हिंदी दिवसः हिंदी के निर्माण में मुस्लिमों का योगदान

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 14-09-2021
हिंदी दिवस विशेष
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आवाज विशेष । हिंदी दिवस

अरविंद कुमार

हिंदी को हिंदुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताने वालों के लिए यह तथ्य चौंकाने वाला साबित होगा कि हिंदी भाषा के निर्माण में मुसलमानों का भी योगदान रहा है और यह मुग़ल काल से लेकर आज तक जारी है. हिन्दी गंगा-जमुनी तहजीब के बीच विकसित हुई है इसलिए उसे गांधी जी हिंदुस्तानी कहते थे. हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय ने तो ‘मुग़ल बादशाओं की हिंदी कविता’नामक एक चर्चित किताब ही लिखी है.

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने तो लिखा है कि 1911 में जो मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट जारी हुई थी उसमें उर्दू कोई अलग भाषा ही नहीं मानी गयी. वह हिंदी की एक शाखा या एक बोली विशेष मात्र मानी गयी. उस जमाने मे 15 प्रतिशत हिन्दू फारसी में लिखते थे जबकि 14 प्रतिशत मुसलमान देवनागरी लिपि में लिखते थे. कहने का अर्थ हिन्दू मुस्लिम जुबान के मामले में गंगा-जमुनी संस्कृति में रचे बसे थे.

द्विवेदी जी ने यह भी लिखा है कि सरकार ने हिंदी उर्दू के विकास के लिए 1927 में जो हिंदुस्तानी अकेडमी गठित की, उसके सभासदों में 3 मुस्लिम और चार हिन्दू सदस्य थे.

इस तरह देखा जाए तो हिंदी के विकास में मुसलमानों का बड़ा योगदान रहा.

इससे पहले उन्नीसवीं सदी में मुस्लिम लेखकों और कवियों ने हिंदी में भी अपना उत्कृष्ट योगदान दिया. इंशा अल्ला खां ‘इंशा’ की लिखी ‘रानी केतकी की कहानी’ (उदयभान चरित) को हिंदी की पहली गद्य रचना माना जाता है. इसकी रचना 1803 में की गई जबकि 1841 में यह मुद्रित हुई.

मुगल काल से लेकर अंग्रेजी शासन और फिर आजाद भारत में अब तक लखनऊ और आसपास जिलों में कई मुस्लिम लेखक और कवि ऐसे हुए हैं जिन्होंने हिंदी में अपनी रचनाओं के जरिए इस प्रवाह को अनवरत जारी रखा. इंशा अल्ला खां ‘इंशा’ (1756-1817) का जन्म तो पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में हुआ था लेकिन उनके पूर्वज दिल्ली आकर बस गए और फिर इंशा अल्ला लखनऊ आ गए. 

डॉ. मैनेजर  पाण्डेय के अनुसार, "हुमायूं के कविता प्रेमी होने के दो सबूत हैं. एक तो उसके दरबार में फारसी के कुछ ऐसे कवि थे जो हिन्दी में गीतों की रचना करते थे. वे थे अब्दुल वाहिब बिलग्रामी और शेख गदाई देहलवी." दूसरे, हुमायूं के शासन का इतिहास लिखने वाले ख्वुंद मीर की किताब में 'कानून-ए-हुमायूँनी' में जगह-जगह कविताएं दी गई है.

डॉ. मैनेजर पाण्डेय का कथन है,“हुमायूं के दरबार में दो कवि ऐसे थे जो हिन्दी और फारसी दोनों भाषाओं में लिख रहे थे. हुमायूं के दरबार में छेम नाम के एक हिन्दी कवि भी थे.”

एलिसन बुश ने अपनी किताब 'पोएट्री आफ किंग्स' में मुग़ल दरबार से जुड़े रीति काल के कवियों का विस्तार से विवेचन किया है. एलिसन के अनुसार, "शेरशाह सूरी के वारिस इस्लाम शाह के दरबार में हिन्दी कविता का स्वागत होता था. शाह आलम के दरबार में अवधी के कवि में मंझन और ब्रजभाषा के नरहरि थे. नरहरि बाद में अकबर के दरबार में शामिल हुए.”

मैनेजर पाण्डेय ने अकबर की कला प्रेम के बारे में लिखा है, “अकबर के दरबार के लगभग सभी नवरत्न हिन्दी के कवि थे. उनमें अब्दुल रहीम खानखाना के साथ तानसेन, बीरबल, टोडरमल और फैजी हिन्दी में कविता लिखते थे.”

किताब ‘मिश्रबन्धु विनोद’के अनुसार जेतराम नाम के एक कवि अकबरी दरबार में थे. दरबार में एक और रीति कवि कर्णेश और दूसरे मनोहर कछवाह थे. एक और चर्चित ब्रज भाषा के कवि हैं,गंग जिनकी अनेक कविताएं मिलती हैं. एक और हिन्दी कवि शेख शाह मोहम्मद फरमली थे जिनकी रचना है 'सिंगार सतक'.

अकबरी दरबार के रहीम खानखाना ने तुर्की, फारसी, संस्कृत, ब्रजभाषा और अवधी में कविताएं लिखीं हैं. उनकी कविताओं में खड़ी बोली के भी प्रयोग मिलते हैं.

डॉ.पांडेय के अनुसार,“अकबर की हिंदी कविताएं 'संगीत रागकल्पद्रुम' में संग्रहित हैं. अकबर केवल कविता प्रेमी ही नहीं वह स्वयं कवि भी था. 'अकबर के जीवन कुछ घटनाएं' किताब के संपादक शीरीं मुसवी ने, 'कवि तथा आलोचक' शीर्षक के अंतर्गत लिखा है; "बादशाह सलामत का स्वभाव बड़ा प्रेरणामय है वे हिन्दी और फारसी में कविताएं भी लिखते हैं. वह बहुधा काव्यालोचन के गम्भीर विषयों पर भी चर्चा करते हैं तथा उनकी विविधता एवं सुन्दरता की व्याख्या भी करते हैं.”

अकबर ने हिन्दी में कविताएं लिखीं हैं,यह बात हिन्दी साहित्य के कई इतिहास में लिखी गई है. अकबर का बेटा दानियाल भी हिन्दी में कविता लिखता था. जहांगीर हिन्दी और फारसी दोनों भाषाओं में कविता लिखता था. जहांगीर की हिन्दी कविताएं संगीत रागकल्पद्रुम में हैं

मुग़लकाल में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ब्रजभाषा और अवधी में कविताएं लिखते थे.

आधुनिक हिंदी साहित्य में गुलशेर खां शानी से लेकर बद्दीउज्जमा और डॉ. राही मासूम रज़ा, मेहरुन्निसा परवेज, असगर वजाहत,अब्दुल बिस्मिल्लाह, नासिरा शर्मा,मंजूर एहतेशाम, आलमशाह खान, बादशाह हुसैन रिज़वी, इब्राहिम शरीफ और असद जैदी मुस्लिम  लेखकों ने हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में कलम चलाई है और हिंदी को समृद्ध किया है. इन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक और कविता के क्षेत्र में महत्पूर्ण योगदान दिया.

राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गांव’एक क्लासिकल उपन्यास लिखा तो असग़र वज़ाहत ने ‘जिन लाहौर नईं वेख्या..”जैसा चर्चित नाटक लिखा, जिसका विदेशों में भी मंचन हुआ.

असग़र वज़ाहत और अब्दुल बिस्मिल्लाह जामिया में हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी रहे. मुस्लिम लेखकों के हिंदी विभाग के योगदान को इस बात से समझ जा सकता है कि जामिया में हिंदी विभाग की स्थापना एक मुस्लिम शिक्षक ने की थी. पिछले दिनों जामिया मिल्लिया इस्लामिया ने शिक्षक दिवस के मौके पर  हिंदी विभाग के संस्थापक और हिंदी उर्दू के विद्वान मुजीब रिज़वी के नाम पर ‘मुजीब’नामक पत्रिका निकाल कर उन्हें श्रद्धांजलि दी है. यह पहला मौका है जब देश मे किसी शिक्षक के नाम पर कोई पत्रिका निकली हो.

जामिया की स्थापना के सौ साल और हिंदी विभाग की स्वर्ण जयंती के मौके पर यह शोध पत्रिका निकली है जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त भी है. मुजीब साहब का बड़ा योगदान है. उर्दू भाषी होकर वे हिंदी के बड़े स्कॉलर थे. जायसी, कबीर और सूफीवाद के वे विशेषज्ञ थे.

21 मार्च, 1934 में इलाहाबाद के निकट बिसौना गांव में जन्मे मुजीब साहब ने 1971 में जामिया में हिंदी विभाग की स्थापना की थी. उन्होंने जायसी की ‘पद्मावत’पर किताब लिखी थी और कबीर पर भी एक महत्वपूर्ण किताब उर्दू में लिखी थी जिसका हिंदी अनुवाद भी आ रहा है. वे सूफी साहित्य के भी विद्वान थे.

इलाहाबाद विश्विद्यालय से बी ए करने के बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालग से एम ए और पीएचडी करनेवाले मुजीब साहब का 2015 में इंतक़ाल हो गया था.