गौस सिवानी / नई दिल्ली
कोरोना और लॉकडाउन ने देश में बनी-बनाई व्यवस्था को बर्बाद कर दिया है. कई तरह के प्रतिबंधों के कारण कलाकारों को काम नहीं मिल रहा है और वे अब रोजी-रोटी की समस्या से जूझ रहे हैं. उन्हें पता नहीं है कि आगे क्या करना है. न ही कोई सरकार या एनजीओ उनकी मदद को आगे आया है. यह कहना है दरगाह निजामुद्दीन औलिया से जुड़े आजम निजामी का.
आजम निजामी का कहना है कि उनका परिवार लगभग दो सदियों से यहां कव्वाली गा रहा है. वे उर्स के दिनों में अजमेर शरीफ और अन्य तीर्थस्थलों पर भी जाते हैं. यह उनकी आमदनी का एकमात्र जरिया है. दरगाह के सेवकों ने वित्तीय सहायता प्रदान की है, लेकिन लॉकडाउन के कारण, ज्यादातर कव्वालों को वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. कव्वाल के अलावा अन्य कलाकार भी काफी परेशानी से गुजर रहे हैं. हालांकि कुछ कठिनाइयों के बावजूद, वे इस पेशे को छोड़ना नहीं चाहते हैं.
नियाज साबरी और नवाज साबरी के लिए, सूफी कविता रोजगार का एकमात्र स्रोत है. उनके पास पूरे वर्ष के लिए उर्स की एक सूची है. जब दरगाह में उर्स आयोजित होता है, तो वे अपनी कव्वाली लोगों तक पहुंचाते हैं, लेकिन कोरोना के आगमन और उसके बाद के लॉकडाउन ने उनके लिए समस्याएं पैदा कर दी हैं, क्योंकि कोरोना के प्रसार के डर से देश में कहीं भी भीड़ की अनुमति नहीं है. इस कारण उर्स परंपरा के सूफी कव्वाली समारोह भी मना हो गए हैं. ऐसे में उनके लिए गृहस्थी चलाना मुश्किल हो गया है. वह बिहार के बेगू सराय से हैं और यहां चाय की दुकान खोलने की सोच रहे हैं. यह समस्या केवल उनकी नहीं है, बल्कि अन्य कलाकार भी इस कशमकश से गुजर रहे हैं.
राजधानी दिल्ली सहित पूरे देश में ऐसे युवाओं की बड़ी संख्या है, जो कला के मानकों को पूरा करने के बावजूद अपमानजनक स्थिति में हैं. वे होटलों या अन्य जगहों पर पूरे दिन काम करते हैं और शाम ढलते ही हारमोनियम और तबला के साथ दरगाहों में पहुंचते हैं. आज उनकी नौकरियां खतरे में हैं.
कव्वाली एक शुद्ध भारतीय कला है, जो इस भूमि में ही उत्पन्न हुई थी, लेकिन इसकी लोकप्रियता आज उपमहाद्वीप से बाहर फैल गई है और यह कला भौगोलिक सीमाओं से मुक्त हो चुकी है. अमीर खुसरो ने संगीत की एक विशेष शैली पेश की थी, जिसे बाद में कव्वाली कहा जाने लगा. यह कला तब से जीवित है. हालांकि यह सूफी दरगाहों में पैदा हुई थी, लेकिन अब यह संगीत उद्योग की खास हिस्सा बन गई है. इन दिनों, विभिन्न कव्ववालियां लोकप्रिय हैं, जिनमें पहली नजर में, छाप तिलक सब छीनी, मुहम्मद के शहर में, आज रंग है, आदि शामिल हैं.
कुछ कव्वाल इतने मकबूल हुए हैं कि उनकी कव्वालियां मृत्यु के बाद भी अमर हो गई हैं, जिनमें साबरी ब्रदर्स, अमजद साबरी, उस्ताद नुसरत फतेह अली खान और अजीज मियां शामिल हैं.