मुस्लिम महिला सदस्य नहीं थी.
कुछ समय पहले भारतीय जनता पार्टी ने तीन तलाक कानून को खत्म करने के नाम पर कुछ मुस्लिम महिलाओं को अपने साथ जोड़ा था. पार्टी चाहती तो उसमें से भी नेतृत्व विकसित कर सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
महिला आरक्षण के भीतर आरक्षण की बात इतनी भी सरल नहीं जितने सरल ढंग से कही जा रही है. खासकर मुस्लिम महिलाओं के लिए आरक्षण का विशेष प्रावधान करने की. जब यह तर्क दिया जाता है तो इसके पीछे सोच यह होता है कि आरक्षण से महिलाएं तो संसद और विधानसभाओं में पहंुच जाएंगी.
लेकिन इसमें सभी तबकों और समुदायों की महिलाओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलने की गारंटी नहीं होगी. ज्यादातर सीटों पर प्रभावशाली तबकों और समुदायों की महिलाएं ही जीत हासिल करेंगी. मुस्लिम महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान की बात करने वालों में यह कोई नहीं कह रहा कि इसमें पसमांदा मुस्लिम महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान भी होनी चाहिए.
समाज के सभी वर्गों, जातियों और समुदायों को प्रतिनिधित्व देने की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता. महिला आरक्षण बिल के पास हो जाने का यह अर्थ नहीं है कि समानता के लिए चलने वाली कोशिशें यहीं पर खत्म हो जाती हैं.
ऐसी कोशिशों के अंजाम तक पहंुचने में वक्त लगता है. महिला आरक्षण को अभी जिस रूप में स्वीकार किया गया है इसमें भी तीन दशक से ज्यादा का वक्त लग गया है। आगे के प्रयास जारी रहने चाहिए.अभी लोकसभा में जो मुस्लिम महिलाएं हैं वे किसी आरक्षण से आगे नहीं आईं.
जब तक आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था नहीं होती यह रास्ता तो खुला ही रहेगा, लेकिन यह तभी होगा जब मुस्लिम नेतृत्व अपने भीतर से महिलाओं को आगे लाने की कोशिश करेगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )