राजेन्द्र शर्मा
हरियाणा के जिले हिसार में 31 अगस्त, 1988 को पिता मनजीत सिंह और माता अजीत कौर के घर आंगन में जन्मे प्रदीप सिंह शारिरिक तौर पर सौ फीसद विकलांग हैं. उन्हें सेरिब्रल पाल्सी नामक लाइलाज बीमारी है जो बहुत कम लोगों को होती है और जिसके कई प्रकार हैं. प्रदीप सिंह को सेरिब्रल पाल्सी के जिस प्रकार से जुझना पड़ रहा है वो भी इस बीमारी एक अलग सा ही प्रकार है. ज्यादातर सेरिब्रल पाल्सी के मामलों में मरीज की मानसिक अवस्था भी प्रभावित होती है लेकिन प्रदीप के मामले में इसका अपवाद है कि उनका दिमाग सामान्य रूप से सक्रिय है.
बचपन से दब्बू और डरपोक से प्रदीप आजकल अपनी कविताओं और डायरी में बेबाक तरीके से बोल रहे हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि लेखन ही उनके मन की सच्ची आवाज है. मन की आवाज़ उनके लिखे में साफ सुनाई देती है खासकर उन्हें जो उन्हें जानते हैं समझते हैं. बचपन से सरकारी क्वाटर की छोटी सी बगीची में मिट्टी, पानी, धूप, ताजी सब्ज़ियों, फलों, पेड़ों, पक्षियों, फूलों और उनपर मंडराती तितलियों को घँटों निहारते प्रदीप कब पाठ्य पुस्तक पूरी पढ़ लेते थे उन्हें खुद पता नहीं चलता था. स्कूल नहीं गए लेकिन दसवीं तक पढ़ाई की.
कुछ छूटता है तो बहुत कुछ मिलता भी है यह बात प्रदीप की पर सटीक बैठती है. पुराना घर छूटा नए घर में आए तो कवि ,चित्रकार,काटूनिस्ट मनोज छाबड़ा जैसे हमदर्द का साथ मिला जिन्होंने पढ़ाई छूटने पर साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित किया. बचपन से ही पढ़ने के शौकीन रहे प्रदीप पाठ्यक्रम से अतिरिक्त भी बहुत सी बाल पत्रिकाएं चंपक, नन्दन, और बहुत सी कॉमिक्स पढ़ा करते थे. उनके मनोज अंकल द्वारा दिया साहित्य उनके लिए जरूर था लेकिन पढ़ना आसान था बचपन की आदत जो थी. लिखना लेकिन बहुत बाद में शुरू हुआ. बीच में बहुत सी किताबें पढ़ डाली. बीच-बीच में मनोज छाबड़ा उन्हें बार-बार लिखने के लिए प्रेरित करते. जिसे प्रदीप शारिरिक अवस्था का हवाला दे कर टालते रहते. लगातार कविताओं की बारिश और मनोज छाबड़ा की प्रेरणा की के बीज ने आखिर शरीर की पथरीली जमीन पार करते हुए मन की कोमल मिट्टी में कविता की कोंपलों को उगा ही दिया.
तुकबंदियों से अपने साहित्यिक सफर की शुरुआत करने वाले प्रदीप के लिखना पढ़ने से कहीं ज्यादा कठिन था. पहले कुछ मन आता फिर घँटों उसे लिखवाने के किसी का इंतजार करना. इतने में कविता मन में कितनी बार बदल जाती थी और जिस रूप में कागज़ पर उतरती तब तक उसका अलग ही रूप प्रदीप के सामने होता था. प्रदीप साहित्यिक सफर में मनोज छाबड़ा के बाद दूसरी क्रांति उनका सोशल मीडिया से जुड़ना रहा. जुड़े तो दोस्तों के कहने से थे लेकिन वहाँ उन्हें सही मायनों में एक कॉपी मिल गई थी लिखने को जिसे फेसबुक कहते हैं. पहले कुछ शेरो-शायरी का दौर चला .
2011-12 में पहली कविता फेसबुक पर डाली. यह प्रदीप के लेखन की विधिवत शुरुआत थी. मगर मसला अब भी वही था कि कविता तो किसी भी समय जहन में उतर आती लेकिन कम्प्यूटर तक पहुँचने और फिर उसे गूगल की सहायता से टाइप करने में प्रदीप को जाने कितना ही समय लग जाता था. फिर बीच में बिजली का जाना और स्लो टायपिंग स्पीड फिर उस समय के ब्रॉडबैंड की रफ्तार ये सब प्रदीप की कविताओं को बहुत प्रभावित करते. प्रदीप मगर जुटे रहते. उनकी मेहनत फली और उनका फेसबुक पर लिखा पहली बार 2012 में स्थानीय संध्या दैनिक 'नभ छोर' में प्रकाशित हुआ. 2013 में, मनोज छाबड़ा जिन्हें प्रदीप अपना उस्ताद मानते हैं का कविता संग्रह 'तंग दिनों की खातिर प्रकाशित हुआ. जिसके विमोचन में प्रदीप को शामिल होने का मौका मिला. दर्शक दीर्घा में बैठे प्रदीप को उनके पड़ोसी चाचा बिजेंद्र ने फुसफुसा कर कहा था कि अगली बार मैं तुझे यहाँ नहीं वहाँ मनोज भाईसाहब के साथ बैठा देखना चाहता हूँ. जिसे प्रदीप मजाक समझ कर भूल गए.
मगर प्रदीप के उस्ताद कह लो या गुरु मनोज छाबड़ा उनके लेखन पर बहुत नजदिकी निगाह रखे हुए थे. बकौल प्रदीप अचानक यूँही एक दिन प्रदीप के पास बैठे हुए मनोज ने प्रदीप से कहा कि अपनी सभी कविताएँ जमा करो उन्हें संग्रह का रूप देने का समय आ गया है. पहले तो प्रदीप को बिल्कुल यकीन नहीं हुआ कई घँटों तक जाने क्या सोचते सोचते अपनी सारी कविताएँ मनोज छाबड़ा को भेज दी. मनोज छाबड़ा ने कविताएँ बोधि प्रकाशन जयपुर के मालिक माया मृग को कुछ कविताएँ भेजकर उनकी राय माँगी. माया मृग ने कविताएँ पढ़ी और मनोज छाबड़ा को पांडुलिपि तैयार कर भेजने को कहा. 2015में प्रदीप सिंह की पहली किताब 'थकान से आगे' छप कर आई स्वयं माया मृग ने हिसार आकर एक भव्य समारोह में 'थकान से आगे' का लोकार्पण किया. समारोह का पूरा इंतज़ाम मनोज छाबड़ा स्वयं अस्वस्थ होते हुए भी संभाल रहे थे.
उनकी देख-रेख में एक पौधा तैयार हो रहा है.बोधि प्रकाशन जयपुर और माया मृग एक प्रकाशक होकर भी 'थकान से आगे' के प्रचार प्रसार में इस तरह लगे कि जैसे वे अपनी ही लिखी किताब का प्रचार प्रसार कर रहे हों. उनकी मेहनत का नतीजा यह रहा कि किताब एक समीक्षक विजेंद्र शर्मा जो कि बी.एस.एफ में एक ऊंचे ओहदे पर थे और उन दिनों दिल्ली में कार्यरत थे के हाथ लगी. उन्होंने किताब की जो समीक्षा लिखी उसने तो जैसे किताब को पंख लगा दिए.
प्रदीप को रोजाना देश के कोने-कोने से फोन आने लगे. कुछ फोन से भी थे क्योंकि विजेंद्र शर्मा ने 'थकान से आगे' प्रचार सोशल नेटवर्क पर भी कर दिया था. हिंदुस्तान टाइम्स के हिंदी संस्करण के दिल्ली ज़ोन के संपादक प्रताप सोमवंशी तक भी किताब जा पहुँची. वो और उनके कुछ दोस्त मिलकर हर साल एक कार्यक्रम का आयोजन करते हैं. कार्यक्रम का नाम डी.पी.एफ-दिल्ली पोएट्री फेस्टिवल हुआ करता है जिसमें बहुत बड़े बड़े कवि, शायर, फ़िल्म हस्तियाँ, और राजनीति से जुड़े लोगों को आमंत्रित किया जाता था. प्रताप सोमवंशी ने अपने दोस्तों से बात की जिनमें वरिष्ठ शायर वसीम बरेलवी ने प्रदीप की कविताएँ सुनकर कहा यार इस बच्चे को बुलाना चाहिए. इस तरह प्रदीप को दिसंबर 2015में मनीष सिसोदिया के हाथों डी.पी.एफ-3दिल्ली पोएट्री फेस्टिवल-3के अंतरगत युवा श्रेणी में सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम दिल्ली में सम्मानित किया गया फ़रहत शहज़ाद, वसीम बरेलवी, प्रसून जोशी, पीयूष मिश्रा, जावेद अख़्तर, जैसी तमाम बड़ी हस्तियों के बीच.
कविताओं में नित नए रंग भरते प्रदीप की लेखनी को करीब से देखते मनोज छाबड़ा ने अब प्रदीप की लेखनी को एक नई दिशा देने की सोची. जिसमें प्रदीप अपनी बात खुलकर रख सके उन्होंने प्रदीप को अलग तरह की किताबें पढ़ने को कहा उपलब्ध भी करवाई. फिर जब प्रदीप ने उस तरह की 10-20किताबें पढ़ ली तो मनोज छाबड़ा ने प्रदीप को अपनी दैनिकी लिखने के लिए प्रेरित किया. चूंकि अब प्रदीप सिंह टैब पर जब मर्ज़ी लिख सकते थे और उनकी टायपिंग स्पीड भी टैब पर कम्यूटर से बेहतर हो चली थी इसलिए यह काम ज्यादा मुश्किल था नहीं. इस प्रकार प्रदीप सिंह ने डायरी लिखना आरंभ किया.
जनवरी 2020 में मनोज छाबड़ा द्वारा संपादित प्रदीप सिंह की डायरी बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुई. जिसका विमोचन दिल्ली के प्रगति मैदान में लगने विश्व पुस्तक मेले में लीलाधर मंडलोई जी के हाथों हुआ. यह पुस्तक भी चर्चा में बनी हुई है. कोरोना महामारी का असर किताबों के प्रचार प्रसार पर भी पड़ा है. इसलिए सभी बड़े प्रकाशक सोशल मीडिया पर लाइव गोष्ठियां और अन्य कार्यक्रम करवा रहे हैं ताकि साहित्य से दूर हो चुके लोगों के साथ साथ साहित्य प्रेमी भी साहित्य से जुड़े रहें.
अंत में इतना ही कि मनोज छाबड़ा की प्रेरणा के तेल से यह प्रदीप(प्रकाश दीप, प्रदीप के नाम अर्थ) सदा हारे और हतोत्साहित हो चुके लोगों में अपनी लौ से प्रकाश और उत्साह प्रवाहित करता रहे. कोरोना काल में भी प्रदीप डगमगाये नही, बिना किसी भय कह के कविता लिखने में मशगूल है .
यहां प्रस्तुत है कवि प्रदीप सिंह की तीन कविताएं
(1) साइकिल पर
साइकिल पर
लादकर घर
चल तो दिए हम अपने देस को लेकिन
तुम्हारी
रफ़्तार से टकराकर
न हम बचे न साइकिल पर लदे हमारे घर ही
मौत से
भागते हुए
रास्ते पर पैरों के निशान नहीं
रस्ता
छप गया है तलवों पर
हमारे फ़टे पाँवों की
बहती लकीरों में तारकोल आ बैठा है
जबकि खून घुल गया है सड़कों में
हमारे लहू से महकते हैं
तुम्हारी सत्ता के राजमार्ग
भूखे-प्यासे
खाई हमने लाठियां
हमारे स्वागत में कानून वर्दी पहने
लिए खड़ा था लाठियां
दफाएँ इतनी
लगी
जितनी न की थी दिहाड़ियाँ
अपने
घरों में बैठकर
देखना तुम
कि इन आलीशान शहरों के मज़दूर हम
कैसे
घर पहुँचते-पहुँचते भूखे लुटेरे हो जाएंगे...
(2) चौराहे पर
चौराहे पर
चल रहा था
खेल
साँप-नेवले का
कभी साँप नेवले पर भारी
कभी नेवला साँप पे हावी
दोनों हार न मानें
... ये दबोचा
वो पकड़ा ...
दर्शकों के हर पल बदलते हावभाव
सब हैरान, कौन जीतेगा यही सवाल
अचानक मदारी का
पटाक्षेप
न साँप न नेवला
दोनों गायब
दर्शकों के सवाल का
बस यही जवाब
मदारी के पास
साँप निगल गया नेवला
नेवला खा गया साँप
आम लोग
परेशान
दंगे के बाद
कहाँ गए दंगाई...
(३) आत्मकथ्य
मेरे विकलांग होने से
घर और दादी कभी अकेले नहीं होते
मां समझ गई है फर्क
सपने और हकीकत का
मेरे विकलांग होने से
पिता के
दांये हाथ की जिम्मेदारियां
और बढ़ गई हैं
भाई ने पाया है
एक अनोखा आत्मविश्वास
अकेले जूझकर
ज़िंदगी की तमाम मुश्किलों से
मेरे विकलांग होने पर भी
नहीं हो पाता हूं
मैं विकलांग
मैं उड़ता हूं पंछियों के साथ
बहता हूं नदी और हवा में
भटकता हूं अपने आकाश में बादल बनकर
मैं अंधेरे का दीपक हूं
और दीपक तले अंधेरा भी
अगर तुम सोचते हो
कि विकलांग हूं मैं
तो तुम्हारी सोच को जरूरत है
मेरी व्हीलचेयर की.
लेखक राजेन्द्र शर्मा वाणिज्य कर विभाग उत्तर प्रदेश में वाणिज्य कर अधिकारी के पद पर नोएडा में कार्यरत है .