ज़ाहिद ख़ान
मुल्क में मनाए जाने वाले तमाम त्योहारों में होली एक ऐसा त्योहार है, जो मुख़्तलिफ़ मज़हब के लोगों को आपस में जोड़ने का काम करता है. होली, दिलों के फ़ासलों को दूर करने का एक ज़रिया बन जाती है. लोग आपस में गले मिलकर अपने सभी पुराने मतभेद, गिले-शिकवे भुला देते हैं.
उर्दू अदब में दीगर त्यौहारों की बनिस्बत होली पर ख़ूब लिखा गया है. होली, शायरों का पसंदीदा त्यौहार रहा है. उत्तर भारत के शायरों में अमूमन सभी ने होली के रंग की फुहारों को अपने शे’रों—शायरी में बांधा है. शायरों के शायर मीर तक़ी 'मीर' के अदब में ‘होली’ उन्वान से उनकी एक लंबी मसनवी में आसफ़उद्दौला के दरबार की होली का तफ़्सील से ब्यौरा मिलता है. होली की बहारों को वे कुछ इस ख़ूबसूरत अंदाज़ में बयां करते हैं,
होली खेले आसफ़ुद्दौला वजीर
रंग सुहबत से अज़ब है खुर्दो-पीर
कुमकुमे जो मारते भरकर गुलाल
जिसके लगता आन कर फिर मेंहदी लाल.
वहीं एक और दीगर मसनवी ‘साकीनामा होली’ में उनकी कैफ़ियत है,
आओ साकी, बहार फिर आई
होली में कितनी शादियां लाई
फिर लबालब है आब-ए-रंग
और उड़े है गुलाल किस किस ढंग.
उर्दू शायरों में नज़ीर अकबराबादी एक ऐसे शायर हैं, जिन्होंने होली पर सबसे ज़्यादा रचनाएं लिखी हैं. उनके कुल्लियात में होली पर दस नज़्में मिलती हैं. उनके ज़माने में ब्रज में किस तरह से होली खेली जाती थी, इन नज़्मों को पढ़ने से अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
नज़ीर होली को सिर्फ़ हिंदुओं का त्यौहार नहीं मानते, बल्कि उनका कहना था कि यह सांझा त्यौहार है और इसे हिंदू-मुस्लिम दोनों को मिल-जुलकर मनाना चाहिए. नज़ीर की शायरी की ज़बान भी आमफ़हम है. जिसका हर कोई लुत्फ़ उठा सकता है. होली के दिलकश अंदाज़ को अपनी एक नज़्म में उन्होंने कुछ इस तरह से बांधा है,
कोई तो रंग छिड़कता है कोई गाता है
जो खाली रहता है, वो देखने को आता है.
एक ही शायर होली को कितने अलग-अलग अंदाज़ से देखता है, यह उनकी होली विषयक नज़्मों को पढ़कर जाना जा सकता है.
गुलज़ार खिले हों परियों के और मज़लिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छींटों से ख़ुशरंग अजब गुलकारी हो
मुंह लाल, गुलाबी आंखें हों और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक भारी हो.
आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ भी होली पर लिखने से ख़ुद को नहीं बचा पाए. फागुन के महीने में होने वाले इस रंगों के उत्सव में लोग एक दूसरे पर रंग या गुलाल डालते और वसंत ऋतु के गीत गाते हैं. इस मौक़े पर गाये जाने वाले गीत, फाग कहलाते हैं. ‘ज़फ़र’ ने होली पर नज़्मों और ग़ज़लों के बरक्स होली की कई फागें लिखीं. यह फागें मुक़ामी ज़बान ब्रज में लिखी गई हैं. उनकी ऐसी ही एक मशहूर फाग है,
क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी
देखों कुंवर जी दूंगी मैं गारी
भाग सकूं मैं कैसे मो सों भागा नहिं जात
ठाड़ी अब देखूं और को सन्मुख आत
बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जानू दूं.
दक्षिण भारत के अहम शायर मोहम्मद क़ुली क़ुतब शाह को भारतीय त्यौहारों और उनसे जुड़े लोक विश्वासों की गहरी समझ थी. यही वजह है कि उनकी शायरी में यह सबरंग बार-बार आते हैं,
बसंत खेलें इश्क की आ पियारा
तुम्हीं मैं चांद में हूं जूं सितारा
जीवन के हौज खाने में रंग मदन भर
सू रोमा रोम चर्किया लाए धारा
नबी सदके बसंत खेल्या कुतब शाह
रंगीला हो रहिया तिरलोक सारा.
ख़्वाजा हैदर अली जिन्हें हम ‘आतिश’ के नाम से जानते हैं, उनके दीवान में होली पर कई शे’र मिल जाते हैं. अपने एक शे’र में वे होली को इस अंदाज़ में मनाने का पैग़ाम देते हैं,
होली शहीद-ए-नाज़ के खूं से भी खेलिए
रंग इसमें है गुलाल का बू है अबीर की.
उर्दू शायरों की होली से मुताल्लिक़ तमाम नज़्मों, ग़ज़लों और मसनवियों को पढ़ने से साफ़ मालूम चलता है कि उस गुज़रे दौर में किस तरह का बहुलतावादी सांस्कृतिक परिवेश था और इस त्यौहार को हिंदू-मुस्लिम किस क़दर ख़ुलूस और मुहब्बत से मनाते थे.