स्मृतिशेष भूपिंदर सिंहः करोगे याद तो हर बात याद आएगी

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 19-07-2022
नहीं रहे भूपिंदर सिंह
नहीं रहे भूपिंदर सिंह

 

मंजीत ठाकुर

फिल्म मौसम के एक गाने में सीन ओपन होता है. लता मंगेशकर अपनी सधी आवाज में आलाप लेती हैं... कैमरा दार्जिलिंग के अल्पाइन जंगलों में हरियाली, हिमाच्छादित शिखरों और उजले बादलों के बीच से उस आलाप के स्रोत को खोजता-सा प्रतीत होता है और फिर आपको एक पेड़ के पीछे से बुजुर्ग हो चुके संजीव कुमार दिखते हैं. फिल्म 'मौसम' में बुढ़ाए संजीव कुमार अपनी ही जवानी के दिनों में खुद को शर्मिला टैगोर के साथ रोमांस करता देखते हैं.

फिर हल्के मूड में भूपिंदर सिंह की आवाज आती है—दिल ढूंढता, है फिर वही, फुरसत के रात दिन.

आप इस गाने को यूट्यूब पर देखें या किसी लंबी ड्राइव के दौरान अंधियारी रात में सुने, पर आप नॉस्टेल्जिक होने से बच नहीं सकते. रोमांटिक गाना खत्म होने के बाद आखिर में भूपिंदर फिर से गुनगुनाते हैं. पर इस बार थोड़े उदास अंदाज में, दिल ढूंढता है... फिर वही...फुरसत के रात दिन... और आपके सीने में किरिच-सा कुछ घुस जाता है.

अपनी आश्वस्तिदायक आवाज से लाखों दिलों को सुकून और प्रेम की बेचैनी भरी तड़पन देने वाले भूपिंदर सिंह नहीं रहे.

भूपिंदर सिंह का अंदाजेबयां ही अलहदा था. पर इसके साथ ही उन्होंने और भी कई यादगार नग्मों को अपनी आवाज दी थी. 'मेरा रंग दे बसंती चोला', 'होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा', 'नाम गुम जाएगा', जैसे कई गानें आज भी लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं.

असल में भूपिंदर सिंह अपनी पीढ़ी के आखिरी गायक बचे थे.

भूपिंदर सिंह करियर के शुरुआती दिनों में आकाशवाणी और दूरदर्शन में काम करते थे और फिर एक दिन संगीतकार मदन मोहन उन्हें बंबई (अब मुंबई) ले गए. उन्हें पहला ब्रेक मिला था फिल्म हकीकत से. चीन-भारत युद्ध पर बनी इस फिल्म में भूपिंदर ने गया, 'होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा'. इस गाने में मन्ना डे, रफी और तलत महमूद उनके सह-गायक थे. इस गाने में वह परदे पर भी दिखे थे.

इसके बाद 1966 में 'रुत जवां-जवां" जैज का दुर्लभ कंपोजिशन था और कंपोजर थे खय्याम. गौरतलब है कि खय्याम गजलों के बादशाह कहे जाते थे. खय्याम ने इसके बाद उनसे 'अहले दिल यूं भी निभा लेते हैं' (दर्द, 1981) और 'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता' (आहिस्ता-आहिस्ता) जैसे गाने गवाए.

लेकिन, गजलें तो ठीक हैं पर पश्चिमी संगीत के उस्ताद आर.डी. बर्मन ने सत्तर के दशक में ही भूपिंदर की प्रतिभा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था. 1972 में जीतेंद्र अभिनीत 'परिचय' में बर्मन ने उनसे गवाया, 'बीती न बिताई रैना'. इतनी आश्वस्तिदायक, सधी हुई आवाज इंडस्ट्री में कम थी, जिसे स्टारडम की चमक छू भी नहीं गई थी. इसके बाद आरडी ने भूपिंदर को 1977 में किनारा फिल्म में गवाया, 'नाम गुम जाएगा... चेहरा ये बदल जाएगा.'

भूपिंदर को सुनने का मतलब एक खास किस्म की मानसिक स्थिति भी होती है. संभवतया प्रेम में आकंठ डूबे लोग ही इस आवाज की उतार-चढ़ाव को महसूस कर सकते हैं. आप इस भारी, गहरी आवाज में साथ-साथ डूबते और उतराते हैं. चाहे यह फिल्म 'मासूम' का गाना, 'हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिए...' और इसी गाने में ऊंचे नोट पर सुरेश वाडेकर भी हैं और दोनों आवाजें एक-दूसरे को पूरती हैं.

वैसे, भूपिंदर को आरडी बर्मन ने 'दम मारो दम' और 'महबूबा-महबूबा' (शोले) में भी इस्तेमाल किया, लेकिन गायक के तौर पर नहीं. भूपिंदर ने इसमें गिटार बजाया है.

'मौसम' और 'घरौंदा' में उनकी शहद जैसी आवाज तो आज भी हमें प्यारी है. 'दिल ढूंढता है' और 'एक अकेला इस शहर में', दोनों ही गीतों के दो संस्करण हैं और अपबीट मूड हो या उदास, दोनों में भूपिंदर परफेक्ट हैं. 'घरौंदा' का 'दो दिवाने शहर में' उदास संस्करण में 'एक अकेला इस शहर में' हो जाता है.

इसके बाद 1979 में एक फिल्म आई 'दूरियां'. इसका एक गीत है 'जिंदगी मेरे घर आना' और 'जिंदगी में जब भी तुम्हारे गम..' इन दोनों गीतों में अनुराधा पौंडवाल उनकी सह-गायिका थी.

इसके बाद 1980 में सितारा में एक बार फिर आरडी-गुजजार साथ आए तो गाना निकला 'थोड़ी सी जमीं, थोड़ा आसमां'. लता के साथ एक बार फिर सुरों का जादू बिखेरा भूपिंदर ने. 1988 में गुलजार ने दूरदर्शन के लिए एक टीवी सीरियल बनाया था- मिर्जा गालिब. इसके संगीत निर्देशक थे जगजीत सिंह और उन्हें भूपिंदर से बहादुर शाह जफर की कई गजलें गवाईं.

लेकिन, भूपिंदर सिंह की आवाज को याद करते हुए अंत में उन्हीं का गीत याद आता हैः करोगे याद तो हर बात याद आएगी.

भूपिंदर का जाना बेशक संगीत में एक खालीपन पैदा करेगा. यह शायद उस जादूगर का निधन है, पर यह जादू तबतक खालिस बचा रहेगा, जब तक संगीतप्रेमी अपने एकांत के क्षणों में इस भारी और गहरी आवाज के उतार-चढ़ाव के साथ अपने मन की गहराइयों में डूबेंगे-उतराएगें.