रीटा एफ मुकुंद /गुवाहाटी
20 अक्टूबर, 2025 की दिवाली की रात गुवाहाटी में एक अनोखी ठंडक लेकर आई. एक ठंड जो मौसम की नहीं, बल्कि भावनाओं की थी. सजी-संवरी गलियों, रोशन घरों और तुलसी के चबूतरे पर टिमटिमाते दीयों के बीच, इस बार का पर्व कुछ अलग था. पटाखों की गूंज विरले सुनाई द और उत्सव की आम गहमा-गहमी की जगह इस बार एक गहरा मौन पसरा हुआ था.
काली पूजा के मंत्र गूंज रहे थे, शक्ति और प्रकाश की देवी का आह्वान हो रहा था. फिर भी इस दिवाली में कोई एक अहम तत्व गायब था.यह दिवाली ज़ुबीन गर्ग के बिना थी.उनके असामयिक निधन को एक महीना बीत चुका था, लेकिन असम अब भी उस सदमे से उबर नहीं पाया. अमरोंगा बारिहाट से लेकर कामरकुची तक, ज़ुबीन के सम्मान में श्रद्धांजलि रैलियों, मोमबत्ती जुलूसों और संगीत संध्याओं का सिलसिला जारी रहा.
दिवाली की रात, लाखों लोगों ने अपने घरों और मंदिरों में दीये जलाकर उन्हें याद किया. यह मानते हुए कि इन दीयों की लौ उनके आत्मिक पथ को आलोकित करेगी.
गुवाहाटी की गलियों में, नुक्कड़ों पर ज़ुबीन की तस्वीरों के साथ बनाए गए छोटे-छोटे मंदिरों में लोग जुटे, दीये जलाए और मौन प्रार्थना की.
सोनापुर के कामरकुची में, जहाँ अब ज़ुबीन गर्ग अनंत विश्राम में हैं, वहां के वातावरण में एक अलौकिक पवित्रता महसूस की जा सकती है. यह स्थान अब "ज़ुबीन धाम" के नाम से जाना जा रहा है. यहाँ हज़ारों प्रशंसक गामोसा, सरई और फूलों के साथ आ रहे हैं. मोमबत्तियाँ, संगीत और आँसुओं से भरे इस स्थल पर अब हर दिन एक नया अध्याय जुड़ता जा रहा है.
19 अक्टूबर की शाम, सोनापुर की मिट्टी पर 200 बांसुरीवादक इकट्ठा हुए और उन्होंने ज़ुबीन का अमर गीत "मायाबिनी रातिर बुकुट" प्रस्तुत किया. हवाओं में एक जादुई कंपन था, जिसे सुनकर आँसू अपने आप बह निकले.
गुवाहाटी में, इस बार उत्सव नहीं, श्रद्धांजलि का माहौल था. कलापहाड़ के विवेकानंद स्पोर्टिंग क्लब ने अपनी 61वीं काली पूजा को ज़ुबीन की स्मृति को समर्पित किया. 15 लाख रुपये के शिव-पंडाल में कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं हुआ. सिर्फ मौन पूजा, मौन श्रद्धा। उलुबारी और पांडु के कई अन्य क्लबों ने भी यही रास्ता अपनाया.
दुकानों पर चहल-पहल, रंगोली, मिठाई और दीयों की बिक्री तो हो रही थी, पर उस खुशी की चिंगारी में एक अदृश्य उदासी मिली हुई थी. हर मंत्र के उच्चारण के साथ, हर लौ की झिलमिलाहट में एक दबी-दबी प्रार्थना थी.
कुछ लोगों ने जरूर कहा कि दुख अब ज़रूरत से ज़्यादा लंबा खिंच रहा है। व्यापारियों ने धीमी बिक्री की शिकायत की, और एक युवती ने टिप्पणी की —"लोग अब भी आगे नहीं बढ़ पाए हैं. मैं चाहती हूँ कि यह दिवाली फिर से खुशियाँ लेकर आए."
लेकिन ज़ुबीन की कमी उन लोगों के लिए सिर्फ एक कलाकार की नहीं, एक विचार की कमी थी.मेघालय के यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (USTM), जहाँ ज़ुबीन को 2024 में डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी गई थी, वहाँ का माहौल पूरी तरह बदल गया है.
विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारी अब्दुल्ला सिद्दीकी चौधरी कहते हैं ,"हर साल की तरह मैं दिवाली दोस्तों के साथ मनाने की सोच रहा था, लेकिन इस बार दीयों की रौशनी में दर्द छुपा है. यह एक जश्न नहीं, बल्कि न्याय की माँग है."
वे आगे कहते हैं:"डॉ. ज़ुबीन गर्ग केवल एक गायक नहीं थे, वे एक आंदोलन थे. उनके गीत असम की आत्मा थे. इस बार हम पटाखे नहीं जलाएँगे. हम सिर्फ उनकी आवाज़, उनके साहस और उनके असीम प्रेम को याद करेंगे. उनका संगीत दिवाली की रौशनी की तरह है — शाश्वत और अमिट."
यह भावना अब सिर्फ असम तक सीमित नहीं है. मेघालय के री-भोई जिले में, घरों और दुकानों से ज़ुबीन की आवाज़ गूंज रही है. सोनापुर की ओर जाती जीपें, बसें अब किसी शोक नहीं, एक आंदोलन की यात्रा का हिस्सा लगती हैं. लोग उन्हें सिर्फ याद नहीं कर रहे — वे उन्हें जी रहे हैं.
कई लोगों ने ज़ुबीन को भगवान का रूप कहा, एक क्रांतिकारी जो बिना डरे बोलता था, और आम लोगों के साथ खड़ा रहता था. चाय बागान के मज़दूरों, रिक्शा चालकों और रात के चौकीदारों के साथ.
सोशल मीडिया पर #JusticeForZubeen हैशटैग के साथ 20 लाख से अधिक लोग उनकी मौत की जांच की माँग कर रहे हैं. इस दिवाली, धर्म, जाति और वर्ग से परे, असम के लोग एक सामूहिक दुख और उद्देश्य से बंधे हुए हैं.
दिवाली 2025 इस बार रोशनी का नहीं, आत्मा का उत्सव है —शांत, मौन, और फिर भी इतना गहरा कि उसकी गूंज दूर तक सुनाई दे रही है.
इस बार दीप नहीं, दिल जले हैं.
इस बार पटाखे नहीं, प्रार्थनाएँ फूटी हैं.
इस बार दिवाली ने हमें सिखाया है कि रौशनी केवल उजाला नहीं, न्याय भी माँगती है.
ज़ुबीन का संगीत इस रौशनी में हमेशा जीवित रहेगा — शाश्वत और अमिट.