साहित्यः किशोरी लाल गोस्वामी की लिखी हिंदी इतिहास की पहली कहानी इंदुमती

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 19-06-2022
बणी-ठणी (किशनगढ़ शैली)
बणी-ठणी (किशनगढ़ शैली)

 

साहित्य/ हिंदी की पहली कहानी

इंदुमती । किशोरीलाल गोस्वामी

(हिन्दी भाषा की पहली कहानी कौन सी है, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है और यह विवाद अभी भी बना हुआ है. विद्वान हिंदी भाषा में लिखी कहानी को लेकर एक मत नहीं हैं. कई कहानियों को हिंदी की पहली कहानी माना जाता है. कुछ विद्वान सैयद इंशाअल्ला खां की 'रानी केतकी की कहानी' को हिंदी की पहली कहानी मानते हैं जो सन् 1803 या सन् 1808 में लिखी गई. कुछ जानकारों के मुताबिक, 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में लिखी गई राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’की 'राजा भोज का सपना'पहली कहानी है तो कुछ लोग किशोरी लाल गोस्वामी की 'इन्दुमती' (सन् 1900), माधवराव सप्रे की 'एक टोकरी भर मिट्टी' (सन् 1901), आचार्य रामचंद्र शुक्ल की 'ग्यारह वर्ष का समय' (सन् 1903) और बंग महिला की 'दुलाईवाली' (सन् 1907) को हिंदी की पहली कहानी मानते हैं. परन्तु, तकनीक के लिहाज से किशोरी लाल गोस्वामी द्वारा कृत 'इन्दुमती' को मुख्यतः हिन्दी की प्रथम कहानी का दर्जा प्रदान किया जाता है. आज पढ़िए किशोरी लाल गोस्वामी की कहानी- इंदुमती- संपादक)


इन्दुमती अपने बूढ़े पिता के साथ विन्ध्याचल के घने जंगल में रहती थी. जब से उसके पिता वहाँ पर कुटी बनाकर रहने लगे, तब से वह बराबर उन्हीं के साथ रही; न जंगल के बाहर निकली, न किसी दूसरे का मुँह देख सकी. उसकी अवस्था चार-पाँच वर्ष की थी जबकि उसकी माता का परलोकवास हुआ और जब उसके पिता उसे लेकर वनवासी हुए. जब से वह समझने योग्य हुई तब से नाना प्रकार के वनैले पशु-पक्षियों, वृक्षावलियों और गंगा की धारा के अतिरिक्त यह नहीं जानती थी कि संसार वा संसारी सुख क्या है और उसमें कैसे-कैसे विचित्र पदार्थ भरे पड़े हैं. फूलों को बीन-बीन कर माला बनाना, हरिणों के संग कलोल करना, दिन-भर वन-वन घूमना और पक्षियों का गाना सुनना; बस यही उसका काम था. वह यह भी नहीं जानती थी कि मेरे बूढ़े पिता के अतिरिक्त और भी कोई मनुष्य संसार में है.

एक दिन वह नदी में अपनी परछाईं देखकर बड़ी मोहित हुई, पर जब उसने जाना कि यह मेरी परछाईं है, तब बहुत लज्जित हुई, यहाँ तक कि उस दिन से फिर कभी उसने नदी में अपना मुख नहीं निहारा.

गरमी की ऋतु-दोपहर का समय-जबकि उसके पिता अपनी कुटी में बैठे हुए गीता की पुस्तक देख रहे थे, वह नदी किनारे पेड़ों की ठण्डी छाया में घूमती, फूलों को तोड़-तोड़ नदी में बहाती हुई कुछ दूर निकल गई थी, कि एकाएक चौंककर खड़ी हुई. उसने एक ऐसी वस्तु देखी, जिसका उसे स्वप्न में भी ध्यान न था और जिसके देखने से उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा. उसने क्या देखा कि एक बहुत ही सुंदर बीस-बाईस वर्ष का युवक नदी के किनारे पेड़ की छाया में घास पर पड़ा सो रहा है. इन्दुमती ने आज तक बूढ़े पिता को छोड़ किसी दूसरे मनुष्य की सूरत तक नहीं देखी थी. वह अभी तक यही सोचे हुई थी कि यदि संसार में और भी मनुष्य होंगे तो वे भी मेरे पिता की भाँति ही होंगे और उनकी भी दाढ़ी-मूँछें पकी हुई होंगी. उसने जब अच्छी तरह आँखें फाड़-फाड़कर उस परम सुंदर युवक को देखा तो अपने मन में निश्चय किया कि ‘मनुष्य तो ऐसा होता नहीं, हो-न-हो यह कोई देवता होंगे क्योंकि मेरे पिता जब देवताओं की कहानी सुनाते हैं तो उनके ऐसे ही रूप-रंग बतलाते हैं.’ यह सोचकर वह मन में कुछ डरी और कुछ दूर पेड़ की ओट में खड़ी हो टकटकी बाँध उस युवक को देखने लगी. मारे डर के युवक के पास तक न गयी और उसकी सुंदरता से मोहित हो कुटी की ओर भी अपना पैर न बढ़ा सकी. यों ही घण्टों बीत गये, पर इन्दुमती को न जान पड़ा कि मैं कितनी देर से खड़ी-खड़ी इसे निहार रही हूँ. बहुत देर पीछे वह अपना जी कड़ा करके वृक्ष की ओट से निकल युवक के आगे बढ़ी. दो ही चार डग चली होगी कि एकाएक युवक की नींद खुल गयी और उसने अपने सामने एक परम सुंदरी देवी-मूर्ति को देखा, जिसके देखने से उसके आश्चर्य की सीमा न रही. मन-ही-मन सोचने लगा – ‘इस भयानक घनघोर जंगल में ऐसी मनमोहिनी परम सुंदरी स्त्री कहाँ से आयी? ऐसा रूप-रंग तो बड़े-बड़े राजाओं के रनिवास में भी दुर्लभ है, सो इस वन में कहाँ से आया? या तो मैं स्वप्न में स्वर्ग की सैर करता होऊँगा, या किसी देवकन्या या वनदेवी ने मुझे छलने के लिए दर्शन दिया होगा.’ यही सब सोच-विचार करता हुआ वह भी पड़ा-पड़ा इन्दुमती की ओर निहार ने लगा. दोनों की रह-रहकर आँखें चार हो जातीं, जिससे अचरज के अतिरिक्त और कोई भाव नहीं झलकता था. यों ही परस्पर देखाभाली होते-होते एकाएक इन्दुमती के मन में किसी अपूर्व भाव का उदय हो आया, जिससे वह इतनी लज्जित हुई कि उसकी आँखें नीची और मुख लाल हो गया. वह भागना चाहती थी. चट युवक उठकर उसके सामने खड़ा हो गया और कहने लगा, ‘हे सुंदरी, तुम देवकन्या हो या वनदेवी हो? चाहे कोई हो, पर कृपा कर तुमने दर्शन दिया है तो जरा-सी दया करो, ठहरो, मेरी बातें सुनो, घबराओ मत. यदि तुम मनुष्य की लड़की हो तो डरो मत. क्षत्रिय लोग स्त्रियों की रक्षा करने के सिवा बुराई नहीं करते. सुनो, यदि तुम सचमुच वन देवी हो तो कृपा कर मुझे इस वन से निकलने का सीधा मार्ग बता दो. मैं विपत्ति का मारा तीन दिन से इस वन में भटक रहा हूँ, पर निकलने का मार्ग नहीं पाता. और जो तुम मेरी ही भाँति मनुष्य जाति की हो तो मैं तुम्हारा ‘अतिथि हूँ’, मुझे केवल आज भर के लिए टिकने की जगह दो. और अधिक मैं कुछ नहीं चाहता.’

युवक की बातें सुनकर इन्दुमती ने मन में सोचा कि ‘तो क्या ये देवता नहीं है? हम लोगों ही की भाँति मनुष्य हैं? हो सकता है, क्योंकि जो ये देवता होते तो ऐसी मीठी-मीठी बातें बनाकर अतिथि क्यों बनते. देवताओं को कमी किस बात की है, और वे क्या नहीं जानते जो हमसे वन का मार्ग पूछते. तो यह मनुष्य ही होंगे, पर क्या मनुष्य इतने सुंदर होते और ऐसी मीठी बातें करते हैं? अहा! एक दिन मैं जल में अपनी सुंदरता देखकर ऐसी मोहित हुई थी, किंतु इनकी सुंदरता के आगे तो मेरा रूप-रंग निरा पानी है.’ इस तरह सोचते-विचारते उसने अपना सिर ऊँचा किया और देखा कि युवक अपनी बात का उत्तर पाने के लिए सामने एकटक लगा खड़ा है. यह देख वह बहुत ही अधीनताई और मधुर स्वर से बोली कि ‘मैं अपने बूढ़े पिता के साथ इस घने जंगल के भीतर एक छोटी-सी कुटी में, जो एक सुहावनी पहाड़ी की चोटी पर बनी हुई है, रहती हूँ, यदि तुम मेरे अतिथि होना चाहते हो तो मेरी कुटी पर चलो, जो कुछ मुझसे बनेगा, कंदमूल, फल-फूल और जल से तुम्हारी सेवा करूँगी. मेरे पिता भी तुम्हें देखकर बहुत प्रसन्न होंगे.’ इतना कहकर वह युवक को अपने साथ ले पहाड़ी पगडण्डी से होती हुई अपनी कुटी की ओर बढ़ी.

उसने जो युवक से कहा था कि ‘मेरे पिता भी तुम्हें देखकर बहुत प्रसन्न होंगे’ सो केवल अपने स्वभाव के अनुसार ही कहा था, क्योंकि वह यही जानती थी कि ऐसी सुंदर मूर्ति को देख मेरे पिता भी मेरी भाँति आनंदित होंगे, परंतु कुटी के पास पहुँचते ही उसका सब सोचा-विचारा हवा हो गया, उसके सुख का सपना जाता रहा और वह जिस बात को ध्यान में भी नहीं ला सकती थी वही आगे आयी. अर्थात वह बुड्ढ़ा अपनी लड़की को पराये पुरुष के साथ आती हुई देखकर मारे क्रोध के आग हो गया और अपनी कुटी से निकल युवक के आगे खड़ा हो यों कहने लगा, ‘अरे दुष्ट! तू कौन है? क्या तुझे अपने प्राणों का मोह नहीं है जो तू बेधड़क मेरी कन्या से बोला और मेरी कुटी पर चला आया? तू जानता नहीं कि जो मनुष्य मेरी आज्ञा के बिना इस वन में पैर रखता है उसका सिर काटा जाता है? अच्छा, ठहर, अब तुझे भी प्राणदण्ड दिया जाएगा.’ इतना कह वह क्रोध से युवक की ओर घूरने लगा. बिचारी इन्दुमती की विचित्र दशा थी, उसने आज तक अपने पिता की ऐसी भयानक मूर्ति नहीं देखी थी. वह अपने पिता का ऐसा अनूठा क्रोध देख पहले तो डरी, फिर अपने ही लिए युवा बटोही बिचारे का प्राण जाते देख जी कड़ा कर बुड्ढ़े के पैरों पर गिर पड़ी और रो-रो, गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ाकर युवक के प्राण की भिक्षा माँगने लगी, और अपने पिता को अच्छी तरह समझा दिया कि, ‘इसमें युवक का कोई दोष नहीं है, उसे मैं ही कुटी पर ले आयी हूँ. यदि इसमें कोई अपराध हुआ तो उसका दण्ड मुझे मिलना चाहिए. ‘ कन्या की ऐसी अनोखी विनती सुनकर बुड्ढ़ा कुछ ठण्डा हुआ और युवक की ओर देखकर बोला कि ‘सुनो जी, इस अज्ञान लड़की की विनती से मैंने तुम्हारा प्राण छोड़ दिया, परंतु तुम यहाँ से जाने न पाओगे. कैदी की तरह जन्म-भर तुम्हें यहाँ रहकर हमारी गुलामी करनी पड़ेगी, और जो भागने का मंसूबा बाँधोगे तो तुरंत मारे जाओगे.’ इतना कहकर जोर से बूढ़े ने सीटी बजायी, जिसकी आवाज दूर-दूर तक वन में गूँजने लगी और देखते-देखते बीस-पच्चीस आदमी हट्टे-कट्टे यमदूत की सूरत, हाथ में ढाल-तलवार लिए बुड्ढे के सामने आ खड़े हुए. उन्हें देखकर उसने कहा, ‘सुनो वीरो, इस युवक को (अँगुली से दिखाकर) आज से मैंने अपना बँधुवा बनाया है. तुम लोग इस पर ताक लगाए रखना, जिससे यह भागने न पावे और इसकी तलवार ले लो. बस जाओ.’ इतना सुनते ही वे सब के सब युवक से तलवार छीन, सिर झुकाकर चले गए पर इस नए तमाशे को देख इन्दुमती के होश-हवास उड़ गए. जबसे उसने होश सँभाला तब से आज तक बुढ्ढे को छोड़ किसी दूसरे मनुष्य की सूरत तक नहीं देखी थी, पर आज एकाएक इतने आदमियों को अपने पिता के पास देख वह बहुत ही सकपकाई पर डर के मारे कुछ बोली नहीं. बुड्ढे ने युवक की ओर आँख उठाकर कहा, ‘देखों अब, तुम मेरे बँधुवे हुए, अब से जो-जो मैं कहूँगा तुम्हें करना पड़ेगा. उनमें पहिला काम तुम्हें यह दिया जाता है कि तुम इस सूखे पेड़ को (दिखलाकर) काट-काटकर लकड़ी को कुटी के भीत ररखो. ध्यान रखो, यदि जरा भी मेरी आज्ञा टाली तो समझ लेना कि तुम्हारे धड़ पर विधाता ने सिर बनाया ही नहीं और इन्दुमती! तू भी कान खोलकर सुनले. इस युवक के साथ यदि किसी तरह की भी बातचीत करेगी तो तेरी भी वही देशा होगी.’ इतना कहकर बुड्ढा कुटी के भीतर चला गया और फिर उसी गीता की पुस्तक को ले पढ़ने लगा.

बुड्ढे का विचित्र रंग-ढंग देखकर हमारे युवक के हृदय में कैसे-कैसे भावों की तरंगें उठी होंगी, इसे हम लिखने में असमर्थ हैं. पर हाँ इतना तो उसने अवश्य निश्चय किया होगा कि ‘यदि सचमुच यह सुंदरी इस बुड्ढे की लड़की हो तो विधाता ने पत्थर से नवनीत पैदा किया है.’

निदान विचारा युवक अपने भाग्य पर भरोसा रखकर कुल्हाड़ा हाथ में ले पेड़ काटने लगा और इन्दुमती पास ही खड़ी-खड़ी टकटकी लगाए उसे देखने लगी (Hindi Kahani). दो ही चार बार के टाँगा चलाने से युवक के अंग-अंग से पसीने की बूँदें टपकने लगीं और वह इतने जोर से साँस लेने लगा जिससे जान पड़ता था कि यदि यों ही घण्टे-दो घण्टे यह टाँगा चलावेगा तो अपनी जान से हाथ धो बैठेगा. उसकी ऐसी दशा देखकर इन्दुमती ने उसके लिए फल और जल ला, आँखों में आँसू भरकर कहा, ‘सुनो जी, ठहर जाओ, देखो यह फल और जल मैं लायी हूँ, इसे खा लो, जरा ठण्डे हो लो, फिर काटना; छोड़ो, मान जाओ.’ युवक ने उसकी प्रेम भरी बातों को सुन कर कहा, ‘सुंदरी, मैं सच कहता हूँ कि तुम्हारा मुँह देखने से मुझे इस परिश्रम का कष्ट जरा भी नहीं व्यापता, यदि तुम यों ही मेरे सामने खड़ी रही तो मैं बिना अन्न-जल किये सारे संसार के पेड़ काटकर रख दूँ और सुनो तो सही, अपने पिता की बातें याद करो, क्यों नाहक मेरे लिए अपने प्राण संकट में डालती हो? यदि वे सुन लेंगे तो क्या होगा? और मैं जो सुस्ताने लगूँगा तो लकड़ी कौन काटेगा? जब वे देखेंगे कि पेड़ नहीं कटा तो कैसे उपद्रव करेंगे! इसलिए हे सुशीले! मुझे मेरे भाग्य पर छोड़ दो.’

युवक की ऐसी करुणा-भरी बातें सुनकर इन्दुमती की आँखों से आँसू बहने लगे. उसने बरजोरी युवक के हाथ से कुठार ले लिया और कहा, ‘भाई चाहे कुछ भी हो, पर जरा तो ठहर जाओ, मेरे कहने से मेरे लाए हुए फल खाकर जरा दम ले लो, तब तक तुम्हारे बदले मैं लकड़ी काटती हूँ. ‘ युवक ने बहुत समझाया पर वह न मानी और अपने सुकुमार हाथों से कुठार उठा कर पेड़ पर मारने लगी. युवक ने जल्दी-जल्दी उसके बहुत कहने से कई एक फल खाकर दो घूँट जल पिया इतने ही में हाथ में नंगी तलवार लिए बुड्ढा कुटी से निकलकर युवक से बोला –

‘क्यों रे नीच! तेरी इतनी बड़ी सामर्थ्य कि आप तो बैठा-बैठा सुस्ता रहा है और मेरी लड़की से पेड़ कटवाता है? रह, अभी तेरा सिर काटता हूँ.’ फिर इन्दुमती की ओर घूमकर बोला, ‘क्यों री ढीठ, तैंने मेरे मना करने पर भी इस दुष्ट से बातचीत की! रह जा, तेरा भी वध करता हूँ.’

बुड्ढे की बातें सुन युवक उसके पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा, ‘महाशय, इस बिचारी का कोई अपराध नहीं है, इसे छोड़ दीजिए, जो कुछ दण्ड देना है वह मुझे दीजिए.’

इन्दुमती भी उसके पैर पर गिरकर कहने लगी, ‘नहीं, नहीं, इसका कोई दोष नहीं है, मैंने बरजोरी इससे कुठार ले ली थी, इसलिए हे पिता! अपराधिनी मैं हूँ, मुझे दण्ड दीजिए, इन्हें छोड़ दीजिए.’

उन दोनों की ऐसी बातें सुनकर बुड्ढे ने कहा, ‘अच्छा, आज तो मैं तुम दोनों को छोड़े देता हूँ, पर देखो फिर मेरी बातों का ध्यान ना रखोगे तो मारे जाओगे.’ इतना कह बुड्ढा कुटी में चला गया और वे दोनों एक-दूसरे का मुँह देखने लगे. इन्दुमती बोली कि ‘घबराओ मत, मेरे रहते तुम्हारा बाल भी बाँका न होगा.’ और युवक ने कहा, ‘प्यारी, क्यों व्यर्थ मेरे लिए कष्ट सहती हो? जाओ, कुटी में जाओ.’ पर इन्दुमती उसके मुँह की ओर उदास हो देखने लगी और वह कुठार उठाकर पेड़ काटने लगा. इतने ही में फिर बाहर आकर बुड्ढा बोला, ‘ओ छोकरे! सन्ध्या भई, अब रहने दे. पर देख, कल दिन-भर में जो सारा पेड़ न काट डाला तो देखियो मैं क्या करता हूँ. और सुनती है, री इन्दुमती! इसे कुटी में ले जाकर सड़े-गले फल खाने को और गँदला पानी पीने को दे. परंतु सावधान! मुख से एक अक्षर भी न निकलने पावे. और सुन बे लड़के! खबरदार, जो इससे कुछ भी बातचीत की तो जीता न छोडूँगा.’ यह कहकर बुड्ढा पहाड़ी पगडण्डी से गंगा तट की ओर उतरने लगा और उसके जाने पर इन्दुमती मुसकाकर युवा का हाथ थाम्हे हुई कुटी के भीतर गई और वहाँ जाकर उसने पिता की आज्ञा को मेट कर सड़े-गले फल और गँदले पानी के बदल अच्छे-अच्छे मीठे फल और सुंदर साफ पानी युवक को दिया. और युवक के बहुत आग्रह करने पर दोनों ने साथ फलाहार किया. फिर दोनों बुड्ढे के आने में देर समझ बाहर चाँदनी में एक साथ ही चट्टान पर बैठकर बातें करने लगे.

आधी रात जा चुकी थी, वन में चारों ओर भयानक बनैले जंतुओं के गरजने की ध्वनि फेल रही थी. चार आदमी हाथ में तलवार और बरछा लिए कुटी के चारों ओर पहरा दे रहे थे. कुटी से थोड़ी ही दूर पर एक ढालुआँ चोटी पर दस-बारह आदमी बातें कर रहे थे. चलिए पाठक! देखिए ये लोग क्या बातें करते हैं आहा! यह देखिए! इन्दुमती का पिता एक चटाई पर बैठा है और सामने दस-बारह आदमी हाथ बाँधे जमीन पर बैठे हैं. बड़ी देर सन्नाटा रहा, फिर बूढ़े ने कहा –

‘सुनो भाइयो! इतने दिनों पीछे परमेश्वर ने हमारा मनोरथ पूरा किया. जो बात एक प्रकार से अनहोनी थी सो आपसे आप हो गई. यह परमेश्वर ने ही किया; नहीं तो बिचारी इन्दुमती का बेड़ा पार कैसे लगा. देखो, जिस युवक की रखवाली के लिए आज तीसरे पहर मैंने तुम लोगों से कहा था, वह अजयगढ़ का राजकुमार, या यों कहो कि अब राजा है. इसका नाम चंद्रशेखर है. इसके पिता राजशेखर को उसी बेईमान काफिर इब्राहिम लोदी ने दिल्ली में बुला, विश्वासघात कर मार डाला था; तब से यह लड़का इब्राहिम की घात में लगा था. अभी थोड़े दिन हुए जो बाबर से इब्राहिम की लड़ाई हुई है, उसमें चंद्रशेखर ने भेष बदल और इब्राहिम की सेना में घुसकर उसे मार डाला. यह बात कहीं एक सेनापति ने देख ली और उसने चंद्रशेखर का पीछा किया. निदान यह भागा और कई दिन पीछे उसे द्वन्द्व युद्व में मार अपने घोड़े को गँवा, राह भूलकर अपने राज्य की ओर न जाकर इस ओर आया और कल मेरी कन्या का अतिथि बना. आज उसने यह सब ब्योरा जलपान करते-करते इन्दुमती से कहा, जिसे मैंने आड़ में खड़े होकर सब सुना. वे दोनों एक-दूसरे को जी से चाहने लगे हैं. तो इस बात के अतिरिक्त और क्या कहा जाय कि परमेश्वर ही ने इन्दुमती का जोड़ा भेज दिया है और साथ ही उस दयामय ने मेरी भी प्रतिज्ञा पूरी की.’ ‘इतना सुनकर सभी ने जय ध्वनि के साथ हर्ष प्रकट किया और बूढ़ा फिर कहने लगा – ‘मेरी इन्दुमती सोलह वर्ष की हुई, अब उसे कुँआरी रखना किसी तरह उचित नहीं है और ऐसी अवस्था में जबकि मेरी प्रतिज्ञा भी पूरी हुई और इन्दुमती के योग्य सुपात्र वर भी मिला. उसने इन्दुमती से प्रतिज्ञा की है कि ‘प्यारी, मैं तुम्हें प्राण से बढ़कर चाहूँगा और दूसरा विवाह भी न करूँगा, जिससे तुम्हें सौत की आग में न जलना पड़े.’ भाइयो! देखो स्त्री के लिए इससे बढ़कर कौन बात सुख देनेवाली है! मैंने जो चंद्रशेखर को देखकर इतना क्रोध प्रकट किया था उसका आशय यही था कि यदि दोनों में सच्चा प्रीति का अंकुर जमेगा तो दोनों का ब्याह कर दूँगा, और जो ऐसा न हुआ तो युवक आप डर के मारे भाग जाएगा. परंतु यहाँ तो परमेश्वर को इन्दुमती का भाग्य खोलना था और ऐसा ही हुआ. बस, कल ही मैं दोनों का ब्याह करके हिमालय चला जाऊँगा और तुम लोग वर-कन्या को उनके घर पहुँचाकर अपने-अपने घर जाना. बारह वर्ष तक जो तुम लोगों ने तन-मन-धन से मेरी सेवकाई की इसका ऋण सदा मेरे सिर पर रहेगा और जगदीश्वर इसके बदले में तुम लोगों के साथ भलाई करेगा.’ इतना कहकर बुड्ढा उठ खड़ा हुआ और वे लोग भी उठे. बुड्ढा कुटी की ओर घूमा और वे लोग पहाड़ी के नीचे उतर गए.

अहा! प्रेम!! तू धन्य है !!! जिस इन्दुमती ने आज तक देवता की भाँति अपने पिता की सेवा की, और भूलकर भी कभी आज्ञा न टाली, आज वह प्रेम के फंदे में फँसकर उसका उलटा वर्ताव करती है. वृद्ध ने लौटकर क्या देखा कि दोनों कुटी के पिछवाड़े चाँदनी में बैठे बातें कर रहे हैं. यह देख वह प्रसन्न हुआ और कुटी में जाकर सो रहा. पर हमारे दोनों नए प्रेमियों ने बातों ही में रात बिता दी. सवेरा होते ही युवक कुठार ले लकड़ी काटने लगा और इन्दुमती सारा काम छोड़कर खड़ी-खड़ी उसके मुख की ओर देखने लगी. थोड़ी ही देर में युवक के सारे शरीर से पसीना टपकने लगा और चेहरा लाल हो आया. इतने में वृद्ध ने आकर गरजकर कहा, ‘ओ लड़के! बस, पेड़ पीछे काटियो, पहिले जो लकड़ियाँ काटी हैं, उन्हें उठाकर कुटी के पिछवाड़े ढेर लगा दे.’ इतना कहकर बुड्ढा चला गया और युवक लकड़ी उठा-उठा कर कुटी के पीछे ढेर लगाने लगा. उसका इतना परिश्रम इन्दुमती से न देखा गया और बड़े प्रेम से वह उसका हाथ थामकर बोली, ‘प्यारे, ठहरो, बस करो, बाकी लकडियाँ मैं रख आती हूँ. हाय, तुम्हारा परिश्रम देखकर मेरी छाती फटी जाती है. प्यारे, तुम राजकुमार होकर आज लकड़ी काटते हो, ठहरो, तुम सुस्तालो.’

युवक ने मुस्कराकर कहा, ‘प्यारी, सावधान, ऐसा भूलकर भी न करना. अपने पिता का क्रोध याद करो. अब की उन्होंने तुम्हें लकड़ी उठाते या हमसे बोलते देख लिया तो सर्वनाश हो जाएगा.’

इतना सुनकर इन्दुमती की आँखों में आँसू भर आए. वह बोली, ‘प्यारे, मेरे पिता का तो बहुत अच्छा स्वभाव था, सो तुम्हें देखते ही एकदम से ऐसा बदल क्यों गया? वह तो ऐसे नहीं थे, अब उन्हें क्या हो गया? आज तक मैंने उन्हें कभी क्रोध करते नहीं देखा था. खैर, जो होय, पर तुम ठहरो, दम ले लो, तब तक मैं इन लकड़ियों को फेंक देती हूँ.’

युवक ने कहा, ‘प्यारी, क्या राक्षस हूँ कि अपनी आँखों के सामने तुम्हें लकड़ी ढोने दूँगा? हटो, ऐसा नहीं होगा. सच जानो तुम्हें देखने से मुझे कुछ भी कष्ट नहीं जान पड़ता.’

इन्दुमती ने उदास होकर कहा, ‘हाय प्यारे, तुम्हारे दुःख देखकर मेरे हृदय में ऐसी वेदना होती है कि क्या कहूँ, जो तुम इसे जानते तो ऐसा न कहते.’

पीछे लता-मण्डप में खड़े-खड़े वृद्ध ने दोनों की बातें सुनकर बड़ा सुख माना, पर अंतिम परीक्षा करने के अभिप्राय में नंगी तलवार ले सामने आ, गरजकर कहा, ‘इन्दुमती, कल से आज तक तैंने मेरी सब बातों का उलट बर्ताव किया. फल और जल की बात याद कर, और तू फिर इससे बात करती है? देख अब तेरा सिर काटता हूँ.’ कहकर ज्यों ही वह इन्दुमती की ओर बढ़ा कि चट युवक उसके पाँव पकड़कर कहने लगा, ‘आप अपने क्रोध को दूर करने के लिए मुझे मारिए, सब दोष मेरा है, मैं दण्ड के योग्य हूँ. यह सब तरह निरपराधिनी है. मेरा सिर आपके पैरों पर है, काट लीजिए; पर मेरे सामने एक निरपराध लड़की के प्राण न लीजिए.’

वृद्ध ज्यों ही अपनी तलवार युवक की गर्दन पर रखना चाहता था कि इन्दुमती पागल की तरह उसके चरणों पर गिर बिलख-बिलखकर रोने और कहने लगी – ‘पिता, पिता, जो मारना ही है तो पहले मेरा सिर काट लो तो फिर पीछे जो जी में आवे सो करना.’

इतना सुन बुड्ढे ने तलवार दूर फेंक दी और दोनों को उठा गले लगाकर कहा, ‘बेटी इन्दुमती! धीरज, धर और प्रिय वत्स! चंद्रशेखर! खेद दूर करो. मैंने केवल तुम दोनों के प्रेम की परीक्षा लेने के लिए सब प्रकार का क्रोध का भाव दिखलाया था. यदि तुम दोनों का सच्चा प्रेम न होता तो क्यों एक-दूसरे के लिए जान पर खेलकर क्षमा चाहते, और सुनो, मैंने छिपकर तुम्हारी सब बातें सुनी हैं. तुमसे बढ़कर संसार में दूसरा कौन राजकुमार है जो इन्दुमती के वर बनने योग्य होगा. सुनो, देवगढ़ मेरे पुरखाओं की राजधानी थी. जबकि इन्दुमती चार वर्ष की थी, पापी इब्राहिम ने मेरे नगर को घेर यह कहलाया कि ‘या तो अपनी स्त्री (इन्दुमती की माँ) को भेज दो या जंग करो.’ यह सुनकर मेरी आँखों में खून उतर आया और उसके दूत को मैंने निकलवा दिया. फिर क्या पूछना था! सारा नगर यवन हत्यारों के हाथ से शमशान हो गया. मेरी स्त्री ने आत्महत्या की और मैं उस यवन-कुल-कलंक से बदला लेने की इच्छा से चार वर्ष की अबोध लड़की को ले इस जंगल में आकर रहने लगा. मेरे कृतज्ञ सरदारों में से पचास आदमियों ने सर्वस्व त्यागकर मेरा साथ दिया और आज तक मेरे साथ हैं. उन्हीं लोगों में से कई आदमियों को तुमने कल देखा था. बेटा चंद्रशेखर! बारह वर्ष हो गए पर ऐसी सावधानी से मैंने इस लड़की का लालन-पालन किया और इसे पढ़ाया-लिखाया कि जिसका सुख तुम्हें आप आगे चलकर इसकी सुशीलता से जान पड़ेगा. और देखो, मैंने इसे ऐसे पहरे में रखा कि कल के सिवा और कभी इसने मुझे छोड़कर किसी दूसरे मनुष्य की सूरत न देखी. मैंने राजस्थान के सब राजाओं से सहायता माँगी और यह कहलाया कि जो कोई दुष्ट इब्राहिम का सिर काट लावेगा उसे अपनी लड़की ब्याह दूँगा. पर हा! किसी ने मेरी बात न सुनी और सभी मुझे पागल समझकर हँसने लगे. अंत में मैंने दुःखी होकर प्रतिज्ञा की कि जो कोई इब्राहिम को मारेगा उसीसे इन्दुमती ब्याही जाएगी, नहीं तो यह जन्म भर कुँआरी ही रहेगी. सो परमेश्वर ने तुम्हारे हृदय में बैठकर मेरी प्रतिज्ञा पूरी की. अब इन्दुमती तुम्हारी हुई. और आज मैं बड़े भारी बोझ को उतारकर आजन्म के लिए हलका हो गया.’

इतना कह बुड्ढे ने सीटी बजायी और देखते-देखते पचास जवान हथियारों से सजे, घोड़ों पर सवार आ खडे हुए. उनके साथ एक सजा हुआ घोड़ा चंद्रशेखर के लिए और एक सुंदर पालकी इन्दुमती के लिए थी. इसी समय बुड्ढे ने दोनों का विवाह कर उन वीरों के साथ विदा किया और आप हिमालय की ओर चला गया.

अहा! जो इन्दुमती इतने दिनों तक वन-विहंगिनी थी, वह आज घर के पिंजरे में बंद होने चली. परमेश्वर की महिमा का कौन पार पा सकता है!