मलिक असगर हाशमी/ नई दिल्ली
बॉलीवुड की चकाचौंध से दूर, बिहार के मध्य क्षेत्र यानी मगही इलाक़े में एक बुज़ुर्ग महिला हैं, जिनकी आवाज़ लाखों दिलों को छू चुकी है. 65 वर्षीय अलीमुन बुआ को लोग "मध्य बिहार की लता मंगेशकर" कहते हैं. लेकिन विडंबना यह है कि जिनकी आवाज़ पर यूट्यूब पर लाखों व्यूज आते हैं, जिनके गानों से यू-ट्यूबर गोल्डन और सिल्वर प्लेट तक पा चुके हैं, वही अलीमुन बुआ आज भी ग़रीबी और बदहाली में जी रही हैं.
यह कहानी केवल एक कलाकार के शोषण की नहीं, बल्कि उस मिट्टी की भी है जहाँ से लोकगीतों की परंपरा जन्म लेती है और फिर अनजाने लोग उस पर अपनी रोज़ी-रोटी का महल खड़ा कर लेते हैं.
अलीमुन बुआ बताती हैं कि वे महज़ 10-12 साल की उम्र से गा रही हैं. उनका पेशा ही गायिकी है. गाँव-घर में जब भी कोई संतान जन्म लेती है या शादी-ब्याह होता है, उन्हें बुलाया जाता है. उनके सोहर गीतों के बिना खुशी का माहौल अधूरा माना जाता है. यही उनका रोज़गार है. इससे परिवार पलता है.
उनकी आवाज़ की खनक इतनी विशिष्ट है कि लोग उन्हें "बेगम अख्तर की याद दिलाने वाली गायिका" कहकर पुकारते हैं. एक यूट्यूबर यासिर मिर्ज़ा एचडी इंडिया ने 2018 में जब अलीमुन बुआ का पहला सोहर यूट्यूब पर डाला था, तो उस पर तारीफ़ों की बाढ़ आ गई थी.
लोग लिखने लगे – “क्या खनक है चाची की आवाज़ में…”, “गॉड गिफ्टेड वॉइस…”, “ये तो प्लेबैक सिंगर बनने लायक हैं.”लेकिन इन तारीफ़ों का असली लाभ किसे मिला? व्यूज और पैसे कमाने वाले यूट्यूबर को या फिर गाँव की उस बूढ़ी गायिका को जिसकी झोपड़ी अब भी वैसे ही टूटी-फूटी है?
सात साल बाद आज एक बार फिर अलीमुन बुआ सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रही हैं. इंस्टाग्राम रील्स, फेसबुक पोस्ट और यूट्यूब पर उनके गाने छाए हुए हैं. कई पेज उन्हें "वायरल दादी" और "विरासत की आवाज़" कह रहे हैं. लेकिन उनकी ज़िंदगी में कोई बदलाव नहीं.
आज भी वही पुरानी ग़रीबी, वही संघर्ष. जब वे गाती हैं तो लाखों व्यूज आते हैं, लोग तालियाँ बजाते हैं, लेकिन इन लाइक्स-शेयर के बीच उनकी झोली खाली रह जाती है.
सोहर: संस्कृति की सांस, आस्था का स्वर
बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की संस्कृति में सोहर एक विशेष परंपरा है. संतान के जन्म पर यह गीत गाए जाते हैं. इसमें धर्म का कोई भेद नहीं. हिंदू हों या मुसलमान, सभी घरों में खुशी के मौके पर मिर्यासियों से सोहर गवाया जाता है.
लोकसंस्कृति शोधकर्ता आकांक्षा प्रिया लिखती हैं – “सोहर का अर्थ मांगलिक गीत से है. जैसे शादी-ब्याह में बन्ना-बन्नी गाए जाते हैं, वैसे ही संतान जन्म पर ‘ललना’ शब्द से गूंजते सोहर गाए जाते हैं. इन गीतों में प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव की स्मृति भी जीवित रहती है.”
यानी सोहर सिर्फ़ लोकगीत नहीं, बल्कि लोकआस्था और सामाजिक समरसता का प्रतीक है.गाँवों में सोहर गाने का अपना अलग ही रस है. बुज़ुर्ग बताते हैं कि पहले नाचने-गाने वाले ‘नचनिया’ या ‘लौंडा’ भी इन गीतों को बड़े हुनर से गाते थे. उनकी आवाज़ इतनी ऊँची और सुरीली होती कि गाँव के लोग घरों से बाहर निकलकर दरवाज़े पर खड़े हो जाते.
याद आता है एक किस्सा—जब गाँव में एक कलाकार बिना वाद्ययंत्र के बैठा और अपने गले से ऐसा सोहर छेड़ा कि दूर-दूर तक उसकी गूँज सुनाई देने लगी. गीत के बोल में दुल्हन का बचपन, शादी का सुख-दुख और जीवन की कठिनाइयाँ सब बखान हो जाते. एक पंक्ति कुछ इस तरह थी:
“कवन मासे बाबा मोर बियाह कएलन,
कवन मासे गवन कएलन होऽ,
ललना कवन मासे स्वामी सेजिया सोएली…”
इन गीतों में केवल शब्द नहीं होते, बल्कि पूरे समाज की संवेदनाएँ दर्ज रहती हैं.
‘पंचायत 3’ से लेकर यूट्यूब तक
लोकगीतों की ताक़त यही है कि वे कभी पुराने नहीं होते. हाल ही में वेब सीरीज़ ‘पंचायत सीजन 3’ में भी मनोज तिवारी की आवाज़ में गाया गया सोहर दिखाया गया. उस दृश्य ने दर्शकों को रुला भी दिया और लोकसंगीत की जड़ों से जोड़ भी दिया.
अलीमुन बुआ का गायन भी उसी परंपरा की जीवित मिसाल है. फर्क सिर्फ़ इतना है कि जहाँ टीवी और ओटीटी से जुड़ने वाले कलाकार प्रसिद्धि और पैसा दोनों पा रहे हैं, वहीं अलीमुन बुआ जैसे लोकगायक अब भी जीवनयापन के लिए दूसरों पर निर्भर हैं.
कला और साहित्य में कलाकारों का शोषण कोई नई बात नहीं. लेकिन डिजिटल दौर में यह शोषण और भी खतरनाक है. अब कलाकारों की आवाज़ तो वायरल हो जाती है, लेकिन आमदनी ‘मालिक’ के नाम हो जाती है.
यूट्यूब पर अलीमुन बुआ के सोहर गाकर लाखों व्यूज बटोरने वाले चैनलों के पास गोल्डन और सिल्वर प्लेट हैं, पर उसी आवाज़ की असली मालकिन अब भी रोज़मर्रा की ज़रूरतों से जूझ रही है.
अलीमुन बुआ से जब पूछा गया कि अब वे क्या चाहती हैं, तो उनकी आवाज़ में वही मासूमियत और पीड़ा झलकती है. वे कहती हैं— “गायकी ही हमारा पेशा है. यही से घर चलता है. चाहती हैं कि हमारी आवाज़ से सिर्फ़ दूसरों का फायदा न हो, हमें भी कुछ सहारा मिले.”
उनकी यह पुकार उस पूरे समाज के लिए है, जो लोककलाओं का आनंद तो उठाता है, पर कलाकार की ज़िंदगी को बेहतर बनाने की ज़िम्मेदारी नहीं लेता.सोहर केवल गीत नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक आत्मा है. यह लोकगीत धर्म, समाज और पीढ़ियों को जोड़ता है. अलीमुन बुआ जैसी गायिकाएँ उस धरोहर की जीवित मिसाल हैं.
जरूरत इस बात की है कि सरकार, सांस्कृतिक संस्थाएँ और समाज मिलकर ऐसे कलाकारों की सुध लें. उनकी आवाज़ से अगर डिजिटल दुनिया कमाई कर रही है, तो उसका कुछ हिस्सा उन्हें भी मिले.अगर ये स्वर खामोश हो गए, तो केवल एक गायिका की आवाज़ नहीं, बल्कि सदियों पुरानी संस्कृति का एक जीवित अध्याय भी खो जाएगा.