डॉ. अनिल कुमार निगम
अमेरिका ने जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में अप्रैल 2025 में हुए आतंकी हमले के संबंध में ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट’ (टीआरएफ) को आधिकारिक रूप से आतंकी संगठन घोषित किया है. टीआरएफ लश्कर-ए-तैयबा का ही एक अनुषंगी संगठन है, जो लंबे समय से जम्मू-कश्मीर में हिंसा एवं दहशत फैलाता रहा है.
अमेरिका का यह कदम आतंकवाद के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की दिशा में सराहनीय एवं स्वागत योग्य है, लेकिन इसके पीछे उसकी नीति में छिपा दोगलापन और दोहरा मापदंड भी उजागर होता है.
यह कोई पहला अवसर नहीं है जब अमेरिका ने किसी आतंकी संगठन को तब आतंकी घोषित किया जब वह सीधे अमेरिकी अथवा पश्चिमी हितों से टकराया हो, जबकि भारत लंबे समय से इस संगठन की गतिविधियों के बारे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को लगातार जागरूक करता रहा.
अप्रैल 2025 में जम्मू-कश्मीर के पर्यटक स्थल पहलगाम में एक घातक आतंकी हमला हुआ जिसमें 26 निर्दोष नागरिकों की हत्या कर दी गई थी. इस हमले की जिम्मेदारी रेजिस्टेंट फ्रंट’ ने ली थी.
टीआरएफ की स्थापना वर्ष 2019 में हुई , जब भारत की केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 को समाप्त किया और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों-जम्मू कश्मीर और लेह-लद्दाख में विभाजित किया. इसके बाद पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों ने नए नामों और ढांचे के अंतर्गत आतंकी गतिविधियों को अंजाम देना शुरू किया.
टीआरएफ को भी उसी की उत्पत्ति माना जाता है.भारत ने प्रारंभ से ही टीआरएफ को आतंकी संगठन माना और उसके खिलाफ सर्जिकल ऑपरेशन और कड़ी कार्यवाही की. भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका दोनों से इस संगठन को प्रतिबंधित करने की मांग कई बार उठाई, लेकिन अमेरिका ने लंबे समय तक इस पर कोई ठोस निर्णय नहीं लिया.
टीआरएफ के खिलाफ पुख्ता सबूत होने के बावजूद अमेरिका की कार्रवाई अप्रैल 2025 के हमले के तीन महीने बाद आई, जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया और मानवाधिकार संगठनों का ध्यान इस पर गया.
निस्संदेह, टीआरएफ को आतंकी संगठन घोषित करने का भारत-अमेरिका संबंधों पर सकारात्मक असर पड़ेगा. यह निर्णय कई दृष्टिकोणों से भारत के लिए रणनीतिक, कूटनीतिक और सुरक्षा संबंधी सहयोग को सशक्त बनाता है.
यह भारत की उस मांग को मान्यता देता है जिसमें वह पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक मंच पर कार्रवाई की मांग करता रहा है. इससे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की विश्वसनीयता और सुरक्षा चिंताओं को और अधिक समर्थन मिलेगा. यह भारत-अमेरिका रणनीतिक संबंधों को और गहरा करेगा.
दरअसल, अमेरिका का यह कदम पाकिस्तान के लिए एक स्पष्ट संदेश भी है कि अब अमेरिका उसकी धरती से संचालित आतंकवादी नेटवर्क को बर्दाश्त नहीं करेगा.
लेकिन अमेरिका का टीआरएफ को आतंकी संगठन घोषित करने में विलंब इस बात की पुष्टि करता है कि अमेरिका की आतंकवाद विरोधी नीति सार्वभौमिक नहीं, बल्कि स्वार्थ-आधारित है. जब तक कोई संगठन सीधे अमेरिकी हितों को प्रभावित नहीं करता या पश्चिमी मीडिया में चर्चा में नहीं आता, तब तक उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता.
अंतरराष्ट्रीय मामलों में अमेरिका के दोहरे मापदंड वाले कई उदाहरण पहले से मौजूद हैं. अमेरिका ने वर्ष 2020 में अफगानिस्तान से सेना हटाने के बदले तालिबान से समझौता किया, जबकि यह वही तालिबान था जिसने 9/11 हमले के गुनहगारों को शरण दी थी.
भारत सहित विश्व के अनेक देशों ने इस समझौते पर आपत्ति जताई, लेकिन अमेरिका ने अपने सैनिकों की वापसी के नाम पर तालिबान को वैधता दे दी.पाकिस्तान विश्व भर में आतंकवाद को बढ़ावा देता रहा है.
फिर भी अमेरिका ने उसे दशकों तक आर्थिक और सैन्य सहायता दी. भारत ने बार-बार आतंकी गतिविधियों में पाकिस्तानी भूमिका के सबूत दिए, पर अमेरिका अकसर स्ट्रैटेजिक पार्टनर कहकर पाकिस्तान की मदद करता रहा.
अमेरिका ने कई बार ऐसे देशों के खिलाफ प्रस्तावों को वीटो किया जिनके खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन या आतंकवाद के ठोस प्रमाण थे. केवल इसलिए क्योंकि वे उसके रणनीतिक साझेदार थे.
यही नहीं, भारत ने वर्ष 2017 में हिजबुल के प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने की मांग की थी. अमेरिका ने उसे आतंकवादी घोषित तो किया, लेकिन हिजबुल को प्रतिबंधित नहीं किया गया.
दरअसल, अमेरिका की विदेश नीति हमेशा उसके रणनीतिक हितों के इर्द-गिर्द घूमती है. भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में अमेरिका का दृष्टिकोण कभी स्पष्ट नहीं रहा. वह भारत को एक आर्थिक और तकनीकी साझेदार मानता है, जबकि पाकिस्तान को अफगानिस्तान और मध्य एशिया में एक भू-राजनीतिक उपयोगी मोहरा.
यही वजह है कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के प्रति उसकी नीति अस्पष्ट और अवसरवादी रही है.वास्तव में टीआरएस को आतंकी संगठन घोषित करने के पीछे अमेरिका के हितार्थ ही प्रमुख हैं.
चूंकि अप्रैल 2025 के पहलगाम हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय विशेष रूप से यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद पर दबाव बढ़ा कि आतंकवाद को लेकर अमेरिकी अपना स्टैंड स्पष्ट करे.
दूसरा, एक प्रमुख दबाव अमेरिका पर इस बात का भी है कि अमेरिका को यह समझ में आ गया है कि चीन-पाकिस्तान के बीच नजदीकी उसके हितों के लिए दीर्घकालिक खतरा है.
अमेरिका का टीआरएफ को आतंकी संगठन घोषित करना एक सामयिक निर्णय है जो अंतरराष्ट्रीय दबाव और भू राजनीतिक समीकरणों के कारण लिया गया है. यह एक सकारात्मक कदम जरूर है, लेकिन इसे अमेरिका की नीति में मूलभूत बदलाव कहना गलत होगा.
जब तक अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ सार्वभौमिक दृष्टिकोण नहीं अपनाता और अपने दोगले चरित्र को नहीं छोड़ता, तब तक ऐसे निर्णयों को संदेह की दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए.
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )