छापा के लिबास दुल्हन को बनाता है खूबसूरत, बिहार की पुरानी परंपरा

Story by  सेराज अनवर | Published by  [email protected] | Date 13-11-2023
Chapa dress makes the bride beautiful, this tradition of Bihar is centuries old
Chapa dress makes the bride beautiful, this tradition of Bihar is centuries old

 

सेराज अनवर/पटना
 
भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां खान-पान ,रहन-सहन,कपड़े-लत्ते,सभ्यता-संस्कृति की एक अलग पहचान है.हर राज्य और हर जाति-धर्म समूह का एक अलग पहनावा है.जो सदियों से चला आ रहा है.ऐसा ही बिहार के मुस्लिम घरानों में एक पारंपरिक लिबास है छापा वाले कपड़े.फ़ैशन और आधुनिक युग में भी यह पोशाक अपनी पहचान नहीं खोया है.

छापा  कपड़े एक पारंपरिक बिहारी पोशाक है,जिसे बड़े मुस्लिम घरानों में शादियों में पहना जाता है.कहते तो यहां तक है कि मुसलमानों की उच्च जातियों में इसके बग़ैर निकाह ही नहीं होता.बिहार में मुस्लिम घरानों की शादी छापा कपड़ों के बग़ैर अधूरी मानी जाती है.
 
दिलचस्प बात यह है कि छपाई का पेशा रंगरेज़ बिरादरी के लोग करते हैं.जो मुसलमानों की पिछड़ी जाति से आते हैं.एक तरह से यह लिबास जात-पात से उपर समुदाय को जोड़ता है.छपाई कपड़े का काम बिहार के गया,बिहारशरीफ,औरंगाबाद,दरभंगा,सिवान,मुज़फ़्फ़रपुर,और पटना के सब्ज़ीबाग़ में होता है.
 
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सदियों पुराना इतिहास

 दूल्हे द्वारा दुल्हन को भेजे जाने वाले कपड़े आमतौर पर उस छापे के होते हैं जो दुल्हन शादी के दिन पहनती है.इस कपड़े को पहन कर ही निकाह होता है.छापा कपड़े का इतिहास 19वीं सदी की शुरुआत से माना जाता है.पेशे से डॉक्टर फ्रांसिस बुकानन ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी के रूप में भारत आए थे.
 
उन्होंने 1811 और 1812 के बीच अपनी पत्रिका में एक लेख लिखा,जिसमें संक्षेप में छापे का उल्लेख किया गया था.बुकानन ने बिहार के गया के अलावा विभिन्न जिलों का दौरा किया था.बुकानन ने अपने लेख में प्रिंटेड कपड़े बनाने के महत्व और बिहारी मुस्लिम परिवारों के महत्व का उल्लेख किया है.दरअसल, छापा कपड़ा और बिहारी मुसलमानों को पहनने की परंपरा का ऐतिहासिक महत्व है.
 
पुरानी परंपरा के अनुसार,मुस्लिम परिवार विवाह समारोहों के दौरान छापा कपड़े ही पहनते थे,समय बीतने के साथ,नए फैशन के कारण  छापा कपड़े पहनने का रिवाज थोड़ा कम ज़रूर हुआ है मगर यह अपनी पहचान आज भी क़ायम रखा हुआ है.
 
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दुल्हन का ख़ास लिबास

चली आ रही रिवायत के मुताबिक़ दूल्हा का परिवार दुल्हन और उसके रिश्तेदारों को तरह-तरह के उपहार देता है,जिसे बिहार भाषा में’डाला’कहा जाता है.’डाला’का कपड़ा भी छापे के होता है.दुल्हन का सभी लिबास छापा कपड़ा से ही तैयार होता है.चांदी के तबक़ को लकड़ी से बने डिज़ाईन ब्लॉक से साड़ी,सूट सलवार,गरारह,शरारह,लहंगा और अन्य पोशाक पर प्रिंट किया जाता है.
 
इसे मुस्लिम दुल्हनें अपनी शादी के दिन पहनती हैं.इसके अलावा बक्सा,चादर और पर्दे भी छापा कपड़े से तैयार होते हैं.शादी के दिन दूल्हा के हाथ में छापा से तैयार रूमाल  रखने की भी प्रथा है.इस पेशे की बिरादरी रंगरेज़ जागरण मंच के राष्ट्रीय संयोजक मुस्तकीम अख़्तर रंगरेज़ बताते हैं कि छापा में चांदी का तबक़ फ़िज़िकल और मेडिकल दृष्टिकोण से काफी अहम है,यह पोशाक पहनने वाले को ऊर्जानवित करता है.
 
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अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है लोकप्रियता

छापा के पोशाक बिहार में ही नहीं देश-विदेश में भी लोकप्रिय है.पाकिस्तान,बांग्लादेश,अमेरिका,कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के अलावा भारत के दूसरे राज्यों में रहने वाले बिहारी मुस्लिम परिवार शादियों में छापेमारी से बने कपड़े ही खरीदते हैं.छापा कपड़े धंधा से जुड़े व्यापारी मुहम्मद मुस्तफा और कारीगर मुहम्मद वसीम के मुताबिक़  लोग सोचते हैं कि शादी समारोह छापे कपड़े के बिना अधूरा है.
 
छापा के कपड़े तैयार कर बिहार के बाज़ारों सहित  देश के अन्य राज्यों विदेशों में बसे बिहारी घरानों को भेजते हैं.मुस्तफा बताते हैं कि  बंटवारे के दौरान कुछ बिहारी परिवार पाकिस्तान चले गए थे लेकिन वे अभी भी अपनी परंपराओं को बनाए हुए हैं.कोरोना महामारी से पहले उनके कपड़े पाकिस्तान के अलावा अन्य देशों में निर्यात किए जाते थे. उन्होंने कहा कि बदलते फैशन के साथ डिजाइन में भी बदलाव किया जा रहा है. वसीम के मुताबिक शादी के सीजन में प्रिंटेड कपड़े बड़ी संख्या में बिकते हैं.
 
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कैसे तैयार होता है छापा पोशाक ?

इसे केमिकल्स और लेयर्स से बनाया जाता है.फूलों की पंखुड़ियों आदि की एक नाजुक डिजाइन के साथ कारीगर लकड़ी के ढांचा पर बारीक-बारीक डिजाइन जिसमें फूल-पतियों का नक़्शा होता है. चूल्हे पर खौलते गरम पानी में गोंद और फ़ेविकोल के अलावा कुछ केमिकल भी मिलाया जाता है और उसे खूब गरम किया जाता है.
 
इसे लकड़ी के ढांचे पर लगा कर कपड़ों पर अंकित किया जाता है.कपड़े पर छपाई करते समय,उन्हें ऊपर की परत पर रखा जाता है,जो कागज की तरह चांदी के रंग का होता है,उस पर रख कर पिटते हैं.इस दौरान इतना दबाव डाला जाता है कि परत पूरी तरह चिपक जाती है.
 
छपे हुए कपड़े को दो-तीन बार धोने पर वह निकलने लगता है लेकिन चमक बनी रहती है.कारीगर मोहम्मद नौशाद बताते हैं कि उन्हें रसायनों के साथ काम करने की आदत है.एक साड़ी की छपाई में पांच से छह सौ रुपये का खर्च आता है जबकि एक हजार रुपये में बिकता है.
 
उन्होंने कहा कि फिलहाल बाजार में इसकी मांग में अचानक वृद्धि हुई है.हमारे यहां  हर उम्र की महिलाओं के कपड़े बेचे जाते हैं.छापा कपड़े की ख़ासियत यह भी है कि यह बेहद सस्ता है.शहर गया कि न्यू करीमगंज की रहनी वाली ग़ज़ाला परवीन कहती हैं कि छापा कपड़ों से दुल्हन की रौनक़ बढ़ जाती है. 
 
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छापा कपड़े को उद्योग का दर्जा ज़रूरी

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस धंधे को लुप्त होने से बचाने और इसके विकास के लिए रंगरेज़ आर्टिजन विकास समिति का भी गठन किया है.हालांकि,लालफ़ीता शाही के कारण समिति सक्रीय नहीं है.समिति के प्रमुख सदस्य मुस्तकीम रंगरेज़ आवाज़ द वायस से कहते हैं कि यदि यह समिति पूर्णरूप से काम करना शुरू कर दे तो छापा पेशा से जुड़ी बिरादरी का दुःख-दर्द दूर हो जाये.
 
वह कहते हैं कि नीतीश कुमार की नियत ठीक है मगर अफसरशाही के चलते समिति निष्क्रिय है.रंगरेज़ बिरादरी सहित तीन अन्य मुस्लिम जातियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए 17 सितंबर 2019 को विधिवत रूप से समिति का गठन किया गया.मुस्तकीम कहते हैं कि छापा कारोबार को प्रोत्साहन और अपना बाज़ार की जरूरत है.
 
इसे खादी ग्राम उद्योग की तर्ज़ पर उद्योग का दर्जा मिलना चाहिए साथ ही पटना स्थित खादी मॉल की तरह अपनी चीजों को खुले बाज़ार में बेचने के लिए छापा कपड़ा मॉल की स्थापना होना चाहिए.समिति के गठन का उद्देश्य यह था कि कुटीर उद्योग धंधे को बाज़ार में खड़ा होने के लिए पूंजी मुहैया कराया जाये.मुस्तकीम अख़्तर एक दशक से यह लड़ाई लड़ रहे हैं.